एबीएन एडिटोरियल डेस्क। काथलिक कलीसिया में ख्रीस्त जयंती का अलग ही महत्व है। यह पर्व येसु के जन्मदिन की याद दिलाता है। उनका जन्म अद्भुत था, क्योंकि उनके जन्म से एक नया युग, नयी सोच और नयी जीवन शिक्षा की शुरुआत हुई। उनका जन्म भी विशिष्ट था, क्योंकि जोसफ और गर्भवती मरियम ने अगुस्तुस सीजर के समय यहूदी जनगणना के लिए अपना नाम दर्ज करवाने के लिए नाजरेथ से बेथलेहम पहुंचने के लिए लगभग 150 किलोमीटर पैदल यात्रा की।
बेथलेहम पहुंचने पर गर्भवती मरियम दर्द से तड़प रही थीं, और जोसफ बड़े आशा और उम्मीद से मदद की गुहार लगाते हुए घर-घर जाकर शरण की याचना कर रहे थे। लेकिन जोसफ और मरियम को अपरिचित और अजनबी समझकर अधिकांश लोग अपना दरवाजा बंद कर देते थे। फिर भी, जोसफ ने अपनी पत्नी मरियम को हौसला और साहस देते हुए, आशा की किरण के साथ हर घर का दरवाजा खटखटाया, लेकिन हर बार यही जवाब मिलता, हमारे यहां स्थान नहीं है, कृपया आगे जाइये। थके-हारे वे शरण की खोज में दर-दर भटकते रहे।
अंत में, बहुत मुश्किल से उन्हें एक छोटे से कोने में एक स्थान मिला, जहां घरेलू जानवरों को रखा जाता था। वहीं, मरियम ने अपने प्यारे पुत्र येसु मसीह, दुनिया के मुक्तिदाता को जानवरों के बीच जन्म दिया। इस प्रकार, बड़ी तंगी में येसु का जन्म नाजरेथ के एक साधारण परिवार में हुआ, जहां जोसफ एक बढ़ाई थे।
येसु के जन्म का पर्व हम सभी मानवता के लिए, इस दुनिया के लिए आशा का संदेश देता है। यह पर्व आशा का पर्व है, क्योंकि यह हमें जीवन में आगे बढ़ने के लिए हिम्मत और साहस देता है। यह पर्व येसु के जन्म के समय की सामाजिक स्थिति और वास्तविकता आज के हमारे समाज, परिवार और हर एक माता-पिता के लिए एक सच्चे दर्पण की तरह है। यह जन्म पर्व हमारे जीवन की कड़वी सच्चाई है।
इस पर्व का यही संदेश है कि हम एक दूसरे के लिए आशा बनें। हम भी एक-दूसरे के लिए आशा बनें, जैसे जोसफ ने पूरी तत्परता और लगन के साथ अपनी पत्नी का साथ दिया। मरियम ने भी बड़े प्यार से, सुख और दु:ख में, एक आशा की किरण बनकर एक आदर्श पत्नी और मां का कर्तव्य निभाया और नाजरेथ के परिवार को प्रेम और पवित्र परिवार बनाया।
दूसरी ओर, येसु के जन्म के समय दुनिया ने उन्हें शरण नहीं दी और उनका साथ नहीं निभाया। दुनिया ने येसु को उनके जन्म से लेकर मृत्यु तक दु:ख, गम, अन्याय, तिरस्कार और धोखा दिया, लेकिन बदले में उन्होंने दुनिया को न्याय, प्रेम, क्षमा, विश्वास और शांति की शिक्षा दी। उन्होंने हमेशा दबे कुचले, शोषित, असहाय, जरुरतमंदों का सहारा दिया, हर कदम में उनका साथ दिया।
इसलिए येसु इम्मानुएल कहलाये जिसका अर्थ है प्रभु हमारे साथ है। उन्होंने अपनी आखिरी सांस तक अपने जीवन से प्रेम, साहस और आशा का एक अमिट संदेश दिया। यह पर्व हमें एक गहरा निमंत्रण देता है कि हम हर लाचार, बेबस, हताश और निराश दिलों के लिए आशा की किरण बनें। एक-दूसरे के जीवन में उम्मीदों का दीप जलायें, ताकि हर कदम में एक नयी रोशनी और विश्वास का अहसास हो। (लेखक रांची महाधर्मप्रांत हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। क्रिसमस का समय हम ख्रीस्त विश्वासियों के लिए एक अद्भुत और उल्लासपूर्ण पर्व होता है। यह वह अनमोल क्षण है, जब हम प्रभु येसु के जन्म की खुशी में डूबकर इस पर्व को श्रद्धा, आस्था और हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। परंतु, क्या आप जानते हैं कि क्रिसमस का असली अर्थ क्या है? यह सिर्फ क्रिसमस ट्री, सांताक्लाज या रंग-बिरंगे केक का पर्व नहीं है। इन प्रतीकों के माध्यम से हम उत्सव का आनंद तो लेते हैं, लेकिन क्रिसमस का सच्चा संदेश कहीं अधिक गहरा और अर्थपूर्ण है।
क्रिसमस वह दिन है जब प्रभु येसु ने स्वर्ग से पृथ्वी पर आकर मानवता का उद्धार किया, पाप से मुक्ति प्रदान की और हमें प्रेम, शांति और मुक्ति का अद्वितीय संदेश दिया। यही असली क्रिसमस है : एक दिव्य प्रेम, शांति और समर्पण की कहानी, जो आज भी हमारे दिलों को सुकून और उत्साह देती है। इस दिन का महत्व सिर्फ उत्सव तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमें अपने आस्थाओं, आदर्शों और दृष्टिकोणों को नई दिशा देने के लिए प्रेरित करता है।
जैसे परम पिता परमेश्वर ने अपने इकलौते पुत्र को हमारी मुक्ति के लिए हमारे बीच भेजा, वैसे ही हमें भी समाज में उपस्थित असहाय, गरीब और जरूरतमंदों के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। क्रिसमस हमें यह सिखाता है कि खुशियां तब ही सच्ची होती हैं, जब हम इन्हें एक-दूसरे के साथ बांटते हैं, जैसे प्रभु ने हमें अपना सब कुछ दे दिया।
क्रिसमस के समय में, सड़कों, दुकानों, पेट्रोल पंपों, रेलवे स्टेशनों और हर जगह सजावट की एक विशेष छटा देखने को मिलती है। हर कोने में क्रिसमस के गीत गूंजते हैं और पूरा वातावरण प्रभु के जन्म का उत्सव मनाता है। ये सारी सजावट और खुशी हमें यह याद दिलाती हैं कि यह पर्व सिर्फ बाहरी उत्सव नहीं है, बल्कि यह हमारी आत्मा को उज्जवल बनाने और एक दूसरे के प्रति प्रेम और दया का संदेश देने का पर्व है।
हम ख्रीस्त विश्वासियों के लिए क्रिसमस सिर्फ आनंद और उत्सव का पर्व नहीं, बल्कि प्रेम, सेवा और मदद का प्रतीक है। यह हमें मानवता के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने और सभी के लिए प्रेम और शांति का मार्ग दिखाने के लिए प्रेरित करता है। क्रिसमस के इस शुभ अवसर पर, आप सभी को ढेर सारी शुभकामनाएं और बधाईयां...। (लेखिका प्रभात तारा स्कूल, धुर्वा की सहायक शिक्षिका हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। आजकल 2-3 दिनों से एक व्यक्ति की आत्महत्या की खबर को खूब तवज्जो दिया जा रहा है। उसकी आपबीती सोशल मीडिया पर बवाल मचा दिया है। ऐसा लग रहा है कि दिल्ली की निर्भया या कोलकोत्ता के आरजी कर अस्पताल की निर्भया-2 के बाद देश में ये पहला निर्भय कांड है। दहेज से संबंधित क़ानून पर सवाल उठने लगे। यहां तक की इसकी शोर सर्वोच्च न्यायालय तक सुनी गयी। उम्मीद है इस व्यक्ति को न्याय मिले।
आज के आधुनिक दुनिया में जहां भारत की पहुंच मंगल/चंद्रमा तक पहुंच गया है उसके समाज में अगर अपनी नज़र सही से दौड़ाया जाय तो कई निर्भया मिल जायेगी और शायद निर्भय जैसे एक भी नहीं। इसलिये इक्के दुक्के घटनाओं से पूरे महिला समाज पर उंगली उठाने से पहले नज़र तीन सौ साठ अंश घुमा कर देख लेना चाहिए।
कोई भी क़ानून परफ़ेक्ट नहीं होता पर जैसे-जैसे समाज विकसित होता है वैसे-वैसे क़ानून और नज़रिये में बदलाव आते रहते है। और होना भी चाहिए। पितृप्रधान समाज में एक भी चूक होने से सुभाष जैसे मामलों को बेधड़क तूल दी जाती है। देश, राज्य, शहर, जिला, गांव के हर कोने-कोने से कोई न कोई महिला के साथ ऐसा वर्ताव हो रहा है।
पर क्या सभी की खबर हम सब तक पहुंच पाती है। ये सोचने वाली बात है। दहेज/घरेलू हिंसा/बलात्कार के सभी कांड मीडिया में छपने लगे तो शायद अख़बार के लिये 50 पन्ने भी कम पड़ जाये और सोशल मीडिया में और कोई खबर ही न दिखे। इन सब के अलावा झारखंड जैसे राज्य में डायन कुप्रथा भी प्रचलित है जिसकी दास्तां अगर सोशल मिडिया पर इतनी सिद्दत से बयां की जाये तो रोंगटे खड़े हो जायेंगे। इसलिये कहते है कि कुछ की छप जाती ह तो कुछ की छूप जाती हैँ।
इसलिये जब महिला सुरक्षा से संबंधित क़ानून की ख़ामियो पर प्रश्न उठे तो ये भी देखना चाहिये कि क़ानून को और कैसे मज़बूत किया जाये ताकि पीड़ित माहिला को समय पर न्याय मिले। अभी भी बलात्कार से जुड़े अपराध में सजा ( कनविक्शन) दर तीन प्रतिशत है। उसी प्रकार दहेज के मामलों में ये दर लगभग पंद्रह प्रतिशत से भी कम है। घरेलू हिंसा और अन्य क़ानून को अगर जोड़ के देखा जाये तो भी सजा का दर बहुत कम है।
इसके लिये कई कारण हो सकते है। पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि समाज में अभी भी इन सब क़ानून को लेकर भय नहीं है। समाज में चलता है कल्चर के कारण समाज में अभी भी इसको लेकर एकजुटता नहीं है, एक घटना से अगर महिला संबंधित क़ानून के दुरूपयोग पर सवाल उठ जाते है तो ये भी मंथन करना चाहिये की दहेज/बलात्कार/घरेलू हिंसा और अन्य महिला सुरक्षा के लिये बने क़ानून में सजा दर इतनी कम क्यों है।
क्यों लोग बरी हो जाते है। क़ानून के ख़ामियो को कैसे दूर किया जाय। पीड़ित को मूवावजा के नाम पर चंद पैसे न देकर शीघ्र न्याय कैसे दी जाय। आरोपी के ज़मानत को पीएमएलए के दर्ज पर क्यों न लाया जाय।पुलिस जाँच को न्यूनतम समय में और सटीक कैसे किया जाय। फ़ॉरेन्सिक व्यवस्था को और सुदृढ़ कैसे बनाया जाय। प्रत्येक जिला में महिला संबंधित अपराध के लिये विशेष न्यायालय जिसमें महिला जज हो, क्यों न बनाया जाय।
उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में महिला जज की संख्या क्यों न बढ़ाया जाय। जबतक ऐसे कई सवालों के जवाब नहीं मिलते हैं, तबतक महिला संबंधित अपराध के रोकथाम वाले क़ानून के दुरुपयोग पर प्रश्नचिन्ह लगते रहेंगे और ये क़तई लाज़मी नहीं है। भारत देश भले ही लोकतांत्रिक हो गया है। भले ही महिलाओं को पहले दिन से मतदान का समान अधिकार मिला। पर समाज और परिवार अभी भी लोकतांत्रिक प्रयास से दूर है। घर-समाज का समानता की परछाई से दूर दूर तक कोई संबंध नहीं है।
शिक्षा से लेकर पारिवारिक निर्णय लेने में सहभागिता से लेकर आर्थिक स्वतंत्रता में महिला-समाज को अभी काफ़ी लंबा सफ़र करना है और जबतक ये सफ़र जारी है और देश की आधी आबादी के सुरक्षा और विकास का मुद्दा ज्वलंत है इस तरह के खबर से किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाज़ी होगी।
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। टीवी चैनल पर महाराष्ट्र की एक महिला ने कहा कि सरकार की योजना से उसे जो पैसे मिले, उससे वह पहली बार साड़ी खरीद सकी। यह कितने अफसोस की बात है कि जब शादियों में दिखावे के रूप में पांच हजार करोड़ तक खर्च किये जा रहे हों, तब उसी प्रदेश में एक स्त्री इस बात के लिए धन्यवाद दे कि वह जीवन में पहली बार साड़ी खरीद सकी। जब पिछले दिनों मध्य प्रदेश के चुनाव में वहां के भूतपूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भारी बहुमत प्राप्त किया था, तो उन्होंने कहा था कि लाड़ली बहनों ने उन्हें जीत दिलायी है। सारा श्रेय उन्हीं को दिया जाना चाहिए।
कल किसी ने जब कहा कि भारतीय जनता पार्टी रेवड़ियों का विरोध करती है और उसने महिलाओं को खूब रेवड़ियां बांटी तो एक अन्य दल की महिला नेत्री ने कहा कि इसे रेवड़ी नहीं, वुमेन एम्पावरमेंट कहते हैं। महाराष्ट्र कोई गरीब राज्य नहीं कि सरकार जरूरतमंद स्त्रियों की मदद नहीं कर सकती। स्त्री सशक्तीकरण में स्त्रियों के हाथ में पैसे हों, उनकी क्रय शक्ति बढ़े, वे अपनी जरूरतें पूरी कर सकें, इसकी बड़ी भूमिका मानी जाती है। इसके अलावा स्त्री विमर्श कहता है कि स्त्रियों के नाम अक्सर चल-अचल सम्पत्ति नहीं होती।
इसलिए वे हमेशा अपने परिवार के पुरुषों के भरोसे रहती हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों में केंद्र सरकार ने स्त्रियों के नाम से ही पक्के घर दिए हैं। उन्हीं के नाम अगर जमीन की रजिस्ट्री हो तो स्टाम्प ड्यूटी में दो प्रतिशत की छूट मिलती है। इससे पहली बार भारत में स्त्रियों के अपने घर हो सके हैं। अक्सर स्त्रियों को हिंसा झेलते हुए, सबसे पहले घर से निकाला जाता है। अब जब घर उनके ही नाम पर है, जमीन उनकी है, तो किसकी हिम्मत है कि उन्हें घर से निकाल सके।
महाराष्ट्र में इस बार पंद्रह चुनाव क्षेत्रों में महिलाओं ने पुरुषों से भी अधिक वोट दिए। 65.22 प्रतिशत महिलाओं ने वोट दिया। कुछ स्थानों पर रजिस्टर्ड महिला मतदाताओं की संख्या भी पुरुषों से ज्यादा थी। कुल 30.64 मिलियन वोटर्स में कुल महिला वोटर्स की संख्या 46.99 है। महिला मतदाताओं के बड़ी संख्या में बाहर आने के बारे में बताया जा रहा है कि इसका बड़ा कारण लाड़की (लड़की) बहणी योजना को है। जिसमें महिलाओं को पंद्रह सौ रुपये प्रतिमाह दिए गए और सरकार बनने पर इक्कीस सौ रुपये देने का वादा किया गया।
चुनाव में जीत के बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शिंदे ने भी लाड़ली बहनों का धन्यवाद किया। महाराष्ट्र में स्त्रियों की शिक्षा के लिए आर्थिक मदद का भी प्रावधान किया गया था। इसी तरह झारखंड में भी हेमंत सोरेन सरकार की वापसी का श्रेय, उनकी स्त्री संबंधी योजनाओं को दिया जा रहा है। जिसमें प्रमुख थीं—स्कूल जाने वाली लड़कियों को साइकिल मुफ्त देना, एकल मां को आर्थिक सहायता प्रदान करना, बेरोजगार स्त्रियों को मासिक भत्ता, मइया योजना के अंतर्गत गरीब स्त्रियों को साल में बारह हजार रुपये की मदद।
इससे गरीब परिवारों और स्त्रियों के जीवन में कुछ खुशहाली आई। आदिवासी इलाकों में इसे विशेष रूप से महसूस किया गया। चूंकि स्त्रियों के खाते में पैसे सीधे भेजे जाते हैं, इसलिए उसका लाभ भी सीधे उन्हें ही मिलता है। इससे उनका परिवार भी लाभान्वित होता है। ऐसी योजनाएं अकेली बेसहारा माताओं, विधवाओं, स्कूल जाती लड़कियों को विशेष लाभ पहुंचाती हैं। याद होगा कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने यहां की स्कूल जाने वाली लड़कियों को साइकिलें दी थीं। सिर्फ एक साइकिल की सहायता से स्कूल जाने वाली लड़कियों में भारी बढ़ोतरी दर्ज की गई थी।
चूंकि वे समूह में स्कूल जाती थीं, इसलिए उनकी सुरक्षा को लेकर भी माता-पिता की चिंता में कमी आई थी और स्कूल जाने वाली लड़कियों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई थी। उनका ड्रॉप आउट रेट भी कम हुआ था। और परिणामस्वरूप इन लड़कियों के माता-पिता ने अगली बार नीतीश कुमार को बहुमत से विजयी बनाया था। झारखंड में हेमंत सोरेन ने नीतीश कुमार से सीखा और महाराष्ट्र में शिवराज सिंह चौहान से सीखा गया। हेमंत की जीत में उनकी पत्नी कल्पना सोरेन की भी बड़ी भूमिका है। हेमंत सोरेन को जब जेल भेजा गया, तो उनकी पत्नी कल्पना ने मोर्चा संभाला। उन्हें स्त्रियों की खूब सहानुभूति भी मिली।
इसके अलावा केंद्र सरकार ने भी स्त्रियों के लिए कई योजनाएं चला रखी हैं। जैसे कि नमो ड्रोन दीदी स्कीम-इसमें ग्रामीण महिलाओं को कृषि कार्यों के लिए ड्रोन पायलट्स की ट्रेनिंग दी जाती है। जिससे कि वे आधुनिक तकनीकों से खेती कर सकें। इसके लिए उन्हें आर्थिक मदद भी दी जाती है। उड़ीसा में चलायी जा रही सुभद्रा योजना। जिसके अंतर्गत पांच सालों में गरीब महिलाओं को पचास हजार रुपये रक्षाबंधन और अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर दिये जाते हैं। महिला सम्मान पेंशन योजना- जिसमें विधवाओं और बूढ़ी महिलाओं को मदद दी जाती है। जिससे कि वे सम्मानपूर्वक जीवनयापन कर सकें।
अल्पसंख्यक महिलाओं को बिना किसी ब्याज के पचास हजार रुपये की मदद दी जाती है। इसमें से बस पच्चीस हजार रुपये उन्हें वापस देने पड़ते हैं। इसका लाभ तलाकशुदा और अठारह साल से पचपन साल की अविवाहित महिलाएं उठा सकती हैं। इसी प्रकार दिल्ली, बिहार, राजस्थान, कर्नाटक में भी महिलाओं को लाभ पहुंचाने वाली बहुत-सी योजनाएं हैं। देखने की बात यह है कि औरतों को लाभ पहुंचाने वाली योजनाएं, नेताओं को विधानसभाओं और लोकसभा में पहुंचा रही हैं। यह स्त्रियों की ताकत है, जिसे वे वोट के जरिए दिखा रही हैं। वे जानती हैं कि उनके जीवन के लिए ऐसी योजनाएं कितनी जरूरी हैं। लोकतंत्र में महिलाएं गेम चेंजर की भूमिका निभा रही हैं।
इस हिसाब से अगर अमेरिका के चुनाव पर नजर डालें तो वहां बड़ी संख्या में महिलाएं ट्रंप के खिलाफ थीं क्योंकि ट्रंप को गर्भपात का विरोधी माना जाता है। मगर वे चाहकर भी ट्रंप को हरा नहीं सकीं। अपने यहां महिलाएं आगे बढ़कर वोट दे रही हैं। यही नहीं, ऐसी खबरें भी आती रहती हैं कि वे अपने घर के आदमियों की बात भी नहीं मानतीं। वे वहां वोट देती हैं जो उनके जीवन में परिवर्तन ला सके। इनमें ग्रामीण महिलाएं बड़ी संख्या में होती हैं। अब वह समय चला गया है जब चुनाव विश्लेषक कहते थे कि औरतें वोट देने ही नहीं आतीं।
इसमें सरकारों द्वारा चलाये गये उन अभियानों का भी हाथ है जो स्त्रियों से कहते थे चूल्ह-चौका बाद में पहले वोट। क्योंकि एक बार महिला घर के काम में लग जाती हैं तो गये रात तक उन्हें दम मारने की फुर्सत नहीं होती। इसलिए पहले वोट फिर कुछ और। पिछले कुछ दशकों से भारत में राजनीतिक दलों ने महिलाओं की इस ताकत को पहचाना है। इसलिए वे अपने-अपने मेनिफेस्टो में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर विशेष ध्यान देते हैं। तरह-तरह के वादे करते हैं। और सिर्फ वादे ही नहीं जीतने के बाद उन्हें कुछ हद तक पूरे भी करते हैं। (लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। बाल दिवस केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के अधिकांश देशों में मनाया जाता है। भारत में बाल दिवस प्रतिवर्ष 14 नवम्बर को मनाया जाता है लेकिन बच्चों के प्रति जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह दिवस 20 नवम्बर को मनाया जाता है। यह दिवस हमें बच्चों के अधिकारों की वकालत करने और उन्हें बढ़ावा देने के लिए प्रेरित करता है। इस वर्ष यह दिवस प्रत्येक बच्चे के लिए प्रत्येक अधिकार विषय के साथ मनाया जा रहा है, जो यह सुनिश्चित करने के महत्व पर जोर देता है कि सभी बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, सुरक्षा और सुरक्षित वातावरण सहित उनके मौलिक अधिकारों तक पहुंच हो।
वैश्विक स्तर पर इस दिवस को मनाने का उद्देश्य दुनियाभर में बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार करना, उनकी समस्याओं को हल करना, उनके कल्याण के लिए काम करना तथा अंतरराष्ट्रीय एकजुटता को बढ़ावा देना है। बाल दिवस दुनियाभर में 190 से ज्यादा देशों में मनाया जाता है और अनेक देशों में इसे मनाने की तारीखें अलग-अलग हैं। जनवरी माह से लेकर दिसम्बर तक हर माह किसी न किसी देश में बाल दिवस का आयोजन होता है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा 20 नवम्बर 1954 को अंतरराष्ट्रीय बाल दिवस मनाये जाने की घोषणा की गयी थी, जिसका उद्देश्य यही था कि इस विशेष दिन के माध्यम से अलग-अलग देशों के बच्चे एक-दूसरे के साथ जुड़ सकें, जिससे उनके बीच आपसी समझ तथा एकता की भावना मजबूत हो सके।
सर्वप्रथम बाल दिवस जेनेवा के इंटरनेशनल यूनियन फॉर चाइल्ड वेलफेयर के सहयोग से विश्वभर में अक्तूबर 1953 में मनाया गया था। विश्वभर में बाल दिवस मनाये जाने का विचार वीके कृष्ण मेनन का था, जिसे संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 1954 में अपनाया गया था। संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्वभर के तमाम देशों से अपील की गई थी कि वे अपनी परम्पराओं, संस्कृति तथा धर्म के अनुसार अपने लिए कोई ऐसा दिन सुनिश्चित करें, जो सिर्फ बच्चों को ही समर्पित हो।
वैसे तो बाल दिवस मनाये जाने की शुरुआत वर्ष 1925 से ही हो गयी थी लेकिन वैश्विक रूप में देखें तो इसे दुनियाभर में मान्यता मिली 1953 में।दुनियाभर में बाल दिवस के माध्यम से लोगों को बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा, बाल मजदूरी इत्यादि बच्चों के अधिकारों के प्रति जगरूक करने का प्रयास किया जाता है। माना जाता है कि सबसे पहले बाल दिवस तुर्की में मनाया गया था।
आइये देखते हैं कि दुनियाभर में किन देशों द्वारा कब बाल दिवस मनाया जाता है। जनवरी के पहले शुक्रवार को बहामास में 11 जनवरी को ट्यूनिशिया, जनवरी के दूसरे शनिवार को थाईलैंड, फरवरी के दूसरे रविवार कुक द्वीप समूह, नाउरू, निउए, टोकेलौ तथा केमन द्वीप समूह में 13 फरवरी को म्यांमार, मार्च के पहले रविवार को न्यूजीलैंड, 17 मार्च को बांग्लादेश, 4 अप्रैल को चीनी ताइपे, हांगकांग, 5 अप्रैल को फिलीस्तीन, 12 अप्रैल को बोलिविया तथा हैती, 23 अप्रैल को तुर्की, 30 अप्रैल को मेक्सिको, 5 मई को दक्षिण कोरिया तथा जापान, मई के दूसरे रविवार को स्पेन तथा यूके, 10 मई को मालदीव, 17 मई को नार्वे, 27 मई को नाईजीरिया, मई के आखरी रविवार को हंगरी, 1 जून को चीन सहित कई देशों में बाल संरक्षण दिवस के रूप में, 1 जुलाई को पाकिस्तान, जुलाई के तीसरे रविवार को क्यूबा, पनामा, वेनेजुएला, 23 जुलाई को इंडोनेशिया, अगस्त के पहले रविवार को उरुग्वे, 16 अगस्त को पैराग्वे, अगस्त के तीसरा रविवार को अर्जेंटीना तथा पेरू, 9 सितंबर कोस्टा रीका, 10 सितंबर को हौंडुरस, 14 सितंबर को नेपाल, 20 सितंबर को आस्ट्रिया तथा जर्मनी, 25 सितंबर को नीदरलैंड, 1 अक्तूबर को अल साल्वाडोर, ग्वाटेमाला तथा श्रीलंका, अक्तूबर के पहले बुधवार को चिली, अक्तूबर के पहले शुक्रवार को सिंगापुर, 8 अक्तूबर को ईरान, 12 अक्तूबर को ब्राजील, अक्तूबर के चौथे शनिवार को मलेशिया, अक्तूबर के चौथा रविवार को आस्ट्रेलिया, नवम्बर के पहले शनिवार को दक्षिण अफ्रीका, 20 नवंबर को अजरबैजान, कनाडा, साइप्रस, मिस्र, इथियोपिया, फिनलैंड, फ्रांस, यूनान, आयरलैंड, इजराइल, केन्या, मैसिडोनिया, नीदरलैंड, फिलीपींस, सर्बिया, स्लोवेनिया, दक्षिण अफ्रीका, स्पेन, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, संयुक्त अरब अमीरात, त्रिनिदाद व टोबेगो, 5 दिसंबर को सूरीनाम, 23 दिसंबर को सूडान तथा 25 दिसम्बर कांगो गणराज्य, कैमरून तथा भूमध्यरेखीय गिनी में बाल दिवस का आयोजन किया जाता है।
बहरहाल, अंतरराष्ट्रीय बाल दिवस पर हमें यह समझने का अवसर प्रदान करता है कि बच्चों का भविष्य उनके आज पर निर्भर करता है, जिसके लिए हमें ही यह सुनिश्चित करना होगा कि उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले, बालश्रम और शोषण के खिलाफ कड़ी कार्रवाई हो, बच्चों को उनकी प्रतिभा को निखारने के पर्याप्त अवसर मिलें, उन्हें सुरक्षित, स्वस्थ और पोषित वातावरण उपलब्ध कराया जाए। भारत में बच्चों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए कई कानून और योजनाएं लागू हैं, जिनमें बाल श्रम निषेध और विनियमन अधिनियम 1986, शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009, पॉक्सो एक्ट 2012 प्रमुख रूप से शामिल हैं।
मिड-डे मील योजना और आंगनवाड़ी सेवा जैसी योजनाएं भी बच्चों के पोषण और शिक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। अपनी-अपनी सहूलियत के आधार पर विभिन्न देशों द्वारा भले ही अलग-अलग तारीखों पर बाल दिवस मनाया जाता है लेकिन हर जगह बाल दिवस मनाए जाने का मूल उद्देश्य यही है कि इसके जरिये लोगों को बच्चों के अधिकारों तथा सुरक्षा के लिए जागरूक किया जा सके और बच्चों से जुड़े मुद्दों का समाधान किया जा सके। (लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। नॉर्वे ने आपातकालीन पुस्तिकाएं भी जारी कीं जिसमें लोगों को संपूर्ण युद्ध सहित किसी आपातकालीन स्थिति में एक सप्ताह तक प्रबंधन करने की सलाह दी गयी। रूसी रक्षा मंत्रालय ने कहा कि यूक्रेन-रूस युद्ध को खतरनाक रूप से बढ़ाते हुए यूक्रेनी बलों ने मंगलवार देर रात रूस के ब्रांस्क क्षेत्र में छह अमेरिकी निर्मित लंबी दूरी की मिसाइलें दागीं।
इसे मॉस्को द्वारा एक बड़े उकसावे के रूप में देखा जायेगा और एक जोरदार जवाबी कार्रवाई की संभावना है। कई नाटो देश अपने नागरिकों से युद्ध के लिए तैयार रहने को कह रहे हैं। परमाणु युद्ध का खौफनाक खतरा पहले से कहीं ज्यादा नजदीक नजर आ रहा है। राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने उस सीमा को कम कर दिया जब रूस परमाणु हथियारों का उपयोग कर सकता था। यह तब हुआ जब यूक्रेन ने रूस के अंदर लक्ष्यों पर लंबी दूरी की छह अमेरिकी मिसाइलें दागीं।
नाटो देशों ने युद्ध की आशंका गहराने की आशंका को भांपते हुए अपने नागरिकों को पर्चे जारी किये, जिसमें उन्हें युद्ध की तैयारी करने की सलाह दी गयी। द मिरर आफ यूके के अनुसार, पैम्फलेट में स्वीडन ने परमाणु युद्ध छिड़ने की आशंका के बीच अपने निवासियों को आश्रय लेने की चेतावनी दी है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से केवल पांच बार जारी किया गया यह पैम्फलेट प्रत्येक स्वीडिश घर में भेजा गया है।
नॉर्वे ने आपातकालीन पुस्तिकाएं भी जारी कीं जिसमें लोगों को संपूर्ण युद्ध सहित किसी आपातकालीन स्थिति में एक सप्ताह तक प्रबंधन करने की सलाह दी गयी। रूसी रक्षा मंत्रालय ने कहा कि यूक्रेन-रूस युद्ध को खतरनाक रूप से बढ़ाते हुए, यूक्रेनी बलों ने मंगलवार देर रात रूस के ब्रांस्क क्षेत्र में छह अमेरिकी निर्मित लंबी दूरी की मिसाइलें दागीं। इसे मॉस्को द्वारा एक बड़े उकसावे के रूप में देखा जायेगा और एक जोरदार जवाबी कार्रवाई की संभावना है।
कई नाटो देश अपने नागरिकों से युद्ध के लिए तैयार रहने को कह रहे हैं। डेनमार्क ने पहले ही अपने नागरिकों को सूखे राशन, पानी और दवाओं का स्टॉक रखने के लिए ईमेल भेज दिया है ताकि वे परमाणु हमले सहित तीन दिनों की आपात स्थिति का प्रबंधन कर सकें। फिनलैंड ने भी बढ़ते रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच घटनाओं और संकटों की तैयारी पर अपने आनलाइन ब्रोशर को अपडेट किया।
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। वायु प्रदूषण से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लोग हलकान हैं। दिल्ली के आसपास सांस लेना कठिन है। हवा विषाक्त हो गयी है। एक्यूआई अपने उच्चतम स्तर पर है। जहरीली वायु उत्तर प्रदेश के बड़े हिस्से में प्रभाव डाल रही है। अजरबैजान की राजधानी बाकू में पर्यावरण को लेकर सीओपी 29 सम्मेलन चल रहा है। वहां पर्यावरणविदों ने दिल्ली के वायु गुणवत्ता सूचकांक पर गंभीर चर्चा की है।
सरकार ने भी नये निर्माण रोकने, गैर बीएस6 डीजल बसों पर रोक जैसे कठोर कदम उठाये हैं। लेकिन आगे की राह कठिन है। अभी और कड़े निर्णयों की आवश्यकता है। हम सब पृथ्वी पुत्र हैं। पृथ्वी ही पालती है। यही पोषण करती हैं। दूषित पर्यावरण से पृथ्वी का अस्तित्व संकट में है। वायु प्राण हैं। प्राण नहीं तो जीवन भी नहीं। सारी दुनिया का ताप बढ़ रहा है। रामकथा के अनुसार श्रीराम का जन्म पृथ्वी को निशिचर विहीन और पृथ्वी का का कष्ट दूर करने के लिए हुआ था।
रामचरितमानस में तुलसीदास ने लिखा है, अतिशय देख धरम की हानी परम सभीत धरा अकुलानी-धर्म की ग्लानि को बढ़ते देख कर पृथ्वी भयग्रस्त हुई और देवताओं के पास जा पहुंची। उसने देवों को अपना दुख सुनाया-निज संताप सुनाइस रोई-पृथ्वी ने रोते हुए अपना कष्ट बताया। शंकर जी ने पार्वती जी को बताया कि वहां बहुत देवता थे। मैं भी उनमे से एक था-तेहि समाज गिरजा मैं रहेऊ।
रामचरितमानस के अनुसार आकाशवाणी हुई, हे धरती धैर्य रखो। मैं स्वयं सूर्य वंश में आऊंगा और तुमको भार मुक्त करूंगा। पृथ्वी भारतीय परंपरा में माता हैं। हम सबका आश्रय हैं। पृथ्वी को भार मुक्त करने के लिए परम सत्ता मनुष्य बनती है। पर्यावरण संरक्षण वैज्ञानिकों के सामने भी चुनौती है। कहा जा रहा है कि पृथ्वी के प्राकृतिक घटक अव्यवस्थित हो गए हैं। अंतरराष्ट्रीय पृथ्वी दिवस हर साल आता है। इस महत्वपूर्ण दिवस पर कई संकल्प लिए गए। हिन्दुत्व की जीवन शैली में पर्यावरण संरक्षण अन्तर्निहित है।
भारत के प्राचीन काल में ही पृथ्वी के प्रति संवेदनशील प्रीति और श्रद्धा थी। वैदिक पूर्वजों ने जल को माताएं कहा था। उन्होंने पृथ्वी को माता और आकाश को पिता बताया था। ऋग्वेद में जल को बहुवचन रूप में माताएं कहा गया है। यूनानी दार्शनिक थेल्स ने जल को आदि तत्व बताया है। प्रकृति के 5 महाभूतों में जल एक महत्वपूर्ण महाभूत है। वायु प्रतिष्ठित देवता हैं ही। पूर्वजों ने वायु को अनेकश: नमस्कार किया है। वायु को शुद्ध बनाये रखना व्रत है। वायु मनुष्य शरीर में प्रवाहित है।
वैदिक साहित्य में जल को अतिरिक्त आदर दिया जाता रहा है। वैदिक समाज में जल वृष्टि के कई देवता हैं। ऋग्वेद (1.164) में कहते हैं, सत्कर्मों से समुद्र का जल ऊपर जाता है। वाणी जल को कंपन देती है। पर्जन्य वर्षा लाते हैं। भूमि आनंद मगन होती हैं। यहां मुख्य बात है कि सत्कर्म के कारण समुद्र का जल ऊपर जाता है। सत्कर्मों से ही वायु शुद्ध रहती है। ऋषि वायु से स्तुति करते हैं कि आप सुखद आशीष देते हुए प्रवाहमान रहें। सत्कर्म महत्वपूर्ण हैं। ऐसे कर्म सांस्कृतिक कर्तव्य हैं।
वर्षा पर्जन्य की कृपा हैं। पर्जन्य देव पृथ्वी, जल, वायु, नदी, वनस्पतियों और सभी प्राणियों के संरक्षण से प्रसन्न होते हैं। वैदिक देवता प्रकृति की महत्वपूर्ण शक्तियां हैं। उन्हें कई विभागों में विभाजित किया जा सकता है। पहला द्युस्थानीय देवता हैं। द्यौ का ही एक रूप वरुण हैं। द्युस्थानीय देवताओं में द्यौ सबसे प्राचीन बताए गए हैं। आर्यों की ग्रीक शाखा के लोग ज्योस या जिअस के रूप में इस देवता की उपासना करते थे।
द्यौ का प्रकट रूप हैं आकाश। ऋषि राहुगण गौतम द्यच् को सबके पिता कहते हैं। इसी तरह वैदिक देवताओं का दूसरा विभाग है अंतरिक्ष स्थानीय देवता। ऋग्वेद के प्रतिष्ठित देवता इन्द्र इसी श्रेणी में आते हैं। इन्द्र मेघों में अवरुद्ध जल को मुक्त करते हैं। जल प्रवाह वर्षा द्वारा पृथ्वी की ओर आता है। मातरिस्वा, अपानपात आदि अंतरिक्ष स्थानीय देवता हैं। इनमें रूद्र मुख्य हैं। ऋग्वेद के एक मंत्र में रूद्र शिव को त्रयम्बक कहा गया है।
देवताओं के तीसरे वर्ग को पृथ्वी स्थानीय देवता कहा गया है। इस देव तंत्र में सोम अतिप्रतिष्ठित देवता हैं। ऋग्वेद के नौवें मण्डल के अधिकांश सूक्तों के देवता सोम हैं। सोम को सर्वश्रेष्ठ पेय बताया गया है और सर्वश्रेष्ठ औषधि भी। इसी श्रेणी में अग्नि देव भी आते हैं। ऋग्वेद में अग्नि सर्वशक्तिमान बताये गये हैं। बृहस्पति भी पृथ्वी स्थानीय देवता हैं। पृथ्वी भी पृथ्वी स्थानीय देवता हैं। नदियां भी देवता हैं। पूर्वजों के हृदय में पृथ्वी के प्रति माता का भाव है। अथर्ववेद का पृथ्वी सूक्त अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कविता है।
कहते हैं कि यहां भिन्न-भिन्न विचारधाराओं वाले लोग रहते हैं। माता पृथ्वी सबका पोषण करती हैं। दुनिया के तमाम विद्वानों ने पृथ्वी सूक्त की प्रशंसा की है। उत्तर वैदिक काल और महाकाव्यों में भी पृथ्वी की स्तुति है। महाभारत के एक प्रसंग में श्रीकृष्ण पृथ्वी की उपासना करते हैं। वे पृथ्वी से ही पूछते हैं कि आप किस तरह की उपासना से प्रसन्न होती हैं। स्वयं पृथ्वी ने उत्तर दिया कि तुम प्रति दिन चिड़ियों और निराश्रित पशुओं के लिए कहीं भी अन्न डाल दिया करो। मैं इसी में प्रसन्न होती हूं।
पृथ्वी संकट चुनौतीपूर्ण है। वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी का अस्तित्व संकट में है। उत्तरी ध्रव और दक्षिणी ध्रुव में हमेशा बर्फ जमी रहती है। वह बर्फ पिघल रही है। पृथ्वी के एक भूखंड में खनिज, तेल और गैस भारी मात्रा में हैं। खनिज सम्पदा और गैस पाने के लिए तमाम देश लालायित रहते हैं। लेकिन वे पृथ्वी के अस्तित्व को बचाने की चिंता नहीं करते। अधिक बर्फ पिघलने से समुद्र का स्तर ऊपर जायेगा। दुनिया खतरे में होगी। अंधाधुंध औद्योगिक विकास समस्या है। नगरीकरण सुनियोजित योजना के अनुसार नहीं है।
अनियोजित नगरीकरण से पर्यावरण का संकट बढ़ा है और जल, वायु प्रदूषण भी। हिन्दू अनुभूति के अनुसार पृथ्वी, जल, वायु, नदी, वनस्पति और सभी प्राणियों के संरक्षण से देवता प्रसन्न होते हैं। संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में मिस्र के शर्म अल शेख, इसके पहले स्कॉटलैण्ड के ग्लास्गो में भी सम्मेलन हुए थे। ब्राजील के रिओ डी जेनेरिओ नगर में पहला पृथ्वी सम्मेलन हुआ था। लेकिन अब तक के सारे आयोजन बेनतीजा रहे हैं। पृथ्वी माता व्यथित भयग्रस्त है। भूकम्प इसी के परिणाम हैं।
उपनिषद के ऋषियों ने वायु को प्रत्यक्ष ब्रह्म कहा है। यूनानी दार्शनिक अनक्सीमनस ने वायु को सृष्टि का आदि तत्व बताया है। उपनिषदों में रैक्व ने राजा जानश्रुति को वायु की महत्ता बतायी है लेकिन वायु विषाक्त और व्यथित हैं। यह बेचैनी तूफानों में प्रकट होती है। जल अशांत हैं। अतिवृष्टि अनावृष्टि इसी का परिणाम हैं। एक वैदिक मंत्र में स्तुति है, पृथ्वी शांत हों। अंतरिक्ष शांत हों। जल शांत हों। वनस्पतियां औषधियां शांत हों। शांति हमें शांति दें। हिन्दू जीवन स्वाभाविक ही पर्यावरण प्रेमी है।
पृथ्वी के सभी घटकों का संरक्षण राष्ट्रीय कर्तव्य है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया, अन्न से प्राणी हैं। अन्न वर्षा से होता है। वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ सत्कर्मों से होता है। यह साधारण यज्ञ नहीं है। इसमें सत्कर्म की महत्ता है। भारतीय संस्कृति का अधिष्ठान सत्कर्म हैं। सत्कर्मों का प्रसाद शुद्ध वायु है। (लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। किशोरों पर सोशल मीडिया के प्रभाव ने वैश्विक स्तर पर गंभीर चिंताएं पैदा की हैं, इस बात पर बहस चल रही है कि क्या आयु प्रतिबंध इसके संभावित नुकसानों को प्रभावी ढंग से दूर कर सकते हैं या अनपेक्षित परिणामों को जन्म दे सकते हैं। साथियों के साथ बातचीत और समुदाय निर्माण की सुविधा देता है, सामाजिक कौशल विकास में सहायता करता है।
प्यू रिसर्च (2023) ने पाया कि 71% किशोर सोशल मीडिया के माध्यम से अधिक जुड़ाव महसूस करते हैं। युवाओं को पहचान तलाशने और खुद को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने के लिए एक मंच प्रदान करता है। सोशल मीडिया इंटरनेट साइट्स और ऐप्स के लिए एक शब्द है जिसका उपयोग आप अपने द्वारा बनायी गयी सामग्री को साझा करने के लिए कर सकते हैं। सोशल मीडिया आपको दूसरों द्वारा पोस्ट की गयी सामग्री पर प्रतिक्रिया देने की सुविधा भी देता है। इसमें दूसरों द्वारा पोस्ट की गयी तस्वीरें, टेक्स्ट, प्रतिक्रियाएं या टिप्पणियां और जानकारी के लिंक शामिल हो सकते हैं।
सोशल मीडिया साइट्स के भीतर आनलाइन शेयरिंग कई लोगों को दोस्तों के संपर्क में रहने या नये लोगों से जुड़ने में मदद करती है और यह अन्य आयु समूहों की तुलना में किशोरों के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण हो सकता है। दोस्ती किशोरों को उनकी पहचान बनाने में भूमिका निभाती है। इसलिए, यह सोचना स्वाभाविक है कि सोशल मीडिया का उपयोग किशोरों को कैसे प्रभावित कर सकता है। सोशल मीडिया बहुत से किशोरों के दैनिक जीवन का एक बड़ा हिस्सा है।
कितना बड़ा 13 से 17 साल के बच्चों पर 2024 में किये गये एक सर्वेक्षण से इसका संकेत मिलता है। लगभग 1, 300 प्रतिक्रियाओं के आधार पर, सर्वेक्षण में पाया गया कि 35% किशोर दिन में कई बार से ज्यादा पांच सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म में से कम से कम एक का इस्तेमाल करते हैं। पांच सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म हैं: यूट्यूब, टिकटॉक, फेसबुक, इंस्टाग्राम और स्नैपचैट। सोशल मीडिया सभी किशोरों को एक जैसा प्रभावित नहीं करता है। सोशल मीडिया का उपयोग मानसिक स्वास्थ्य पर स्वस्थ और अस्वस्थ प्रभावों से जुड़ा हुआ है। ये प्रभाव एक किशोर से दूसरे किशोर में अलग-अलग होते हैं। मानसिक स्वास्थ्य पर सोशल मीडिया का प्रभाव चीजों पर निर्भर करता है।
यूनिसेफ की रिपोर्ट (2022) से पता चलता है कि सोशल मीडिया 62% किशोरों में आत्म-पहचान को बढ़ावा देता है। विशाल शैक्षिक संसाधनों तक पहुंच सक्षम करता है, डिजिटल साक्षरता और कौशल को बढ़ाता है। लिंक्डइन और फेसबुक युवाओं के लिए डिजिटल कौशल पर कार्यशालाएं प्रदान करते हैं। हाशिए के समूहों के लिए समर्थन और समझ पाने के लिए सुरक्षित स्थान बनाता है डब्ल्यूएचओ (2022) ने सीमित सोशल मीडिया एक्सपोजर वाले युवाओं में मानसिक स्वास्थ्य जोखिमों में 20% की कमी की रिपोर्ट की है।
अनुचित या खतरनाक सामग्री के संपर्क को सीमित करता है, जिससे नकारात्मक प्रभावों के जोखिम कम होते हैं। अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन (2023) ने पाया कि सोशल मीडिया का उपयोग साइबर बुलिंग के जोखिम को 30% तक बढ़ाता है। युवा उपयोगकर्ताओं को लक्षित करने वाले शिकारी व्यवहार और शोषण के जोखिमों को कम करने में मदद करता है। नेशनल सेंटर फॉर मिसिंग एंड एक्सप्लॉइटेड चिल्ड्रन की 2023 की रिपोर्ट में युवाओं से जुड़े आनलाइन शोषण के मामलों में 15% की वृद्धि पर प्रकाश डाला गया है।
अत्यधिक स्क्रीन समय को नियंत्रित करता है, बेहतर स्वास्थ्य और आफलाइन जुड़ाव का समर्थन करता है। डिजिटल मीडिया पर दक्षिण कोरिया के नियम (2021) नाबालिगों में स्क्रीन की लत को सीमित करते हैं। आयु सत्यापन प्रणाली जैसे आयु प्रतिबंधों के अनपेक्षित परिणाम अक्सर दरकिनार कर दिये जाते हैं, जिससे प्रतिबंधों को लागू करना मुश्किल हो जाता है। यू.के. के अध्ययन (2022) से पता चलता है कि 30% किशोर न्यूनतम प्रयास से आयु जांच को दरकिनार कर देते हैं। आयु प्रतिबंध डिजिटल शिक्षा को सीमित कर सकते हैं, जिससे युवा जिम्मेदार आनलाइन बातचीत के लिए तैयार नहीं हो पाते।पहुंच को प्रतिबंधित करने से किशोर अलग-थलग पड़ सकते हैं, जिससे वे महत्त्वपूर्ण सामाजिक संवादों में शामिल नहीं हो पाते।
यूनिसेफ (2023) ने पाया कि सोशल मीडिया समावेशिता में मदद करता है, खासकर हाशिए पर पड़े समूहों के लिए। प्रमुख प्लेटफॉर्म पर प्रतिबंध युवाओं को कम विनियमित, संभावित रूप से अधिक हानिकारक साइटों की ओर धकेल सकते हैं। प्रतिबंध वाले देशों में, किशोर कम सुरक्षा नियंत्रण वाले आला प्लेटफॉर्म की ओर मुड़ गए हैं, जिससे जोखिम बढ़ गया है। डिजिटल साक्षरता और जागरूकता को बढ़ावा दें युवाओं को सुरक्षित आॅनलाइन प्रथाओं के बारे में शिक्षित करने के लिए स्कूलों में व्यापक डिजिटल साक्षरता कार्यक्रम शुरू करें।
फिनलैंड का मीडिया साक्षरता सप्ताह छात्रों को डिजिटल सुरक्षा और आलोचनात्मक सोच में प्रशिक्षित करता है। माता-पिता को अपने बच्चों के सोशल मीडिया उपयोग की निगरानी और मार्गदर्शन करने में मदद करने के लिए संसाधन प्रदान करें। 2017 चाइल्ड आॅनलाइन प्रोटेक्शन फ्रेमवर्क डिजिटल मार्गदर्शन में माता-पिता की भूमिका पर जोर देता है। उम्र सम्बंधी प्रतिबंधों के बजाय हानिकारक सामग्री को प्रतिबंधित करने पर ध्यान केंद्रित करें, जिससे सुरक्षित और संयमित उपयोग की अनुमति मिले।
जुआ और हिंसा जैसी सामग्री पर फ्रांस के 2022 के चुनिंदा प्रतिबंध पूर्ण प्रतिबंध के बिना युवाओं की रक्षा करते हैं। जबकि सोशल मीडिया पर उम्र सम्बंधी प्रतिबंध सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं, एक संतुलित दृष्टिकोण जो डिजिटल शिक्षा, माता-पिता की भागीदारी और लक्षित सामग्री विनियमन को जोड़ता है, किशोरों की सुरक्षा के लिए अधिक व्यावहारिक है, जबकि उन्हें जिम्मेदारी से सोशल मीडिया से लाभ उठाने की अनुमति देता है। (लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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