सरहुल झारखंड में मनाया जाने वाला किया जाने वाला एक प्रमुख त्योहार है। इस त्योहार को झारखंड में जनजातियों के साथ सदानों में भी मनाने की परंपरा है। इसमें मुख्यत: साल वृक्ष की पूजा होती है। पूजा में सखुए का फूल प्रयोग में लाया जाता है। यह त्योहार स्थान विषेष पर अलग-अलग दिनों में मनाया जाता है परंतु विगत कुछ दषकों से त्योहार में एक रूपता लाने के लिए विषेष रूप चैत महीने के शुुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाने लगा है। सरहुल पर्व के दिन षोभायात्रा निकालने की परंपरा भी चल पड़ी है। सरहुल पर्व चैत महीने (मार्च-अप्रैल) के पहली तिथि से षुरू होकर बैशाख पूर्णिमा तक मनाया जाता है। इसे झारखंड की प्राय: प्रत्येक जनजातियों में अलग अलग नामों से जाना जाता है। कुड़ुख में खद्दी, मुण्डारी में बा, सथाली में बाहा, खड़िया में जंकोर और हो में बाह्य पर्व कहते हैं। हो की बाह्य, मुंडारी की बा, संथाल की बाहा, खड़िया की जंकोर, एवं कुड़ुख की खद्दी पर्व का अर्थ सरई फूल है। इस तरह कहा जा सकता है कि सरहुल फूलों का त्योहार है। यह प्रकृति के नव स्वरूप के उत्सव का त्योहार है। यहाँ की जनजातीय समुदाय में इस त्योहार के बाद ही नये फल-फूल का सेवन आरंभ होता है। यह जनजातियों के लिए नव वर्ष है। इस त्योहार के साथ ही जनजातीय समुदाय में नव वर्ष का आगाज भी होता है। हो समुदाय सरहुल पर्व की षुरूआत होली के आस पास से ही करता है। इस समुदाय में सरहुल पूजा में अपने पूर्वजों की भी पूजा की जाती है। पूर्वजों की पूजा के साथ आम और महुआ फूल की भी पूजा करते हैं। पूजा के बाद ही नये फलों का सेवन आरंभ होता है। हो समुदाय में सरहुल पर्व के अवसर पर युवक-युवतियां एक साथ जोड़ कर नृत्य नहीं करते हैं। लड़के सिर्फ वाद्य-यंत्रों के माध्यम से युवतियों का साथ देते हैं। रांची वीमेंस कॉलेज के हो भाषा के सहायक प्राध्यापक विजय सिंह गागराई ने बताया कि हो जनजातियों में बाह्य पर्व का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने सरहुल पर्व पर हो समुदाय में गाया जाने वाला एक गीत बताया- एलागो सारजोम बाड़ा एलागो नाड़ादुन बेन, देलागो सारजोम बाड़ा देलागो नोसोरेन बेन ओअ: दोको सरिल तडा देलागो नोसोरेन बेन रचा दोको गुरि: तडा एलागो नाड़ादुन बेन लुकु बुड़ा गोआरितना देलागो नोसोरेन बेन लुकु बुड़ि गेरंतना एलागो नाड़ादुन बेन।। संथाल समुदाय में भी सरहुल पर्व होली के आस पास से ही अरंभ होता है। जाहेर में नायके सरहुल पूजा संपादित करते हैं। पूजा के बाद एक साथ मिलकर नृत्य किया जाता है। संथालों में भी सरहुल के बाद ही नये फल-फूलों का सेवन किया जाता है। खड़िया समुदाय में सरहुल पर्व होली के दिन ही मनाया जाता है। कालो (पुजारी) पूजा संपन्न कराते हैं। इसके बाद प्रसाद के रूप में लेटो (खिचड़ी) ग्रहण किया जाता है। खड़िया समुदाय में सखुए के फूल को जंकोर कहते हैं और पेड़ को दारू कहा जाता है। मुण्डा समुदाय में भी होली के बाद से ही सरहुल मनाया जाता है। पहान पुजा कराते हैं। इस समुदाय में भी सरहुल के दिन लेटो खाया जाता है। कुड़ुख समुदाय में सरहुल पर्व का बड़ा ही महत्व है। फागुन कटने के बाद इस समुदाय के लोग सरहुल पर्व मनाना प्रारंभ करते हैं। कुड़ुख समुदाय में बैषाख पूर्णिमा तक सरहुल पर्व मनाय जाता है। इस त्योहार को धरती और सूर्य के विवाह के रूप में मनाया जाता है। यह त्योहार सृष्टि से भी जुड़ा हुआ है। इसलिए कुड़ुख समुदाय के लोग इस त्योहार को खेखे़ल बेंज्जा कहते हैं। सरहुल पूजा से पहले इस समुदाय में नये फल-फूलों के सेवन पर प्रतिबंध रहता है। इसके पीछे भी वैज्ञानिक कारण है। इस त्योहार में सखुए फूल का बड़ा महत्व है। उरांव समुदाय में सखुए के फूल को नौर पूंप कहा जाता है। उराँव समुदाय में सरहुल से संबंधित एक गीत इस प्रकार है- हरे टोड़ंग नू एंदेर पूंप पूंइदा गोटा टोड़ंग पंडरू इथिरिई हरे टोड़ंग नू नौर पंूप पंूइदा गोटा टोड़ंग पंडरू इथिरिई सरहुल प्रकृति से जुड़ा एक महान पर्व है। यह सृष्टि को आगे बढ़ाने के लिए पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है। इस त्योहार की प्रसांगिकता आज कोरोना महामारी के दौर में और भी अधिक हो गयी है। जब पूरा विश्व कोरोना महामारी के भयंकर परिणाम से जूझ रहा है तो यह त्योहार हमें प्रकृति की गोद में लौटने को कह रहा है। सरहुल के पहले नये फल-फूलों का सेवन नहीं करके आदिवासी समुदाय पर्यावरण की रक्षा का बहुत बड़ा संदेश देते हैं। जब तक फूल, पत्ते और फल बालिग नहीं हो जाते हैं तब तक यह समुदाय इनका सेवन करना अपराध मानता है। जियो और जीने दो के सिद्धांत का इससे उत्तम उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है। पेड़-पौधों के महत्व को इनके पूर्वज हजारों साल पहले समझ गये थे। इसका उत्तम उदाहरण हजारों वर्ष पहले से मनाया जाने वाला यह सरहुल पर्व है। पूरी दुनिया में पर्यावरण की सुरक्षा, सरंक्षण, विकास और जीवन मूल्यों में शामिल किये जाने की यह बड़ी परम्परा का वाहक परम्परा है। इस पर्व के महत्व को सबसे पहले आदिवासी समाज ने ही समझा था। पर्यावरण ही जीवन श्रोत है इस बात का संदेश सरहुल ही देता है। झारखंड का यह प्रमुख पर्व है जिसे कोरोना काल में हम जितनी सादगी से मनायेंगे उतना ही बेहतर संदेश जाएगा। (लेखक नागपुरी विभाग, गोस्सनर कॉलेज रांची के विभागध्यक्ष हैं।)
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