देश में हरित उर्जा की संभावना और चुनौती

 

भारत में मजबूत लोकतंत्र है जिसकी दुनिया में साख है। पिछले कुछ वर्षों में भारत ने सौर ऊर्जा क्षेत्र में काफी उपलब्धियां हासिल की हैं। अनुमान है कि साल 2022 तक भारत 175 गीगावाट ऊर्जा हरित साधनों से पैदा करेगा और 2030 तक यह साढ़े चार सौ गीगावाट तक पहुंच जाएगी। भारत हरित विश्व व्यवस्था का मुखिया बन सकता है। भारत ने पेरिस सम्मलेन के उपरांत अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा कूटनीति की जो शुरूआत की, उसमें उसे बड़ी सफलता हासिल हुई है। अमेरिका के उत्तरी कैलिफोर्निया के जंगलों में लगी आग ने एक बार फिर यह सोचने को मजबूर किया है कि आखिर कब तक इंसान प्रकृति का दोहन करते हुए उसके साथ खिलवाड़ करता रहेगा। सबसे ज्यादा तो यह दुनिया के उस देश में हो रहा है जो प्रकृति का दोहन कर पिछली एक सदी से दुनिया का मठाधीश बना हुआ है। जब पूरी दुनिया हरित उर्जा की बात कह रही थी, तब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने देश के एक प्रतिष्ठित उद्योग घराने को बंद कमरे में यह विश्वास दिला रहे थे कि कार्बन जनित इंधन पर कोई पाबंदी नहीं लगाई जाएगी। अपने देश में गैस के अकूत भंडार मिलने के बाद अमेरिका की नीयत बदल गई है। खाड़ी देशों में 1945 से चली आ रही अमेरिकी घुसपैठ थम गई है। अमेरिका तेल की जगह अपनी गैस के जरिए आर्थिक ढांचे को बढ़ाने की कोशिश करेगा, अर्थात हरित ऊर्जा को अभी भी वह खास अहमियत नहीं दे रहा। नई विश्व व्यवस्था की बात पिछले एक दशक से चल रही है। माना जा रहा है कि शक्ति का हस्तांतरण अब पश्चिम से पूर्व की ओर होगा। जाहिर है, एशिया ही नई वैश्विक व्यवस्था के केंद्र के रूप में उभरने की ओर है। चीन पूरी तरह से नेतृत्त्व की तैयारी में जुटा है। उसने साल 2035 तक का खाका तैयार भी कर लिया है। तब तक चीन दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सैन्य शक्ति बन जाएगा। लेकिन चीन की सोच के अनुसार दुनिया बदलती हुई दिखाई नहीं दे रही है। कोरोना महामारी फैलाने के आरोप को लेकर पिछले सात महीनों में चीन को लेकर जो संदेह गहराता जा रहा है, उससे उसका वैश्विक स्वरूप खंडित हुआ है। यूरोप के ज्यादातर देश जो उसके हिमायती हुआ करते थे, वही अब उससे सवाल पूछ रहे हैं। पूर्वी एशिया के पड़ोसी भी चीन के व्यापार और सैन्य विस्तार को बड़े खतरे के रूप में देख रहे हैं। भारत के साथ गलवान घाटी में संघर्ष को हवा देकर चीन अपनी आतंरिक करतूतों को ढकने में लगा है। इसलिए एक सामरिक विस्तार जो दुनिया में मठाधीश बनाने के लिए जरूरी था, वह अब दम तोड़ रहा है। दुनिया में महाशक्ति बनने के लिए कई गुणों की जरूरत पड़ती है। इनमें दो गुण विशेष हैं। पहला, ऐसा देश जो दुनिया के किसी भी हिस्से में सैन्य दखल की क्षमता रखता हो, और दूसरा यह कि जिसके पास दुनिया के किसी भी हिस्से में पमाणु मिसाइलें दागने की ताकत हो। अमेरिका इन दोनों ही क्षमताओं से युक्त है, लेकिन उसकी तुलना में चीन को अभी इतनी ताकत हासिल करने के लिए वक्त लगेगा। ऐसे में जिस नई वैश्विक व्यवस्था की संभावना बन रही है और जिसकी पूरी दुनिया को जरूरत है, वह हरित विश्व व्यवस्था की है। इसमें जो बाजी मार ले जाएगा, वही दुनिया का नया बादशाह बनेगा। लेकिन सवाल है कि यह क्षमता है किस देश के पास? अमेरिका इस श्रेणी से पहले ही से बाहर है। क्योटो प्रोटोकॉल और पेरिस संधि को नकारने के बाद अमेरिका कभी भी हरित विश्व व्यवस्था का नेतृत्व नहीं कर सकता, न ही दुनिया उसके नेतृत्व को स्वीकार करने वाली है। दूसरा देश चीन है। चीन ने पिछले कुछ वर्षों में हरित उर्जा में अद्भुत क्षमता विकसित कर ली है। 2018 में सौर ऊर्जा के जरिए चीन ने एक सौ अस्सी गीगा वाट ऊर्जा उत्पन्न कर बड़ी-बड़ी बसें और ट्रक भी सौर ऊर्जा से चलाने में कामयाबी हासिल कर ली। पवन ऊर्जा में भी वह आगे है। लेकिन इतना कुछ होने के बावजूद हरित विश्व के रिकॉर्ड में चीन काफी नीचे है। इसके कई कारण हैं। पहला तो यह कि देश के भीतर तो चीन हरित ऊर्जा की वकालत करता है, लेकिन बाहरी दुनिया में वह जम कर कार्बन जनित आर्थिक व्यवस्था को अहमियत दे रहा है। पिछले कई सालों से अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के देशों में वह कोयले का जम कर इस्तेमाल कर रहा है, जिससे इन देशों में प्रदूषण की समस्या गंभीर बनती जा रही है। चीन दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में कोयला उत्पादन क्षेत्रों को खरीद चुका है। सबसे बड़ा कोल उत्पादक देश होने के बावजूद कोयले का सबसे बड़ा आयातक देश भी चीन ही है। अर्थात अपने लिए स्वच्छ और हरित ऊर्जा और दूसरों के लिए कार्बन का ढेर। यह नीति तर्कसंगत नहीं है। आने वाले दो दशकों तक चीन के कार्बन उत्पादन में कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं आने वाला। यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि चीन भविष्य में हरित ऊर्जा वाली नई वैश्विक व्यवस्था की अगुआई करेगा और दुनिया के देश उसके नेतृत्व को स्वीकार करेंगे। थाईलैंड, मलेशिया जैसे देश तक अब उसके खिलाफ हैं। जहां तक सवाल है यूरोपीय देशों का तो हरित ऊर्जा के मामले में ग्रीनलैंड, आइसलैंड जैसे यूरोप के छोटे देश काफी आगे हैं। इसी तरह अफ्रीका के मोरक्को, घाना और एशिया में भूटान जैसे देश हैं। लेकिन ये देश इतने छोटे हैं कि ये हरित वैश्विक व्यवस्था का नेतृत्व नहीं कर सकते। फ्रांस के साथ तकरीबन सड़सठ देशों ने इसमें शिरकत की और साझेदार बन गए। सौर ऊर्जा क्षेत्र में अगुआई के लिहाज से यह बड़ा हासिल रहा। दूसरा यह कि भारत में हरित उर्जा के अन्य स्रोत भी उपलब्ध हैं। मसलन पवन ऊर्जा, बायोमास और छोटे-छोटे पनबिजली संयंत्र। ऊर्जा का जलवायु परिवर्तन से सीधा संबंध है। प्राकृतिक आपदाओं के पीछे बड़ा कारण धरती और वायुमंडल में कार्बन की बढ़ती मात्रा है। पिछले दो सौ सालों में कल-कारखानों से निकली जहरीली गैसों के कारण प्रकृति में कार्बन की मात्रा बढ़ी है। इसके लिए सबसे ज्यादा दोषी यूरोप के औपनिवेशिक देश और बाद में अमेरिका रहा है। भारत की प्राचीन आर्थिक व्यवस्था पूरी तरह से प्रकृति जनित और उस पर आधारित थी। भारत में हमेशा से प्रकृति के साथ जिंदा रहने को महत्त्व दिया गया है। जल, जमीन और जंगल के सुनियोजित प्रयोग की सीख दी गई। यह अलग बात है कि आजाद भारत गांधी के भारत के हट कर पश्चिमी आर्थिक व्यवस्था का अभिन्न अंग बन चुका है। आज भारत के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह है कि दुनिया को एक सूत्र में बांधने के लिए वह वैश्विक भूमिका में उतरे और अपनी स्वीकार्यता बनवाए। हरित वैश्विक व्यवस्था की अगुवाई के लिए भारत के पास क्षमता और संसाधन दोनों हैं। बस इनका उपयुक्त तरीके से उपयोग करना है।

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