एबीएन एडिटोरियल डेस्क। भारतीय चिंतन में तीज त्यौहार केवल धर्मिक अनुष्ठान और परमात्मा की कृपा प्राप्त करने तक सीमित नहीं है। परमात्मा के रूप में परम् शक्ति की कृपा आकांक्षा तो है ही, साथ ही इस जीवन को सुंदर और सक्षम बनाने का भी निमित्त तीज त्यौहार हैं। इसी सिद्धांत नवरात्र अनुष्ठान परंपरा में है। इन नौ दिनों में मनुष्य की आंतरिक ऊर्जा को सृष्टि की अनंत ऊर्जा से जोड़ने की दिशा में चिंतन है। आधुनिक विज्ञान के अनुसंधान भी इस निष्कर्ष पर पहुंच गये हैं कि व्यक्ति में दो मस्तिष्क होते हैं। एक चेतन और दूसरा अवचेतन।
इसे विज्ञान की भाषा में कॉन्शस और अनकॉन्शस कहा गया है व्यक्ति का अवचेतन मष्तिष्क सृष्टि की अनंत ऊर्जा से जुड़ा होता है। जबकि चेतन मस्तिष्क संसार से। हम चेतन मस्तिष्क से सभी काम करते हैं पर उसकी क्षमता केवल पन्द्रह प्रतिशत ही है। जबकि अवचेतन की सामर्थ्य 85% है। सुसुप्त अवस्था में तो दोनों का संपर्क जुड़ता है। पर यदि जाग्रत अवस्था में चेतन मस्तिष्क अपने अवचेतन से शक्ति लेने की क्षमता प्राप्त कर ले तो उसे वह अनंत ऊर्जा से भी संपन्न हो सकता है। प्राचीनकाल में ऋषियों की वचन शक्ति अवचेतन की इसी ऊर्जा के कारण रही है।
नवरात्र में पूजा साधना विधि जन सामान्य को अवचेतन की इसी शक्ति को सम्पन्न करने का प्रयास है। इससे आरोग्य तो प्राप्त होगा ही साथ ही अलौकिक ऊर्जा से संपन्नता भी बढ़ती है। अनंत ऊर्जा से जुड़ने की प्रक्रिया पितृपक्ष से आरंभ होती है। दोनों मिलाकर यह कुल पच्चीस दिनों की साधना है। सनातन परंपरा में दो बार नवरात्र आते हैं। एक चैत्र माह में और दूसरा अश्विन माह में। ये दोनों माह सृष्टि के पांचों तत्वों के संतुलन की अवधि होती है। अतिरिक्त क्षमता अर्जित करने के लिये पांचों तत्वों का संतुलन आवश्यक है। असंतुलन की स्थिति में उस तत्व से संबंधित तो प्रगति तीव्र होती है जिसका अनुपात अधिक होता है पर संपूर्ण की गति कम रहती है।
प्रकृति संतुलित हो तो प्राणी ही नहीं समूची वनस्पति में आंतरिक विकास की गति तीब्र होती है। इसका अनुमान हम फसल चक्र से लगा सकते हैं। यदि प्राणी देह की आंतरिक कोशिकाओं के विकास की अवधि में अतिरिक्त प्रयास हों तो अतिरिक्त ऊर्जा से संपन्नता हो सकती है। दोनों नवरात्र में यह शारदीय नवरात्र अधिक महत्वपूर्ण हैं। इस नवरात्र को पितृपक्ष से जोड़ा गया है। पितृपक्ष की नियमित दिनचर्या चित्त को शांत करती है। शांत चित्त में ही सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है। शरीर, मन और प्राण शक्ति को इस योग्य बनाती है कि व्यक्ति ज्ञान और आत्मा के स्तर पर सृष्टि की अनंत ऊर्जा से जुड़ सके। इसीलिए पितृपक्ष में यम, नियम, संयम, आहार और प्राणायाम पर जोर दिया गया है। जबकि नवरात्र में धारणा ध्यान और समाधि पर।
देवी को आदिशक्ति माना है। इसीलिए भारत में नारी को आद्या कहा है और पुरुष को पूर्णा। शक्ति के विभिन्न रूप हैं। शरीर की शक्ति, मन की शक्ति, बुद्धि की शक्ति, चेतना की शक्ति और प्रकृति की शक्ति। यदि शरीर सबल है किंतु मन भयभीत है तो परिणाम अनुकूल न होंगे। यदि शरीर ठीक है, मन ठीक है पर बुद्धि यह काम न कर रही तो कार्य को कैसे पूरा किया जाये तो भी परिणाम अनुकूल न होंगे। सब ठीक होने पर यदि प्रकृति विपरीत हो तो भी परिणाम प्रभावित होगा। इन्हीं सब प्रकार की शक्ति अर्जित करने के लिये ही नवरात्र की अवधि है।
यह नवरात्र बहु आयामी हैं। ये शरीर को स्वस्थ्य बनाते हैं, शक्ति सम्पन्न बनाते हैं और अंतरिक्ष की अनंत ऊर्जा से जोड़ने हैं। पर अच्छे परिणाम तभी होंगे जब हम पितृपक्ष की अवधि का पालन भी निर्धारित दिनचर्या से करें। जिस प्रकार हम कहीं दूर देश की यात्रा के लिये पहले वाहन की ओव्हर हालिंग करते हैं वैसे ही पहले पितृपक्ष में शरीर, मन, विवेक बुद्धि को तैयार किया जाता है। नवरात्र में नौ देवियों के पूजन का विधान है। प्रत्येक देवी का नाम अलग है, रूप अलग है, पूजन विधि अलग है, और तो और पृथक वनस्पति और पृथक चक्र से संबंधित है। मानव देह में मूलाधार से कुल आठ चक्र होते हैं। आरंभिक आठ दिन इन चक्र के माध्यम से शरीर की सभी कोषिकाओं को सक्रिय और समृद्ध बनाना है।
यह हमारा भ्रम और अज्ञानता है कि जो कर रहे हैं हम अपनी सामर्थ्य से कर रहे हैं। वस्तुत: हम एक पग भी प्रकृति की शक्ति के बिना नहीं उठा सकते। हमारे जीवन का एक एक पल और हमारी एक एक श्वांस भी प्रकृति की शक्ति से संचालित होती है। प्रकृति अनंत शक्ति और ऊर्जा से संपन्न है। विज्ञान की भाषा में प्रकृति की ऊर्जा का अंश ही हमको संचालित कर रहा है। वहीं आध्यात्मिक शब्दों में कहें तो हमारे भीतर आत्मा ही उस परम् दिव्य शक्ति का अंश है। दोनों के शब्दों में अंतर है पर भाव एक ही। कि प्रकृति की शक्ति या ऊर्जा ही हमारी सामर्थ्य है।
यदि हम कुछ अतिरिक्त प्रयत्न करके प्रकृति से अतिरिक्त ऊर्जा ले लें तो हमारी कार्य ऊर्जा में गुणात्मक वृद्धि हो सकती है। प्रकृति से अतिरिक्त शक्ति प्राप्त करने की साधना के ही दिन हैं ये नवरात्र। पर पहले शरीर, मन, बुद्धि और चेतना को इतना सक्षम बनाना होता है कि वह इस अतिरिक्त ऊर्जा को अपने भीतर समेटने में सक्षम हो सके। शरीर को संतुलित बनाने की अवधि है पितृपक्ष और स्वयं को अतिरिक्त ऊर्जा से युक्त बनाने की अवधि है नवरात्र। कितने लोग हैं यथा अवस्था में ही जीवन जीते हैं और कितने लोग हैं जो अपना जीवन शून्य से आरंभ करके भी आसमान की ऊंचाइयां छू लेते हैं।
यह सब उनकी आंतरिक क्षमता के उपयोग से ही संभव होता है। शरीर की प्रत्येक कोशिका या अंग को स्वस्थ्य रखना और उसे प्रकृति की अनंत ऊर्जा से जोड़ना ही यह कुल अवधि का सारांश है। शरीर की कोशिकाओं या अंगो को केंद्र ये आठों चक्र हैं। इनके द्वारा ही ऊर्जा अंगों या कोशिकाओं को पहुंचती है। इसे गर्भावस्था में जीवन विकास क्रम से समझा जा सकता है। गर्भस्थ शिशु माता की नाभि से ही भोजन और श्वांस लेता है। अर्थात माता के नाभि चक्र में वह सामर्थ्य है कि वह एक जीवन को विस्तार दे सकता है। लेकिन गर्भस्थ शिशु के विकास और उनके जन्म के बाद नाभि चक्र की उपयोगिता कितनी रह जाती है।
भारतीय अनुसंधानकर्ताओं ने इसी विचार को आगे बढ़ाया और शरीर के सभी चक्रों को अधिक सक्रिय कर अंतरिक्ष की अनंत ऊर्जा से संपन्न होने का मार्ग खोजा। यह नौ दिन की साधना यही मार्ग खोलती है। इसका यह आशय कदापि नहीं कि पितृपक्ष में पितरों के समीप आने या उनके आशीर्वाद प्राप्त करने की अवधारणा या नवरात्र में देवी को प्रसन्न करने की अवधारणा कोई कम महत्वपूर्ण है। इन दोनों अवधारणाओं का अपना महत्व है। पर इसके साथ हमें इन उपासना के पीछे पितरों और देवी को प्रसन्न करके अपनी सामर्थ्य वृद्धि के दर्शन की बात भी समझना है।
नवरात्र साधना में दैवीय कृपा मिलने, या ध्यान समाधि से अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त करने के मार्ग के साथ औषधियों और आरोग्य प्राप्त करने का अवसर भी होते हैं नवरात्र। दुर्गा कवच में वर्णित नवदुर्गा नौ विशिष्ट औषधियों में हैं। प्रथम शैलपुत्री का संबंध हरड़ से माना गया है जो अनेक प्रकार के रोगों में काम आने वाली औषधि है। हरड़ को हिमायती गया है जो देवी शैलपुत्री का ही एक रूप है। यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है। यह पथ्य, हरीतिका, अमृता, हेमवती, कायस्थ, चेतकी और श्रेयसी सात प्रकार की होती है। द्वितीय ब्रह्मचारिणी। इन्हे ब्राह्मी भी कहा गया है। यह ब्राह्मी औषधि स्मरणशक्ति बढ़ाती है और रक्तविकारों को दूर करती है। वाणी को भी मधुर बनाती है। इसलिए इसे सरस्वती भी कहा जाता है।
तृतीय चंद्रघंटा। इंहें चंद्रसुर भी कहा गया है। चन्द्रसूर एक ऐसा पौधा है जो धनिए के समान है। यह औषधि मोटापा दूर करता है, सुस्ती दूर करता है। शरीर को सक्रिय रहता है और त्वचा रोगों में भी लाभप्रद है चतुर्थ कूष्माण्डा इनका प्रतीक कुंमड़ा है। आज-कल इस दिन कुंमड़े की बलि देने का प्रचलन हो गया है। पर वस्तुत: यह एक प्रकार की औषधि है इससे एक मिष्ठान्न पेठा भी बनता है। इससे रक्त विकार दूर होता है, पेट को साफ होता है। मानसिक रोगों में तो यह अमृत के समान है। पंचमी देवी स्कन्दमाता। इनका प्रतीक अलसी है। कहते हैं ये देवी अलसी में विद्यमान रहती हैं। अलसी वात, पित्त व कफ रोगों की नाशक औषधि है। षष्ठम् कात्यायनी देवी हैं। इन्हें मोइया भी कहा गया है।
यह औषधि कफ, पित्त व गले के रोगों का नाश करती है।सप्तम् कालरात्रि। इन देवी का वास नागदौन में माना गया है। यह औषधि नागदौन सभी प्रकार के रोगों में लाभकारी होती और मनोविकारों को दूर करती है।अष्ठम् महागौरी। इनका निवास तुलसी में माना गया है। तुलसी कितनी गुणकारी होती है। हम परिचित हैं। तुलसी सात प्रकार की होती है सफेद तुलसी, काली तुलसी, मरूता, दवना, कुढेरक, अर्जक और षटपत्र तुलसी। शरीर मन और मस्तिष्क का ऐसा कोई रोग नहीं जिसमें तुलसी लाभकारी न हो। पिछले दिनों पूरी दुनियाँ में एक बीमारी कोरोना फैली।
जिन घरों में तुलसी पत्ती की नियमित चाय बनती थी वहाँ इस बीमारी का प्रभाव नगण्य ही रहा। नवम् सिद्धिदात्री। इनका वास शतावरी में माना गया है। इसे नारायणी शतावरी भी कहते हैं। यह बल, बुद्धि एवं विवेक के लिए उपयोगी है।इस प्रकार इन नौ दिनों का संबंध औषधियों से भी है। नवरात्र में नियमानुसार साधना आराधना करके और निर्देशित दिनचर्या करके हम आरोग्य प्राप्त कर सकते हैं। अंतरिक्ष की अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं और दैवी कृपा तो है ही। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
Subscribe to our website and get the latest updates straight to your inbox.
टीम एबीएन न्यूज़ २४ अपने सभी प्रेरणाश्रोतों का अभिनन्दन करता है। आपके सहयोग और स्नेह के लिए धन्यवाद।
© www.abnnews24.com. All Rights Reserved. Designed by Inhouse