एबीएन एडिटोरियल डेस्क। उदारीकरण व वैश्वीकरण के दौर के बाद पूरी दुनिया में आर्थिक असमानता अपने चरम पर जा पहुंची है। एक तरफ लोग मूलभूत सुविधाओं के अभाव में सड़कों पर उतर रहे हैं तो दूसरी ओर अमीर से और अमीर होते लोगों की विलासिता के किस्से तमाम हैं। जिस बात की पुष्टि स्वतंत्र विशेषज्ञों के जी-20 पैनल द्वारा किए एक अध्ययन के निष्कर्षों में की गयी है।
इस अध्ययन के अनुसार, वर्तमान में वैश्विक स्तर पर असमानता भयावह स्तर तक जा पहुंची है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2000 और 2024 के बीच दुनिया भर में बनी नई संपत्तियों का बड़ा हिस्सा दुनिया के सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों के पास है। जबकि निचले स्तर की आधी आबादी के हिस्से में एक प्रतिशत ही आया है। निस्संदेह, भारत भी इस स्थिति में अपवाद नहीं है।
देश के सबसे अमीर एक फीसदी लोगों ने केवल दो दशक में अपनी संपत्ति में 62 फीसदी की वृद्धि की है। दुनिया की इस चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में अमीर लगातार अमीर होते जा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर गरीब गुरबत के दलदल से बाहर आने के लिए छटपटा रहे हैं। इस आर्थिक असमानता का ही नतीजा है कि अमीर व गरीब के बीच संसाधनों का असमान वितरण और बदतर स्थिति में पहुंच गया है।
निस्संदेह, पैनल की हालिया रिपोर्ट नीति-निमार्ताओं को असमानता के इस बढ़ते अंतर को पाटने के तरीके तलाशने और नये साधन खोजने के लिये प्रेरित करेगी। पिछले ही हफ्ते, केरल सरकार ने दावा किया था कि राज्य ने अत्यधिक गरीब तबके की गरीबी का उन्मूलन कर दिया है। हालांकि, कुछ विशेषज्ञों ने इन दावों को लेकर संदेह जताया है।
वहीं दूसरी ओर राज्य के विपक्ष ने भी इन दावों को सिरे से खारिज कर दिया है। लेकिन इसके बावजूद राज्य में जन-केंद्रित विकास और सामुदायिक भागीदारी के लाभों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। निस्संदेह, इस पहल ने हजारों अत्यंत गरीब परिवारों को भोजन, स्वास्थ्य सेवा और आजीविका के बेहतर साधनों तक पहुंचने में मदद की है।
इसमें दो राय नहीं कि यदि सरकारें वोट बैंक की राजनीति से इतर ईमानदारी से पहले करें तो गरीबी उन्मूलन की दिशा में सार्थक पहल की जा सकती है। चुनाव से पहले मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की तेजी से बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। यह एक हकीकत है कि कोई भी सुविधा मुफ्त नहीं हो सकती। इस तरह की लोकलुभावनी कोशिशों से राज्यों का वित्तीय घाटा ही प्रभावित होता है।
जिसकी कीमत लोगों को विकास योजनाओं से दूर रहकर ही चुकानी पड़ती है। जनता को मुफ्त में सुविधाएं देने के बजाय ऋण व अनुदान से उत्पादकता बढ़ाकर उन्हें स्वावलंबी बनाना होगा। प्रत्येक चिन्हित गरीब परिवार के लिए सूक्ष्म योजनाएं तैयार करना और उन्हें क्रियान्वित करना उचित होगा। निस्संदेह, देश के अन्य राज्य भी अपनी जरूरतों और परिस्थितियों के अनुसार केरल के मॉडल को अपना सकते हैं।
इसमें केंद्र व राज्य सरकारों को अनुकूल आंकड़ों का सहारा लेना भी जरूरी होगा। इस साल की शुरुआत में, विश्व बैंक ने बताया था कि भारत 2011-12 और 2022-23 के बीच 17 करोड़ लोगों को गरीबी की दलदल से बाहर निकालने में सफल रहा है। केंद्र सरकार ने अपने काम के लिये खुद की पीठ भी थपथपायी थी। हालांकि, गरीबी के अनुमानों की रिपोर्टिंग की कार्यप्रणाली को लेकर सवाल उठाये गए थे।
निर्विवाद रूप से सभी हितधारकों को यह तथ्य समझना होगा कि केवल संख्याएं ही पूरी तस्वीर को नहीं उकेर सकती हैं। गरीबी कम करने के प्रयासों के दावों के मुताबिक जमीनी स्तर पर गुणात्मक बदलाव नजर भी आना चाहिए। हालांकि, अर्थशास्त्री आमतौर पर संपत्ति कर लगाने के पक्षधर नहीं होते हैं, लेकिन सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अति-धनी लोग सरकारी खजाने में अपना उचित योगदान दें।
अब चाहे कोई अमीर हो या गरीब, सबका ध्यान विकास पर केंद्रित किया जाना चाहिए। तभी देश उत्पादकता के क्षेत्र में आगे बढ़कर गरीबी उन्मूलन की दिशा में सार्थक प्रगति कर सकता है। यह पहल ही विकसित भारत के सपने को साकार करने में मददगार साबित हो सकती है।
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। मंगलवार अगहन शुक्ल पक्ष के पंचमी तिथि दिनांक 25 नवंबर 2025 को शुभ अभिजीत मुहूर्त में देश के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख श्रीमान मोहन भागवत ने संयुक्त रूप से अयोध्या में निर्मित भव्य राम मंदिर के शिखर पर श्रीराम मंदिर के निर्माण के पूर्णाहुति की अंतिम आहुति के रूप में 11.50 बजे 18 फीट लंबी 9 फीट चौड़ी भगवा ध्वज को मंदिर के शिखर में अवस्थित स्वर्ण दंड पर आरोहित किया।
भावविह्वल मोदी जी ने प्रकंपित हाथों से करबद्ध ध्वज को प्रणाम किया। इस आयोजन के साथ ही 500 वर्षों के सतत संघर्ष को विराम मिला। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह कार्य प्राथमिकता की सूची में होनी चाहिए थी, परंतु संकीर्ण एवं स्वार्थ राजनीति के कारण इसकी अवहेलना की गयी।
यह यथार्थ है कि मंदिर के निर्माण में न्यायालय के निर्णय ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई परंतु यथार्थ यह भी है कि संपूर्ण राष्ट्र ने मंदिर निर्माण में अनुकूल वातावरण का निर्माण किया। ध्वजारोहण के बाद प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में राष्ट्रीय चेतना की भावना प्रत्येक भारतीयों के हृदय में रहने की बात कही। मंदिर निर्माण के पूर्णाहुति भारतीय सांस्कृतिक गौरव तथा राष्ट्रीय एकता का उद्घोष है। यह ध्वज नीति एवं न्याय का प्रतीक बना रहेगा।
यह ध्वज सुशासन से समृद्धि का पथ प्रदर्शक और विकसित भारत की ऊर्जा बनकर सदा सदा के लिए आरोहित रहेगा। संपूर्ण समाज के सामूहिक सहयोग, समर्थन, सदाचार, और संपर्क से एक राजकुमार को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जैसे व्यक्तित्व का निर्माण कर किया। संपूर्ण देशवासियों के राष्ट्रीय चेतना की शक्ति से ही भारत को संपूर्ण उन्नत किया जा सकता है।
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। बचपन में दिखने वाले छोटे संकेत अक्सर हमारी नज़र से छूट जाते हैं, और बाद में हमें पता चलता है कि वही शुरुआती संकेत बच्चे के विकास को गहराई से प्रभावित कर रहे थे। विशेष बच्चों, जैसे सेरेब्रल पाल्सी, ऑटिज़्म और एडीएचडी के साथ काम करते हुए यह समझ आता है कि कई बार परिवार कुछ लक्षणों को सामान्य मानकर आगे बढ़ जाता है।
जन्म के बाद बच्चे का तुरंत न रोना, बहुत ज़्यादा या बहुत कम रोना, लेटकर दूध पिलाने की आदत बन जाना, बोलने में देरी होना, सरल निर्देश न मानना, बार-बार चिड़चिड़ापन, बहुत कम या बहुत अधिक नींद, या फिर लगातार दौड़ते-भागते रहना—ये सब केवल बच्चों की आदतें नहीं होतीं। कई बार ये संकेत होते हैं कि बच्चा किसी विकासात्मक चुनौती से गुजर रहा है और उसे समय रहते सहारा चाहिए।
बच्चे कब पलटते हैं, कब बैठते हैं, कब बोलते हैं, कब चलना शुरू करते हैं, ये सभी विकासात्मक माइलस्टोन उनके मस्तिष्क और शरीर की प्रगति बताते हैं। इन्हें समझना और समय पर पहचानना माता-पिता और शिक्षकों दोनों के लिए ज़रूरी है।
अगर किसी भी तरह की देरी या असामान्यता दिखे तो विशेषज्ञ से सलाह लेने में देर नहीं करनी चाहिए। समय रहते कदम उठाया जाए तो बच्चा बहुत बेहतर तरीके से आगे बढ़ सकता है। बचपन को समझना ही उसके भविष्य को सुरक्षित बनाना है। राँची में दीपशिखा विशेष बच्चों को निरंतर सहयोग और सहायता प्रदान करती है I (लेखक अदिति विवेक भसीन रांची की प्रसिद्ध मनोविज्ञानी हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। बिहार की जनता ने एक ऐसा जनादेश दिया है, जिसका महत्व सीटों के गणित से कहीं आगे जाता है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने विधानसभा की 243 सीटों में से 202 सीट पर जीत दर्ज की है, जबकि भारतीय जनता पार्टी ने अकेले 89 सीटें हासिल की हैं, जो राज्य में पार्टी का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। दशकों तक विभिन्न गठबंधनों के तहत बिहार की राजनीति पर अपना दबदबा बनाये रखने के बाद, महागठबंधन अब सिर्फ 34 सीटों पर सिमट गया है।
7.4 करोड़ से ज्यादा पंजीकृत मतदाताओं में से 67.13 प्रतिशत ने मतदान किया। यह चुनाव राज्य के हाल के इतिहास में सबसे कड़े मुकाबले वाले चुनावों में से एक सिद्ध हुआ है और चुनाव परिणामों ने वास्तविक लोकतांत्रिक गहराई को रेखांकित किया है। वर्षों तक, बिहार पर व्यक्त किये गए विचारों में राज्य को समय के प्रवाह में एक रूका हुआ राज्य मान लिया गया था। चुनावों को जातिगत अंकगणित की कवायद माना जाता था और सामाजिक जनसांख्यिकी को राजनीतिक नतीजों में तब्दील कर दिया जाता था।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में, भारतीय राजनीति का परिदृश्य निर्णायक रूप से विकास, समावेश और राज्य क्षमता के रूप में बदल गया है तथा बिहार के मतदाताओं ने इस बदलाव को लेकर पूरी स्पष्टता से जवाब दिया है। 2025 के परिणाम एक ऐसे मतदाता को इंगित करते हैं, जिसकी आकांक्षा बड़ी है और जिसने असुरक्षा व पक्षाघात वाले बिहार तथा बेहतर शासन वाले बिहार के बीच के अंतर को महसूस किया है।
कई नागरिकों ने बातचीत में और मतदान के पैटर्न में व्यक्त किया है कि 2024 के आम चुनाव में अपेक्षा से कम समर्थन के बाद यह चुनाव जिम्मेदारी की भावना लेकर आया है। लोगों ने अपने निष्कर्ष निकाले हैं कि वे देश की व्यापक यात्रा में बिहार को कहां देखना चाहते हैं। बेहतर शासन ने इस परिवर्तन को आधार प्रदान किया है। पिछले एक दशक में, बिहार में 55,000 किलोमीटर से अधिक ग्रामीण सड़कों का निर्माण या उन्नयन हुआ है, जो गांवों को बाजारों, स्कूलों और स्वास्थ्य केंद्रों से जोड़ती हैं। केंद्रीय योजनाओं और राज्य कार्यक्रमों के संयोजन के माध्यम से लाखों परिवारों को बिजली, पेयजल और सामाजिक सुरक्षा प्राप्त हुई है।
सौभाग्य और उससे जुड़ी पहलों के तहत, बिहार में 35 लाख से ज्यादा घरों का विद्युतीकरण किया गया, जिससे राज्य सार्वभौमिक घरेलू बिजली आपूर्ति के करीब पहुंच गया। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत, बिहार के लिए 57 लाख से ज्यादा पक्के घर स्वीकृत किये गये हैं, जिनमें से कई महिलाओं के नाम पर पंजीकृत हैं। ये आंकड़े उन ठोस बदलावों की ओर इशारा करते हैं, जिन्हें लोग देख और अनुभव कर सकते हैं: एक बारहमासी सड़क, एक जलती रहने वाली रोशनी, एक नियमित पेयजल आपूर्ति करने वाला नल तथा एक ऐसा घर, जो सम्मान प्रदान करता हो।
जैसे-जैसे इन सार्वजनिक कल्याण कार्यक्रमों का विस्तार हुआ, पुरानी शक्तियों की पकड़ ढीली होती गयी। बिहार का समाज विविधतापूर्ण और बहुस्तरीय है, फिर भी चुनावी लिहाज से यह बहुस्तरीय समाज अपने समुदायों तक सीमित नहीं रहा। विभिन्न समुदायों की महिलाएँ अब सुरक्षा, आवागमन और अवसर को लेकर एक जैसी अपेक्षाएं रखती हैं। कभी सामाजिक पदानुक्रम के विपरीत छोर पर खड़े परिवारों के युवा अब खुद को एक ही कोचिंग क्लास और श्रम बाजार में पाते हैं।
उनके रोजमर्रा के अनुभव उन्हें आकांक्षाओं के एक साझा दायरे में ले आते हैं। उस दायरे में, वे राजनीति से रोजगार, अवसंरचना, स्थिरता और निष्पक्षता जैसे सवाल पूछते हैं। इस जनादेश ने वंशवाद-केंद्रित राजनीति पर भी एक स्पष्ट संदेश दिया है। पारिवारिक करिश्मे और विरासत में मिले नेटवर्क पर निर्भर रहने वाली पार्टियों का विधायी दायरा तेजी से सिकुड़ रहा है। बिहार ने कई दशकों से ऐसे गठबंधनों को करीब से देखा है और उनकी सीमाओं को समझा है।
2025 के नतीजे बताते हैं कि मतदाता इस बात पर गौर कर रहे हैं कि नेता सरकार में कैसा व्यवहार करते हैं, संकट के समय में उनकी प्रतिक्रिया कैसी होती है, संस्थाओं के साथ कैसे व्यवहार करते हैं और सार्वजनिक संसाधनों का किस रूप में उपयोग करते हैं। व्यापक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में पारिवारिक पृष्ठभूमि मौजूद है, लेकिन वहां भी कड़ी मेहनत, संगठनात्मक क्षमता और सेवा के रिकॉर्ड से जुड़ी मांगें उन्हें बेहतर कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं।
युवा मतदाताओं का व्यवहार इस बदलाव का मूल तत्व है। बिहार भारत की सबसे युवा जनसांख्यिकीय आबादी वाले राज्यों में से एक है और 2000 के बाद जन्म लिए लाखों नागरिकों ने इस चुनाव में मतदान किया है। वे ऐसे भारत में पले-बढ़े हैं जहां एक्सप्रेसवे, डिजिटल भुगतान, प्रतिस्पर्धी संघवाद और महत्वाकांक्षी कल्याणकारी योजनाएं अपेक्षाओं को आकार देती हैं। वे राज्यों की तुलना करते हैं, घोषणाओं पर नजर रखते हैं और नेताओं का मूल्यांकन इस आधार पर करते हैं कि वादे कितनी तेजी से कार्यान्वित होते हैं।
उनके लिए, समय पर बनी सड़क और कभी फाइल से बाहर न आने वाली सड़क के बीच का अंतर समझना कोई कठिन बात नहीं है। वे हर दिन उस अंतर का अनुभव करते हैं जब वे कॉलेजों, कोचिंग सेंटर या कार्यस्थलों पर आते-जाते हैं, या जब वे अपने परिवारों को परिवहन संपर्क-सुविधा और कल्याणकारी योजनाओं से लाभान्वित होते देखते हैं। यह पीढ़ी राष्ट्रीय एकजुटता के लिए भी एक तीव्र प्रवृत्ति रखती है।
युवा मतदाता ऐसी बयानबाजी के प्रति सतर्क रहते हैं, जो संस्थानों को कमजोर करती हैं, अलगाववादी भावनाओं को भड़काती हैं या राष्ट्रीय सुरक्षा को कम महत्व देती हैं। वे बेरोजगारी और असमानता सहित नीतिगत बहसों में आलोचनात्मक रूप से शामिल होते हैं, फिर भी वे गणतंत्र को बेहतर बनाने वाली आलोचना और देश की एकजुटता के प्रति उदासीन आख्यानों के बीच एक रेखा खींचते हैं। बिहार का जनादेश इसी अंतर को प्रतिबिंबित करता है।
मतदाताओं ने एक ऐसे राजनीतिक गठबंधन को अपना समर्थन दिया है, जो विकास और राष्ट्रीय उद्देश्य दोनों को असाधारण स्पष्टता के साथ व्यक्त करता है। कानून-व्यवस्था एक अन्य व्याख्या प्रस्तुत करती है। बिहार के चुनाव कभी बूथ कब्जे और हिंसा से जुड़े होते थे। हाल के वर्षों में, और खासकर इस चुनावी दौर में, ये छवियां काफी हद तक धुंधली पड़ गयी हैं। कड़े सुरक्षा उपायों और आर्थिक विकास के संयुक्त प्रभाव से उग्रवाद कमजोर पड़ा है।
व्यापारी अब अपनी दुकानें ज्यादा देर तक खुली रखते हैं, छात्र ज्यादा आत्मविश्वास से यात्रा करते हैं और परिवार निश्चिंत होकर सार्वजनिक जीवन का अनुभव करता है। जिस मतदाता ने इन सुधारों को देखा है, वह अपने प्रतिनिधियों को चुनते समय इसे नजरअंदाज नहीं कर सकता। इन घटनाक्रमों पर विपक्ष के कुछ हिस्सों की प्रतिक्रिया चौंकाने वाली रही है। अपने समर्थन में आयी कमी के कारणों पर विचार करने के बजाय, कुछ नेता चुनाव आयोग, मतदाता सूचियों या पूरी प्रक्रिया की निष्पक्षता पर ही संदेह व्यक्त कर रहे हैं।
यह रवैया बिहार के मतदाताओं की बुद्धिमत्ता के साथ न्याय नहीं करता। यह इस तथ्य की भी अनदेखी करता है कि इसी संस्थागत व्यवस्था ने अन्य राज्यों में विपक्ष के पक्ष में भी नतीजे दिए हैं। मतदाता उस व्यवस्था की निंदा करने के बजाय अपनी चिंताओं के साथ अधिक गंभीर जुड़ाव की अपेक्षा करता है जिसका उसने अभी इतने उत्साह से इस्तेमाल किया है। व्यापक राष्ट्रीय और वैश्विक संदर्भ में, बिहार का जनादेश एक उभरते हुए पैटर्न को मजबूत करता है।
ऐसे समय में जब कई लोकतंत्र ध्रुवीकरण, आर्थिक कठिनाई और संस्थागत थकान से जूझ रहे हैं, भारत ने उच्च भागीदारी, स्थिर नेतृत्व तथा विकास, समावेश और राष्ट्रीय शक्ति पर केंद्रित नीति मार्ग पर आगे बढ़ना जारी रखा है। बिहार के परिणाम, इस विकास-पथ के लिए लोकतांत्रिक समर्थन की एक और परत जोड़ते हैं। राजनीतिक रूप से भारत के सबसे जागरूक राज्यों में से एक के मतदाता महसूस करते हैं कि उनकी प्रगति, 2047 तक एक विकसित और आत्मविश्वास से भरे भारत की ओर देश की बड़ी यात्रा के साथ जुड़ी हुई है।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के लिए यह जनादेश प्रोत्साहन और निर्देश दोनों है। यह अवसंरचना, कल्याणकारी सेवा अदायगी और सुरक्षा पर जोर को मान्यता देता है, लेकिन यह तेजी से रोजगार सृजन, गहन सुधारों और निरंतर संस्थागत सुधार की उम्मीदों को भी सामने रखता है।
विपक्ष के लिए, यह जनादेश रणनीति, नेतृत्व और कार्यक्रम के बारे में गंभीर सवाल खड़े करता है। बिहार के मतदाताओं ने संकेत दिया है कि वे शासन, गंभीरता और राष्ट्रीय एकता के प्रति सम्मान पर आधारित राजनीति की उम्मीद करते हैं। ये उम्मीदें आने वाले वर्षों में भारतीय राजनीति का परिदृश्य तय करेंगी। (लेखक भारत के पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। पंद्रह नवंबर का दिन झारखंड की आत्मा को झकझोरता है। यह वह पवित्र दिन है जब हमारे महान जनजातीय नायक भगवान बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था। यही वह दिन है जब सन् 2000 में झारखंड का जन्म हुआ। किंतु आज पच्चीस वर्ष बाद हमारा राज्य खुद अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। यह संघर्ष केवल राजनीतिक नहीं है। यह संघर्ष आर्थिक शोषण के विरुद्ध है। यह संघर्ष उपभोक्ताओं की सुरक्षा के लिए है।
झारखंड का आज का दृश्य चिंताजनक है। नागरिक (ग्राहक ) जो हर दिन बाजार जाते हैं, उन्हें पता नहीं कि वे क्या खरीद रहे हैं। एक दवाई जो जान बचानी चाहिए, वह जान ले रही है। खाद्य पदार्थों में मिलावट की महामारी ने हर घर को असुरक्षित बना दिया है। साइबर अपराधियों का तांडव सामान्य मनुष्य की जेब काट रहा है और इसी बीच भ्रष्टाचार जनता के विश्वास को निगलते जा रहा है। यह संकट उसी तरह का है जिसका सामना बिरसा मुंडा ने किया था, किंतु इस बार दुश्मन अंग्रेज नहीं है, बल्कि हमारे अपने संस्थान हैं।
झारखंड में नकली दवाओं का कारोबार पूरी तरह अनियंत्रित हो गया है। राज्य में मात्र बारह दवा निरीक्षक हैं, जबकि आवश्यकता बयालीस की है। इसका अर्थ यह है कि एक निरीक्षक के पास चार-चार जिले हैं। ऐसे में दवा की सप्लाई चेन में हर स्तर पर जांच नहीं हो पाती है। नतीजा यह है कि दवा निमार्ता से लेकर दुकानदार तक, नकली माल का व्यापार निर्बाध रूप से चलता है।
हाल ही में सुखदेव नगर थाने के क्षेत्र में स्थित एक सरकारी स्वास्थ्य केंद्र में नकली एंटीबायोटिक टैबलेट पकड़ी गई। जांच में पता चला कि दवा निर्माता, सप्लायर और दोनों के पते सब फर्जी थे। टैबलेट में संबंधित दवा के सक्रिय तत्व तक नहीं थे। रोगी को गलत दवा दे कर उसके संक्रमण को बढ़ाना एक राष्ट्रीय शर्म का विषय है।
ब्रांडेड दवाओं के नाम पर नकली और सब-स्टैंडर्ड दवाओं का धंधा तेजी से बढ़ रहा है। दर्द निवारक, बुखार की दवाएं, शुगर, हाई ब्लड प्रेशर, थायरॉयड, गर्भनिरोधक गोलियां, विटामिन सप्लिमेंट्स ये सभी वस्तुएं अवैध कारोबारियों के कब्जे में चली गयी हैं। मरीज दवा का कोर्स पूरा करते हैं, किंतु राहत नहीं मिलती, क्योंकि उन्हें नकली दवा दे दी गयी है। चिकित्सकों को बार-बार दवाएं बदलनी पड़ती हैं। यह न केवल स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ है, बल्कि गरीब परिवारों के सीमित संसाधनों पर सीधा हमला है।
सरकार ने क्यूआर कोड लागू करने की कोशिश की है, जिससे असली और नकली दवा की पहचान की जा सके। किंतु यह समाधान अधूरा है। समस्या यह है कि जांच सुविधाएं अपर्याप्त हैं। अन्य जिलों में मानक जांच भी संभव नहीं है। क्या हमारे नागरिकों के जान का मूल्य इतना कम है कि हम उन्हें पर्याप्त संसाधन भी नहीं दे सकते?
खाद्य सुरक्षा प्रणाली झारखंड में पूरी तरह ध्वस्त हो गई है। राज्य की इकलौती खाद्य परीक्षण प्रयोगशाला को राष्ट्रीय प्रत्यायन बोर्ड (एनएबीएल) ने मान्यता से वंचित कर दिया है, क्योंकि यह अपग्रेड नहीं की गई। नतीजा यह है कि अब राज्य में खाद्य पदार्थों में मिलावट की कानूनी जांच ही नहीं हो सकती। पहले यहां हर साल 1200 से अधिक सैंपलों की जांच होती थी, जिसमें से 40 प्रतिशत में मिलावट पायी जाती थी। अब तो यह जांच ही बंद हो गयी है।
इसका मतलब साफ है कि मिलावट करने वाले अब निर्बाध रूप से अपना काम करेंगे। अनाज में चूरा, मसालों में जहरीले रंग, दूध में मिलावट, सब्जियों में कीटनाशक- ये सब अब बिना किसी बाधा के बिकेंगे। गरीब परिवार जो सब्जी मंडी से सस्ते दाम पर सब्जियां खरीदते हैं, वे नहीं जानते कि वे अपने बच्चों को जहर खिला रहे हैं।
पिछले वर्ष मसालों में मिलावट के खिलाफ एफएसएसएआई द्वारा अक्टूबर माह में अभियान चलाया गया। जांच में पाया गया कि काली मिर्च में स्टार्च, मिर्च पाउडर में हानिकारक रंग, हल्दी पाउडर में मिट्टी सब कुछ मिलावट के लिए उपयोग हो रहा है। ये रंग कैंसर का कारण बन सकते हैं। किंतु न तो सरकार के पास संसाधन हैं और न ही राजनीतिक इच्छा है कि इस महामारी को रोका जा सके।
झारखंड हाईकोर्ट ने भी मिलावटी खाद्य पदार्थों की बिक्री को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए राज्य सरकार को निर्देश दिये हैं कि खाद्य सुरक्षा अधिकारियों की नियुक्ति जल्द से जल्द की जाये। किंतु अब तक इस निर्देश का पालन नहीं हुआ है।
साइबर अपराध में झारखंड का नाम शर्म से जुड़ा हुआ है। जनवरी से जून 2025 तक महज छह महीने में 11910 शिकायतें दर्ज हुईं। यानी हर दिन औसतन 66 शिकायतें। इसी अवधि में 767 साइबर अपराधी गिरफ्तार किये गये। फिर भी संकट थमता नहीं दिख रहा।
जनवरी 2024 से जून 2025 तक डेढ़ साल में 390 करोड़ रुपये का साइबर फ्रॉड हुआ है। कल्पना कीजिए, देश का यह हिस्सा कितना असुरक्षित है जहां हर दिन इतनी बड़ी ठगी होती है। पेंशनभोगी, अकेली महिलाएं, छोटे व्यापारी सभी अपने जीवन भर की बचत को खो देते हैं। बैंकों को धोखा दिया जाता है, आधार के नाम पर बिना अनुमति के खाते खोले जाते हैं, व्यक्तिगत डेटा चोरी होता है।
सबसे दर्दनाक बात यह है कि पीड़ितों को उनका पैसा वापस नहीं मिलता। हालांकि हाल ही में हाईकोर्ट के निर्देश के बाद पुलिस को पीड़ितों को पैसा लौटाने की व्यवस्था करने का आदेश दिया गया है, किंतु यह प्रक्रिया अभी शुरूआती चरण में है। जामताड़ा से लेकर देवघर तक, साइबर अपराधियों का जाल फैला हुआ है।ये गिरोह विदेशी सर्वर का इस्तेमाल करते हैं। डिजिटल गिरफ्तारी करके पीड़ितों को ब्लैकमेल किया जाता है।
यह केवल व्यक्तिगत हानि नहीं है। यह राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा है। हर वह नागरिक असुरक्षित है जो इंटरनेट का उपयोग करता है। बुजुर्ग, किशोर, महिलाएं, सभी निशाने पर हैं। आनलाइन शॉपिंग, बैंकिंग, सोशल मीडिया - हर क्षेत्र में खतरा है।
भ्रष्टाचार ने झारखंड की नसों में जहर घोल दिया है। अबुआ आवास जैसी सरकारी योजनाओं में भी गरीब लाभुकों से घूस मांगी जाती है। कुछ गरीब कर्ज लेकर पैसे देते हैं ताकि उन्हें आवास मिल सके। स्वास्थ्य विभाग में अधिकारियों की मिलीभगत से ही नकली दवाओं का सिलसिला चलता है।
पूर्व डीजीपी अनुराग गुप्ता के समय एनजीओ शाखा के प्रभारी इंस्पेक्टर गणेश सिंह के विरुद्ध भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने जांच दर्ज की है। आरोप है कि उन्होंने विभिन्न फाइलों के निष्पादन के बदले में अवैध वसूली की। जब सत्ता का संरक्षण होता है, तो भ्रष्टाचार पनपता है। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि झारखंड में भ्रष्टाचार व्यवस्थागत समस्या बन गयी है, न कि अपवाद।
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि उपभोक्ता मामलों का मंत्रालय और राज्य के आयोग खुद ही सोए हुए हैं। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 को लागू हुए पांच वर्ष हो गए हैं, किंतु झारखंड में इसकी क्रियान्वयन व्यवस्था और स्ट्रक्चर अभी भी कमजोर है। केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण के गठन के बाद भी झारखंड में इसकी कार्यप्रणाली स्पष्ट नहीं हुई है।
बिरसा मुंडा की जयंती और झारखंड स्थापना दिवस केवल राजनीतिक उत्सव नहीं हैं। ये अवसर हैं हमारे प्रतिबद्धता को नवीकृत करने का। झारखंड सरकार को तत्काल निम्नलिखित कदम उठाने चाहिए।
नकली दवाओं के विरुद्ध दवा निरीक्षकों की संख्या तुरंत बढ़ानी चाहिए। प्रत्येक जिले में एक आधुनिक दवा परीक्षण प्रयोगशाला स्थापित की जानी चाहिए। दवा सप्लाई चेन को पूरी तरह डिजिटल किया जाना चाहिए। दवा दुकानों पर निरंतर निगरानी होनी चाहिए। खाद्य सुरक्षा के लिए स्टेट फूड लैब को तुरंत अपग्रेड किया जाना चाहिए। प्रमुख जिला केंद्रों में अतिरिक्त खाद्य परीक्षण प्रयोगशालाएं स्थापित की जानी चाहिए। खाद्य सुरक्षा अधिकारियों की नियुक्ति में तेजी लायी जानी चाहिए।
साइबर अपराध के विरुद्ध हर जिले में साइबर जांच की इकाई स्थापित की जानी चाहिए। पीड़ितों को उनका पैसा लौटाने की तेजी से प्रक्रिया की जानी चाहिए। स्कूलों में साइबर सुरक्षा की शिक्षा दी जानी चाहिए। भ्रष्टाचार के विरुद्ध एसीबी को सशक्त किया जाना चाहिए। एक ही स्थान पर तीन साल से अधिक समय तक रहने वाले अधिकारियों का तबादला अनिवार्य किया जाना चाहिए।
साथ ही, हर झारखंडवासी को भी अपने दायित्व के बारे में जागरूक होना चाहिए। अपने अधिकारों के बारे में जानें। संदिग्ध उत्पादों की शिकायत दर्ज करें। स्थानीय स्तर पर उपभोक्ता समूह बनायें। सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन पर निगरानी रखें। इंटरनेट के उपयोग में सावधानी बरतें। शिक्षा को बढ़ावा दें।
बिरसा मुंडा को 150 साल पहले राजनीतिक स्वतंत्रता की लड़ाई लड़नी पड़ी थी। आज हमें आर्थिक स्वतंत्रता की लड़ाई लड़नी है। नकली दवा, खाद्य मिलावट, साइबर अपराध, भ्रष्टाचार ये सब नए अंग्रेज हैं, जो आंतरिक रूप से हमें लूट रहे हैं। हर गली में, हर मोहल्ले में, हर गांव में उपभोक्ता जागरूकता समूह बनने चाहिए। यह नयी क्रांति होगी आंतरिक शत्रुओं के विरुद्ध, आर्थिक न्याय के लिए, सामाजिक कल्याण के लिए।
बिरसा कहते थे: अबुआ राज तोहरो काज। हमारा राज्य, हमारा काम। आज हर झारखंडवासी को यह आह्वान दोहराना चाहिए। अपने राज्य को बचाने के लिए, अपने परिवार को सुरक्षित करने के लिए, अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए, हर नागरिक को सचेष्ट होना चाहिए। यह समय परिवर्तन का है। यह समय आंदोलन का है। यह समय क्रांति का है। जय बिरसा मुंडा! जय झारखंड! (लेखक अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत के क्षेत्र संगठन मंत्री हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। बिहार बीजेपी में आरा वाले पूर्व सांसद आरके सिंह के आउट होते ही छपरा वाले बाबू साहब राजीव प्रताप रूढ़ी की पूछ बढ़ गई है। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में राजीव प्रताप रूढ़ी भाजपा के तरफ से सबसे बड़े राजपूत चेहरे के रूप में नजर आए।
पूर्व केंद्रीय मंत्री आरके सिंह पूरे चुनाव प्रचार के दौरान कहीं भी मंच पर नहीं दिखे। ना पार्टी की तरफ से पूछा गया और ना ही उन्होंने अपने तरफ से पहल की। उल्टे पार्टी के लिए मुसीबत ही बने रहे। आर के सिंह की अपनी पीड़ा है। आरा में जिन लोगों ने उन्हें चुनाव में हरवाया, उन्हीं लोगों ने उन्हें पार्टी में भी पहले राज्यसभा और फिर एमएलसी बनने से रोक दिया।
आरके सिंह जवाब मांगते हैं कि चुनाव हारने वाले उपेंद्र कुशवाहा को राज्यसभा भेजा गया। भगवान सिंह कुशवाहा को एमएलसी बनाया गया। इस बार विधानसभा चुनाव में भी दोनों पर पर भाजपा ही खूब ध्यान देती रही, जबकि आरा में सबसे बेहतर काम करने और तमाम विवादों से दूर रहने वाले उनको पार्टी आश्वासन देती रही।
किसी भी छपरा वाले सांसद राजीव प्रताप रूढ़ी का राणा सांगा वाला अभियान बीजेपी के लिए संजीवनी बन गया। राजीव प्रताप रूढ़ी को भी पता है कि बीजेपी बिहार में राजपूत को सबसे ज्यादा विधानसभा में टिकट देकर यह मैसेज देना चाहती है कि भले सबसे ज्यादा विधायक और सांसद जीतने वाली इस जाति को बिहार मंत्रिमंडल और केंद्र में उचित स्थान बिहार कोटे से नहीं मिला हो पर टिकट के मामले में आज भी राजपूत बिहार में बीजेपी की पसंद है।
ऐसे में पूरे बिहार में उन्होंने भाजपा ही नहीं एनडीए के तमाम प्रत्याशियों के लिए इंटरनल अभियान भी चलाया है। विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद राजीव प्रताप रूढ़ी को बड़ा इनाम मिल सकता है।
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। लोकतंत्र का चुनाव त्योहार 11 नवंबर को मतदान के रूप में समाप्त हो चुका है। 14 नवंबर को चुनाव परिणाम सामने आने वाले हैं। चुनाव परिणाम के बाद बहुत कुछ द्रुत गति से जनता के सामने तथ्य वायरल होने वाला है। बिहार के चुनाव में मतदान के प्रतिशत का सारे पुराने रिकॉर्ड इस बार के मतदान में टूट चुके हैं। चुनाव आयोग के अनुसार लगभग 70% मतदान का अनुमान है।
एजेंसियों के एग्जिट पोल के अनुसार NDA गठबंधन की सरकार बनने वाली है और I.N.D.I.A. गठबंधन के नेता तेजस्वी यादव विपक्ष की भूमिका में यथावत बने रहेंगे। प्रशांत किशोर की पार्टी जन सुराज चुनाव में बुरी तरह हारती हुई दिखाई जा रही है।
बिहार का चुनाव परिणाम भारतीय लोकतंत्र में एक नई माइंड सेट/मानसिकता गाड़ने वाली है। फ्री की बिजली, ₹10,000 की रेवड़ी, सड़क, नाली, गली, धुआंधार खर्चीले चुनाव प्रचार, बिहार की गरीबी, अशिक्षा, पलायन, जातिवाद, परिवारवाद, वर्गवाद और धर्मवाद चुनाव की दृष्टि से मतदाताओं के निर्णय लेने में कितना महत्वपूर्ण है; आने वाले दिनों के लिए राजनीतिक दलों के चुनाव लड़ने के मुद्दों को प्रभावित करने वाली है।
जनता/मतदाताओं की परेशानियां अपने जगह में है और राजनीतिक दलों के नेताओं की परेशानियां अपने जगह है और इन दोनों परेशानियों का आपस में कोई लेना-देना नहीं है, कम से कम इतना तो जनता भी समझती है और नेता तो समझते ही समझते हैं..।
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। जैसे विश्व भर के देश प्रतिभाओं के लिए अपने भीतर देख रहे हैं। ऐसे में भारत को भी औपचारिक, औचित्यपूर्ण और गरिमामय रोजगार पैदा कर आगे बढ़ना होगा। समूची दुनिया में आव्रजन को लेकर चिंता, अर्थव्यवस्थाओं और राजनीतिक व्यवस्थाओं को नया स्वरूप दे रही है। वैश्विक प्रतिभाओं का स्वागत करने वाले देश अब बदल रहे हैं, वे वैश्विक प्रतिभाओं के लिए पुल बनाने के बजाय अवरोध पैदा कर रहे हैं।
उन्होंने प्रतिभाओं की तलाश अपने अंदर ही शुरू कर दी है। भारत इस बदलती हुई दुनिया में संपन्नता के लिए सिर्फ प्रतिभाओं के निर्यात पर निर्भर नहीं रह सकता। हमें उत्पादन के साथ ही अवसरों के लिहाज से भी आत्मनिर्भर बनना होगा। इसके जरिए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि स्वदेशी प्रगति के साथ ही देश में अच्छे भुगतान वाले, मानकीकृत और गरिमापूर्ण रोजगार पैदा हों।
मार्टिन लूथर किंग ने एक समय कहा था, मानवता को ऊपर उठाने वाले हर श्रम की गरिमा और महत्व है। इसे श्रमसाध्य उत्कृष्टता के साथ किया जाना चाहिए। भारत की नई श्रम संहिताएं इस आदर्श को जमीन पर उतारने की दिशा में एक कदम हैं। इनका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि देश को बनाने, आगे ले जाने और शक्ति देने वाले लाखों लोग सिर्फ कामगार नहीं हों, बल्कि प्रगति में हिस्सेदार बनें।
इन संहिताओं का लक्ष्य अनौपचारिकता को समावेशन, स्वेच्छा को आंकड़ों और असुरक्षा को सुदृश्यता से बदल कर काम की गरिमा बहाल करना है। भारत का श्रम परिवेश वर्षों से पैबंदों वाली दरी के समान रहा है। देश के 29 श्रम कानून बेशक अच्छे इरादे से लाए गए हों लेकिन सब मिल कर अस्पष्टता पैदा करते रहे थे। इसके परिणामस्वरूप अकुशलता का संतुलन दिखाई पड़ता था। कामगार में असुरक्षा थी और नियोक्ता संदेह में रहते थे।
सरकार ने इन कानूनों को वेतन, औद्योगिक संबंध, सामाजिक सुरक्षा और कार्यस्थल सुरक्षा की चार संहिताओं में पिरो देने का फैसला किया। यह कदम सिर्फ एक प्रशासनिक सुधार नहीं है। आधुनिकीकरण के इस अभियान में स्वीकार किया गया है कि संरक्षण और उत्पादकता को एक साथ मिलकर बढ़ना चाहिए।
इस सुधार का संबंध दृश्यता से है। नियुक्तिपत्र, वेतन की पर्ची और डिजिटल रिकॉर्ड के बिना कामगार, सरकार और बाजार दोनों की ही नजरों से ओझल रहता है। औपचारीकरण इस स्थिति में बदलाव लाता है। लिखित प्रमाण वाला हर रोजगार एक ऐसा जीवन पैदा करता है जिसकी मान्यता हो। हर डिजिटल रिकॉर्ड सामाजिक सुरक्षा से लेकर बीमा और गतिशीलता तक जाने वाला पुल होता है।
यह बदलाव नियोक्ताओं को भी अनिश्चितता के बजाय एक ढांचा और स्वेच्छा की जगह आंकड़े प्रदान करता है। नियुक्ति के हर संबंध का रिकॉर्ड हो तो विश्वास को एक बुनियाद मिल जाती है। वेतन को ही लें। भारत में विभिन्न राज्यों और उद्योगों की अलग-अलग हजारों न्यूनतम मजदूरी दरें थीं। आस-पड़ोस के जिलों के कामगारों तक को एक ही काम के लिए काफी अलग-अलग रकम मिलती थी।
वेतन संहिता में मजदूरियों की एक समान परिभाषा के साथ राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी स्थापित की गयी। इसके जरिए सुनिश्चित किया गया कि किसी को भी एक गरिमापूर्ण न्यूनतम सीमा से नीचे मजदूरी नहीं मिले तथा समान कार्य के लिए एक बराबर मजदूरी सिर्फ आडंबर नहीं, बल्कि नियम बन जाये। इससे श्रम के एक से दूसरे स्थान पर गमन में भी मदद मिलती है। इस संहिता ने सुनिश्चित किया कि एक से दूसरे राज्य में जाने वाले मजदूर के वेतन के अधिकार भी उसके साथ चलें।
औद्योगिक संबंध संहिता लचीलेपन और निष्पक्षता के बीच एक समान संतुलन बनाती है। भारत की अर्थव्यवस्था अब विनिर्माण, सेवाओं और तेजी से बढ़ते गिग क्षेत्र का मिश्रण है। लॉजिस्टिक्स, खुदरा और निर्माण जैसे कई उद्योग मौसमी माँग और परियोजना-आधारित कार्य के साथ संचालित होते हैं। निश्चित अवधि के अनुबंध अब वैध और मानकीकृत हो गये हैं। अब कंपनियां वेतन या लाभ की समानता से समझौता किए बिना नियुक्ति कर सकती हैं।
कर्मचारियों के लिए लचीलेपन का मतलब अब असुरक्षा नहीं है। पुनर्कौशल निधि का निर्माण प्रतिक्रियात्मक कल्याण से सक्रिय रोजगार की ओर बदलाव का संकेत है। नौकरी छूटने का मतलब अब चट्टान से गिरना नहीं है, यह नया सीखने और पुन: प्रवेश करने का एक सेतु बन जाता है। सामाजिक सुरक्षा संहिता यह मानती है कि भारत का कार्यबल अब फैक्टरियों तक ही सीमित नहीं है। ड्राइवर, डिलीवरी पार्टनर और फ्रीलांसर जैसे काम डिजिटल अर्थव्यवस्था के नए निर्माता हैं और अब सुरक्षा के दायरे में भी हैं।
यह स्वीकार करते हुए कि काम की प्रकृति बदलती रहती है लेकिन सुरक्षा की जरूरत नहीं बदलती, नए प्लेटफॉर्म उनके कल्याण के लिए केंद्रीय कोष में योगदान देंगे। स्व-मूल्यांकन, संगठित फाइलिंग और डिजिटल रिकॉर्ड, कागजों के ढेर की जगह पारदर्शिता और फाइल का शीघ्र पता लगाने की क्षमता बढ़ाते हैं। इससे अनुपालन सरल हो जाता है और नीति-निर्माण अधिक स्मार्ट हो जाता है।
प्रतिष्ठा और सुरक्षा पर ध्यान देना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। संहिता केवल व्यवसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य स्थितियां हेलमेट और रेलिंग लगाने के बारे में ही नहीं बनायी गयी हैं। यह कार्यस्थल पर सम्मान के लिए बनायी गयी हैं। नियुक्ति पत्र अनिवार्य हो गये हैं, स्वास्थ्य जांच के मानक बनाये गए हैं और महिलाएं अब सभी क्षेत्रों और शिफ्टों में काम कर सकती हैं, बशर्ते सुरक्षा उपायों में ऐसा प्रावधान सुनिश्चित किया गया हो जिससे बड़ी संख्या में महिलाएं कार्यबल में शामिल हो सके।
प्रवासी मजदूर, जिन्हें लंबे समय से अपने ही देश में बाहरी समझा जाता रहा है, अब जहां भी वे काम करते हैं, कल्याणकारी लाभ प्राप्त कर सकेंगे। यह समावेशन का वास्तविक रूप कहा जा सकता है। सरलीकरण को शायद सबसे कम होने वाले लाभ के रूप में आंका गया है। अब 29 की बजाय एक पंजीकरण, एक लाइसेंस, एक रिटर्न भरना है। निरीक्षक अब सुविधा प्रदाता हैं। अनुपालन की बातचीत दंड की बजाए साझेदारी की ओर बढ़ रही है।
छोटे उद्यमों के लिए जो भारत के रोजगार की रीढ़ हैं, उनकी सुविधा के लिए अब अनुमोदन के लिए कम और व्यवसाय निर्माण के लिए अधिक समय है। औपचारिकता सिर्फ कागजी कार्रवाई नहीं है, यह उत्पादकता बढ़ाती है। कार्यान्वयन में समय लग सकता है। राज्यों को अपने नियमों को एक समान बनाना होगा, डिजिटल प्रणालियों को सुचारू रूप से काम करना होगा और नियोक्ताओं और श्रमिकों दोनों को एक दूसरे के अनुकूल बनाना होगा।
लेकिन दिशा मायने रखती है। ये संहिताएं एक स्पष्ट संकेत देती हैं। भारत एक ऐसा देश बनना चाहता है जहां नौकरियां न केवल सृजित हों, बल्कि उनकी गणना भी हो जिनमें लचीलापन और निष्पक्षता हो और जहां श्रमिक और नियोक्ता समान भागीदार हों, न कि एक दूसरे के विरोधी। विश्व भर के देश प्रतिभाओं के लिए अपने अंदर की ओर देख रहे हैं। भारत को अपनी घरेलू श्रम प्रणाली को मजबूत करना होगा जो पारदर्शी, सुबाह्य और निष्पक्ष हो।
इन सुधारों का असली फायदा तब महसूस होगा जब भारत का विकास न केवल ज्यादा रोजगारों से, बल्कि बेहतर औपचारिक, उच्च-वेतन और सम्मानजनक रोजगार से भी प्रेरित हो। इन सुधारों का अगर सावधानी और निरंतरता के साथ क्रियान्वयन किया जाए, तो ये सुधार भारत की कार्यप्रणाली को नया रूप दे सकते हैं। ये अनौपचारिकता को समावेशिता में और काम को गरिमा में बदल सकते हैं। इसको सही रूप में व्यक्त करने के लिए कर्नाटक के 12वीं सदी के बासवन्ना के इस शाश्वत संदेश कायाकावे कैलासा- काम ही स्वर्ग है से बेहतर शायद ही कोई और विचार हो।
उनका आंदोलन मोची से लेकर विद्वान तक, ईमानदारी से किए गए हर पेशे को पवित्र मानता था। नयी श्रम संहिताएं इसी भावना को आगे बढ़ाती हैं कि गरिमा पद में नहीं, बल्कि प्रयास में निहित है। क्योंकि अंतत: सुधार की असली परीक्षा उसके पारित होने में नहीं, बल्कि उसको व्यवहार में लाने पर होती है। (लेखक अपना जॉब्स के मुख्य कार्याधिकारी हैं।)
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