हजारीबाग : जिले का प्रमुख धार्मिक पर्यटन केंद्र नृसिंह स्थान मंदिर सज-धज कर तैयार

 

विधि विधान के साथ भगवान श्री हरि को जगाने के बाद

भगवान के दर्शन को लेकर श्रद्धालुओं की उमड़ेगी भीड़

15 नवंबर को कल लगेगा कार्तिक पूर्णिमा का महामेला

टीम एबीएन, हजारीबाग। स्थानीय लोगों में एक कहावत है हजारीबाग की तीन पहचान झील, पंचमंदिर और नृसिंह स्थान। उत्तरी छोटानागपुर प्रमंडलीय मुख्यालय हजारीबाग से छह किलोमीटर दूर बड़कागांव रोड में कटकमदाग प्रखंड अंर्तगत श्री नृसिंह स्थान मंदिर जिले का प्रमुख धार्मिक पर्यटन केंद्र है। यह प्राचीन धरोहर को लगभग चार सौ वर्ष के इतिहास को संजोये हुए है। 

यह यह मुगलकाल अकबर के राज्य से लेकर ब्रिटिश शासन और वर्तमान लोकतंत्र का साक्षी भी रहा है। यहां भगवान विष्णु के अवतार नृसिंह की  पांच फीट की प्राचीन प्रतिमा है। जो काले रंग के ग्रेफाइट पत्थर की बनी है। वर्तमान में इसका मूल्य करोड़ों में बताया जाता है।

मान्यता है कि यहां गर्भ गृह में भगवान विष्णु के साथ शिव साक्षात विराजमान है। यहां स्थापित शिवलिंग जमीन से तीन फीट नीचे है। गर्भ गृह में शिव के साथ विष्णु भगवान के विराजमान रहने का का अद्भुत संयोग है। जो वैष्णव और शिव भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करता है। इसके अलावा भगवान सूर्य देव, नारद, शिव पार्वती और नवग्रह के प्रतिमा दर्शनीय  है। 

गर्भ ग्रह के बाहर हनुमान जी की प्रतिमा है। यहां सालों पर दर्शन पूजन करने श्रद्धालु आते हैं। गुरुवार और पूर्णिमा के दिन पूजा का अपना एक अलग महत्व है। कार्तिक और माघ महीने में भक्तों की भीड़ यहां बढ़ जाती है। यहां मुंडन, जनेउ, शादी विवाह व अन्य धार्मिक का आयोजन किए जाते हैं। शहर एवं आसपास लोक नया वाहन खरीदने पर यहां पूजा करने पहुंचते हैं। 

यह कार्तिक पूर्णिमा के दिन नृसिंह मेला लगता है। जो झारखंड में प्रसिद्ध है। मंदिर से कुछ दूरी पर मां सिद्धेश्वरी का मंदिर है जिसे नकटी महामाया मंदिर भी कहते हैं। यह सिद्ध पीठ है। मंदिर परिसर में भगवान विष्णु के दशा अवतार के मंदिर हैं। जिसमे मत्स्य, कुर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण बुद्ध और कल्कि अवतार के मंदिर शामिल है। इसके अलावा यहां काली मंदिर और लक्ष्मी नारायण का भी मंदिर है।

जानें क्या है इतिहास

श्री नृसिंह मंदिर का इतिहास काफी पुराना है। इसकी स्थापना 1632 ईस्वी में पंडित दामोदर मिश्र ने की थी। जो रामायण के रचनाकार संत तुलसीदास के समकालीन थे। वह संस्कृत और ज्योतिष के विद्वान के होने के साथ-साथ तांत्रिक भी थे। संस्कृत में उन्होंने कई रचनाए लिखी है। वह दुर्लभ पांडुलिपि आज देखरेख के अभाव में खत्म होने के कगार पर हैं। उनके वंशजों का कहना है कि वह औरंगाबाद सीरीश कुटुंबा के रहने वाले थे। 

उन्होंने बनारस मे शिक्षा दीक्षा लेने के बाद गंगा नदी के किनारे सिद्धेश्वरी घाट पर भगवान विष्णु के उग्र रूप नृसिंह की आराधना कर सिद्धि प्राप्त की थी। उसके बाद वह अपनी माता लवंगा के साथ हजारीबाग खपरियांवा पहुंचे। यहां उन्हें स्वप्न देखा कि भगवान विष्णु उनसे कह रहे हैं कि वह नेपाल के भूसुंडी पहाड़ी में है। यहां उनकी प्रतिमा स्थापित है। जिसे स्वप्न में लाने का उन्हें आदेश प्राप्त हुआ। 

इसके बाद वह अपने सहयोगियों के साथ पद यात्रा कर नेपाल पहुंचे। फिर वहां के भूसुंडी पहाड़ी में खुदाई शुरू की। जैसे ही खुदाई शुरू की। पहले खून की धारा बहने लगी। जिससें वह डर गए और भयभीत होकर उन्होंने खुदाई को रोक दिया। फिर रोते हूए भगवान से प्रार्थना करने लगे। उसी रात स्वप्न में भगवान विष्णु ने खुदाई करने का पुन: आदेश दिया। दूसरे दिन जब उन्होंने खुदाई शुरू किया तो भगवान नृसिंह के साथ-साथ मंदिर परिसर में स्थापित अन्य प्रतिमाएं निकली।

उसके बाद सभी प्रतिमा को लेकर खपरियावां पहुंचे। यहां पहले इमली पेड़ के पास स्थापित किया। उसके बाद वर्तमान में जहां मंदिर है। वहां अभी प्रतिमाओं को ले जाकर स्थापित किया। मंदिर के चारों ओर आम व जामुन  के वृक्ष लगायें। जिसे आज भी लोग जमुनिया बागी कहते है। उन्होंने तालाब का भी निर्माण कराया। कहा जाता है कि उस समय यह क्षेत्र राजा रामगढ़ का राज्य था। उनके राज दरबार में एक ब्राह्मण था। वह काफी विद्वान और जानकार था। राज दरबार के कई मंत्री उनसे जलते थे। 

उन्होंने राजा को कुछ गलत बातें बता दी। कहा जाता है कि जिसके बाद राजा ने उन्हें मौत की सजा सुना दी। मौत के बाद वह ब्राह्मण प्रेत बन गया। और राजमहल में उपद्रव करने लगा। राज परिवार प्रेत बाधा से परेशान हो उठा। तब उन्हें किसी ने सलाह दी कि वह पंडित दामोदर मिश्र से संपर्क करें। दामोदर मिश्र जब प्रेत बाधा दूर करने पहुंचे और मंत्रोच्चार करने लगे तो वह प्रेत प्रकट हो गया। उसने बताया कि वह निर्दोष है। 

उसे राजा ने उसे गलत सजा दी है। वह राजा को मार डालेगा। लेकिन दामोदर मिश्र के तंत्र विद्या के सामने वह प्रेत नहीं ठहरा। लेकिन जाते-जाते उसने यह श्राप दे दिया कि  वह राजा को छोड़ देगा। लेकिन उनके तंत्र विद्या के कारण उसे न्याय नहीं मिल पा रहा है इसलिए उसने श्राप दे दिया कि उन्होंने जो रचनाएं की है। जो धरोहर स्थापित किया है। आने वाले समय में वह नष्ट हो जायेगा। 

उसके बाद राजा की प्रेत बाधा दूर हो गयी। राजा ने पंडित दामोदर मिश्र को 22 गांव की जमींदारी सौंप दी। उस समय से यहां पूजा अर्चना की जा रही है। खपरियांवा पंचायत के बन्हा टोला निवासी लंबोदर पाठक मुखिया बनने के बाद जिला परिषद के सदस्य बने। फिर बरकट्ठा क्षेत्र से विधायक बने। वह बहुत बड़े ठेकेदार थे। भारद्वाज कंस्ट्रक्शन कंपनी की स्थापना की। धर्म कर्म में उन्हें बहुत रुचि थी। वह अपनी तरक्की के पीछे भगवान नृसिंह का आशीर्वाद मानते थे। देवघर में उन्होंने पाठक धर्मशाला का निर्माण कराया था। 

उसके बाद उन्होंने प्राचीन मंदिर का पुर्ननिर्माण करने की योजना बनायी। इसके लिए संकल्प लिया। ऐसी मान्यता है भगवान नृसिंह से मन्नत मांगने के बाद जब फूल गिर जाता है तो उसे भगवान का आशीर्वाद मांगा जाता है। लंबोदर पाठक ने धार्मिक अनुष्ठान के साथ भगवान नृसिंह से आशीर्वाद भी प्राप्त किया। उसके बाद मंदिर के चारों ओर खुदाई शुरू कर दी। इसी दौरान साल 1988 में एकीकृत बिहार के समय जब भूकंप आया। पूरा मंदिर प्राचीन मंदिर धर्मशाला वह अन्य ऐतिहासिक धरोहर जमीजोद हो गया। लेकिन भगवान नृसिंह की प्रतिमा व अन्य विग्रह सुरक्षित रहे। 

इसके बाद मंदिर का पुनर्निर्माण शुरू हुआ। वर्ष 1995 में वर्तमान मंदिर तैयार हुआ आने के  ऐसी मान्यता है कि यहां जलाया गया अखंड दीप और मंदिर की परिक्रमा कभी व्यर्थ नहीं जाती है। दर्शन पूजन के साथ मनवांछित फलों की कामना के लिए श्रद्धालुओं का आना-जाना बना रहता है। जिले के अलावा दूसरे राज्य के लोग शादी विवाह और मन्नत को लेकर बाबा के दरबार में पहुंचते हैं। नृसिंह स्थान को पर्यटन केंद्र बनाने के लिए सरकार प्रयासरत है। लेकिन सरकारी जमीन नहीं रहने के कारण पर्यटन केंद्र नहीं बन पा रहा है। पर्यटन केंद्र बनाने की दिशा में सिर्फ विवाह मंडप का निर्माण कार्य किया गया है। स्थानीय लोग बताते हैं कि यहां धर्मशाला और विवाह घर बनाने की जरूरत है।

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