घुमक्कड़ों के मसीहा राहुल सांकृत्यायन

 

(डॉ नीतू नवगीत)। हिंदी साहित्य के इतिहास में महापंडित राहुल सांकृत्यायन यात्रा वृतांत या यात्रा साहित्य के जनक या पितामह माने जाते हैं। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के पन्दाहा गांव में 9 अप्रैल, 1893 को हुआ था। इनके पिता गोवर्धन पांडे धार्मिक विचारों वाले एक किसान थे। बाल्यकाल में ही इनकी माता कुलवंती देवी का निधन हो गया था। अत: इनका पालन-पोषण इनके ननिहाल में ही हुआ। राहुल जी के बचपन का नाम केदारनाथ पांडे था। बालक केदार के नाना रामशरण पाठक थे जो फौज में 12 साल नौकरी कर चुके थे। फौजी नाना बालक केदार को दिल्ली, शिमला, नागपुर, हैदराबाद, अमरावती, नासिक इत्यादि जगहों के अनगिनत यात्रा संस्मरण सुनाया करते थे। कहते हैं- बाल्यकाल के संस्कार जीवन पर्यंत स्थायी रह जाते हैं। यहीं से बालक केदार के मन में यात्रा के प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया। उनके अंत:करण में यात्रा की ललक, यात्रा के प्रति प्रेम अंकुरित करने में ख्वाजा मीर दर्द के शेर की महती भूमिका रही-सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहां, जिंदगानी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहां? इस शेर के संदेश ने बालक केदार के मन में बेहद गहरा, बेहद अमिट प्रभाव डाला और इसके बाद इनके घुमक्कड़ी जीवन का सूत्रपात हुआ। राहुल जी की पाठशाला और विश्वविद्यालय यही घुमक्कड़ी जीवन था। उनका मानना था कि घुमक्कड़ी मानव मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। उन्होंने कहा भी था-कमर बांध लो भावी घुमक्कड़ों, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है। राहुल जी ने अपनी यात्रा के अनुभवों को आत्मसात करते हुए घुमक्कड़ शास्त्र भी रचा। वह एक ऐसे घुमक्कड़ थे जो सच्चे ज्ञान की तलाश में थे और जब भी सच को दबाने की कोशिश की गई तो वे विद्रोही हो गए। उनका संपूर्ण जीवन अंतर्विरोधों से भरा पड़ा है। मात्र 11 वर्ष की आयु में जब उनका विवाह जबरन संतोषी नामक बालिका से करवा दिया गया तो वह घर के विद्रोही हो गए। इस विवाह की प्रतिक्रिया में राहुल जी ने किशोरावस्था में ही गृह त्याग कर दिया। घर से भागकर वे बनारस चले आए और फिर वहां से परसा मठ (जिला छपरा, बिहार) में जाकर साधु बन गए । लेकिन सत्यानुरागी राहुल ने जब मठ में रहने वाले साधु और महंतो का आडंबरपूर्ण जीवन देखा तो वहां भी विद्रोही बन गए । घुमक्कड़ी स्वभाव भी उनके प्रयाण का कारण बना । 14 वर्ष की अवस्था में वे कोलकाता भाग आए। ताउम्र गतिशील बने रहे। बड़ी ही निर्भीकता से आगे बढ़ते रहे। उनके मन में न तो कोई दुविधा थी और न अनिश्चय का कुहासा । राहुल जी घुमक्कड़ी के बारे में कहते हैं- मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता। दुनिया दु:ख में हो या सुख में, सभी समय यदि सहारा पाती है तो घुमक्कड़ों की ओर से। प्राकृतिक आदम मनुष्य परम घुमक्कड़ था। और इनकी बातें अक्षरश: सत्य है। आदि काल में धार्मिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक और व्यापारिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए घुमक्कड़ी स्वभाव वाले लोगों ने लंबी-लंबी यात्राएं की। तब परिवहन के साधन इतने विकसित नहीं थे । उन लोगों ने पैदल चलकर या घोड़ा गाड़ी और बैलगाड़ी जैसे वाहनों की मदद से अपनी यात्राएं पूरी की। नौका यात्रा ने घुमक्कड़ी को आसान बनाया।मेगास्थनीज,ह्नवेनसांग,फाहयान,अलबरूनी, इब्नबतूता, अमीर खुसरो, माकोर्पोलो, सेल्यूकस निकेटर इत्यादि ऐसे घुमक्कड़ हुए जिनके द्वारा लिखे या बयान किए गए यात्रा वृतांतों से घुमक्कड़ी साहित्य का संवर्धन हुआ। घुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन बीसवीं सदी की उपज थे । तब देश गुलाम था। ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारतीय समाज, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और राजनीति सभी संक्रमण काल के दौर से गुजर रहे थे। राहुल जी इन सब से अप्रभावित न रह सके। राहुल जी अप्रतिम प्रतिभा संपन्न थे । वे साधु थे, बौद्ध भिक्षु थे, यायावर थे, इतिहासज्ञ थे, पुरातत्ववेदा थे और साहित्यकार भी थे । वह अलग-अलग राहों पर चले पर सत्य का अन्वेषण नहीं छोड़ा। कलम को भी सदैव साथ रखा। उन्होंने अपनी यात्राओं का विवरण लिखा, नाटक लिखे, कथाएं लिखीं। उनके व्यक्तित्व के अनेक आयाम हैं। शायद ही उनका नाम कभी बिना विशेषण के लिया गया हो। महापंडित, शब्दशास्त्री, त्रिपिटकाचार्य, अन्वेषक,, कथाकार, निबंध लेखक, अन्वेषक, आलोचक, कोषकार , अथक यात्री और भी ना जाने कितने शब्द उनके नाम से ठीक पहले जोड़े गए हैं। राहुल जी की कृतियों की सूची भी काफी लंबी है । आपको हिंदी भाषा और साहित्य की बहुमुखी सेवा करने का गौरव प्राप्त है । इनका अध्ययन जितना विशाल था, साहित्य सृजन उतना ही विराट। राहुल जी 36 एशियाई और यूरोपीय भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने लगभग 150 ग्रंथों का प्रणयन किया। सन 1927 ईस्वी में उनके साहित्य के जीवन का प्रारंभ हुआ। उनके द्वारा लिखी गई कहानियां हैं- 1. सतमी के बच्चे2. वोल्गा से गंगा 3. बहुरंगी मधुपुरी4. कनैला की कथा उन्होंने कई उपन्यास भी लिखे- 1. बाइसवीं सदी जीने के लिए 2. सिंह सेनापति3. जय यौधेय 4. भागो नहीं दुनिया बदलो 5. मधुर स्वप्न 6. राजस्थान निवास 7. विस्मृत यात्री 8. दिवो दास अन्य महत्वपूर्ण रचनाओं में मेरी जीवन यात्रा, दर्शन दिग्दर्शन, घुमक्कड़ शास्त्र,किन्नर देश में, दिमागी गुलामी, यात्रा के पन्ने, एशिया के दुर्गम भूखंडों में ... इत्यादि प्रसिद्ध हैं। मेरी लद्दाख यात्रा, मेरी तिब्बत यात्रा, तिब्बत में सवा वर्ष, रूस में पच्चीस मास, मेरी यूरोप यात्रा इत्यादि उनके द्वारा लिखे गए अप्रतिम यात्रा वृतांत हैं । सरदार पृथ्वी सिंह, नए भारत के नए नेता आदि उनके द्वारा लिखी गई जीवनियाँ हैं । राहुल सांकृत्यायन एक प्रतिष्ठित बहुभाषाविद् थे । बौद्ध धर्म पर उनका शोध हिंदी साहित्य में युगांतरकारी माना जाता है। इस महती कार्य के लिए उन्होंने तिब्बत से लेकर श्रीलंका तक का भ्रमण किया था। (लेखिका साहित्यकार सह लोक गायिका हैं।) लावा उन्होंने मध्य एशिया और काकेशस भ्रमण पर भी यात्रा वृतांत लिखे जो साहित्यिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं । राहुल जी जीवन पर्यंत दुनिया की सैर करते रहे। इस सैर में सुविधा-असुविधा का कोई प्रश्न ही नहीं था। जहां जो साधन उपलब्ध हुए, उन्हें स्वीकार कर लिया। वे अपने अध्ययन और अनुभव का दायरा बढ़ाते रहे । यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि ज्ञान के अगाध भंडार थे राहुल जी। वह कहा करते थे कि उन्होंने ज्ञान को सफर में नाव की तरह लिया है बोझ की तरह नहीं। ज्ञान की खोज में देश-विदेश की यात्रा करते रहना ही राहुल जी की जीवनचर्या थी । राहुल जी का पूरा जीवन साहित्य को समर्पित था। साहित्य रचना के मार्ग को उन्होंने बहुत पहले से चुन लिया था। सत्यव्रत सिन्हा के शब्दों में-"वास्तविक बात तो यह है कि राहुल जी किशोरावस्था पार करने के बाद ही लिखना शुरू कर दिए थे। जिस प्रकार उनके पाँव नहीं रुके, उसी प्रकार उनके हाथ की लेखनी भी नहीं रूकी। उनकी लेखनी की अजस्र धारा से विभिन्न विषयों के प्राय: 150 से अधिक ग्रंथ प्रणीत हुए ।" राहुल जी के यात्रा साहित्य की सबसे प्रमुख विशेषता है- उनकी वर्णन शैली । यह इतनी आकर्षक है कि पाठक भी लेखक के संग-संग भ्रमण करने लगता है। राहुल जी की प्रमुख कर्मस्थली तिब्बत ही रही । तिब्बत से उनका अत्यंत गहरा और भावनात्मक लगाव रहा है। यही कारण है कि उन्होंने चार बार तिब्बत की यात्रा की । 1929 में राहुल जी ने तिब्बत की पहली यात्रा की। 1930 में उन्हें महापंडित की उपाधि मिली। श्रीलंका में प्रव्रज्या ग्रहण कर वह रामोदर सांकृत्यायन से राहुल सांकृत्यायन बने । 1934 में उन्होंने तिब्बत की दूसरी यात्रा की जबकि तिब्बत की तीसरी यात्रा 1936 ईस्वी में की थी । तिब्बत की अंतिम और चौथी यात्रा उन्होंने 1938 ईस्वी में की। राहुल जी द्वारा लिखे गए यात्रा वृतांत सिर्फ स्मृतियाँ नहीं हैं बल्कि एक मिटती जाती दुनिया का अभिलेखन है। जैसा किसी कवि ने कहा है- हाथों में पता नहीं कि रबर है कि पेंसिल है। जितना भी लिखता हूं उतना ही मिटता है। हिंदी और हिमालय को राहुल जी ने बहुत प्यार दिया। उन्हीं के अपने शब्दों में- "मैं ने नाम बदला, वेशभूषा बदली, खानपान बदला, संप्रदाय बदला; लेकिन हिंदी के संबंध में मेरे विचारों में कोई परिवर्तन नहीं किया ।" राहुल जी के विचार आज बेहद प्रासंगिक हैं। उनकी उक्तियां सूत्र रूप में हमारा मार्गदर्शन करती हैं । हिंदी को खड़ी बोली का नाम भी राहुल जी ने ही दिया था। इतना ही नहीं ललित कला अकादमी के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी ने बताया कि राहुल सांकृत्यायन पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने पहली बार किसी भारतीय भाषा में मध्य एशिया का इतिहास लिखा है। उनके द्वारा लिखी गई दोहाकोष और अथातो घुमक्कड़ भी हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है। राहुल जी ने न सिर्फ दुर्गम भूखंडों की यात्राएं की अपितु उनका बेहद वृतांत तक लिख डाला। जरा सोचिए! किसी अनजान देश में अनजान रास्तों से गुजरते हुए जाना। इतना ही नहीं उनके सभ्यता-संस्कृति को आत्मसात करते हुए उनकी कहानियां लिखना । कितना रोमांचक रहा होगा। उस अनजान देश के खंडहर, टूटे-फूटे महल, नदी, पर्वत, जंगल,झरने इत्यादि क्या कथाएं कहती हैं, किस पुरातन इतिहास में जोड़ती है यह सब ढूंढना कोई सहज कार्य नहीं है। राहुल जी के यात्रा वृत्तांत को समझने के लिए उनकी तिब्बत यात्रा को समझना नितांत आवश्यक है । प्रथम तिब्बत यात्रा राहुल जी सन 1929-30 में करते हैं । उस समय भारतीयों को तिब्बत यात्रा की अनुमति नहीं थी ।प फिर भी राहुल जी दृढ़संकल्पित थे कि उन्हें तिब्बत जाना ही है। इसलिए उन्होंने 1929 में बौद्ध धर्म अंगीकार करने के बाद नेपाल के रास्ते एक भीखमंगे के छद्म वेश में तिब्बत की यात्रा की। तिब्बत की राजधानी ल्हासा की ओर जाने वाले दुर्गम रास्तों का वर्णन उसने बहुत ही रोचक शैली में किया है। इस यात्रा वृतांत से हमें उस समय के तिब्बती समाज की जानकारी मिलती है। नेपाल से तिब्बत जाने का मुख्य रास्ता फरि-कलिंड़पोड़्ग उस वक्त नहीं खुला था।फरि-कलिंड़पोड़्ग सिर्फ व्यापारिक ही नहीं सैनिक रास्ता भी था। इसलिए राहुल जी को जगह-जगह फौजी चौकियों और किले भी मिले जिनमें कभी चीनी पलटन रहा करती थी । ऐसे ही परित्यक्त एक किले में राहुल जी चाय पीने के लिए ठहरे। वे कहते हैं कि तिब्बत में यात्रियों के लिए बहुत सी तकलीफें भी है और कुछ आराम की बातें भी। सन् 1929 में जब भारत गुलाम था उस वक्त हम मानसिक रूप से भी कई बेड़ियों में जकड़े हुए थे। भारत में जब धर्म की राजनीति चरम पर थी, पर्दा प्रथा प्रचलन में था, स्त्रियों को आजादी नहीं थी; उस समय भी तिब्बत की परिस्थितियां बिल्कुल अलग थी । वहां जाति-पाति, छुआछूत का सवाल ही नहीं था और ना औरतें पर्दा ही करती थीं। लेखक को डाँड़ा थोंड़्ला पार करना था । यह सबसे खतरनाक रास्ता था । 16-17 हजार फीट की ऊंचाई होने के कारण दोनों तरफ मीलों तक कोई गांव-गिराव नहीं था । डाकुओं का भी वह मनपसंद जगह था क्योंकि जो स्थान निर्जन सुनसान हो, वहां डकैत भी छुपे रहते हैं । लेकिन लेखकों जहां भी खतरा महसूस होता, वह कुची-कुची (दया-दया) एक पैसा कह कर भीख मांगने लगते । लेखक घोड़े पर सवार होकर डाँड़े के ऊपर पहुंच जाते हैं । वे समुद्र तल से 17-18 हजार फीट ऊंचे खड़े थे । सर्वोच्च स्थान पर डाँड़े के देवता का स्थान था जो पत्थरों के ढेर, जानवरों के सिंगों और रंग-बिरंगे कपड़े की झंडियों से सजाया गया था । डाँड़े से उतराई करते हुए लेखक टिंड़री के मैदान में पहुंचते हैं । वहां लेखक एक मंदिर में पहुंचते हैं जहां कंजूर यानी बुद्धवचन का अनुवाद हो रहा था और वहां 103 पोथियाँ रखी हुई थी । लेखक कहते हैं कि मेरा आसन भी वहां लगा । वह बड़े-मोटे कागज पर अच्छे अक्षरों में लिखी हुई थी । एक-एक पोथी 15-15 सेर से कम नहीं रही होगी । इस तरह हम देखते हैं कि लेखक हस्त लिपियों की खोज कितनी पीड़ा उठाकर करते हैं । 21वीं सदी के इस दौर में जब संचार क्रांति के साधनों ने समग्र विश्व को एक ग्लोबल विलेज में परिवर्तित कर दिया है एवं इंटरनेट द्वारा ज्ञान का समूचा संसार क्षणभर में एक क्लिक पर सामने उपलब्ध हो, ऐसे में यह अनुमान लगाना कि कोई व्यक्ति दुर्लभ ग्रंथों की खोज में हजारों मील दूर पहाड़ों और नदियों के बीच भटकने के बाद उन ग्रंथों को खच्चरों पर लादकर अपने देश में लाए , बहुत ही रोमांचक लगता है। राहुल जी ने यह कहा भी है कि पहली बार जब वे तिब्बत में प्रवेश कर रहे थे तो उन्हें उतने ही कष्टों का सामना करना पड़ा था जितना कि हनुमान जी ने लंका प्रवेश में किया था । करीब सात-आठ हजार फुट की ऊंचाई पर जब लेखक यात्रा कर रहे थे तो उन्हें लाल, गुलाबी और सफेद कई रंग के फूलों वाले बुरांश के पेड़ मिले थे । बुरास को वहां अशोक भी कहा जाता है लेकिन हमारे यहां के अशोक के वृक्ष बुरांश से अलग हैं । अंग्रेजी में बुरांश को रोडेन्ड्रन कहा जाता है । लेखक कहते हैं कि एक वृक्ष तो अपने फूलों से ढका हुआ इतना सुंदर मालूम हो रहा था कि उसे देखने के लिए मैं ठहर गया । कैमरे से फोटो लिया । लेकिन फोटो में रंग कहां से आ सकता था । उस समय ब्लैक एंड वाइट फोटो ही लिए जा सकते थे । इस तरह राहुल जी जंगल, वनस्पति, पहाड़, पर्वत, मैदान के अतिरिक्त वहां की विवाह संस्था का भी जिक्र करते हैं । वे कहते हैं कि पहाड़ हरे-भरे जंगलों से परिपूर्ण थे । वृक्षों में छोटी बांसी, बंज, ओक और देवदार जातीय वृक्ष बहुत थे । वह कहते हैं कि वहां का जंगल इसलिए भी सुरक्षित रह गया क्योंकि वहां जनवृद्धि का कोई डर नहीं है । तिब्बती लोगों में पांडव विवाह होता है यानी सभी भाइयों का एक विवाह होता है । यदि एक पीढ़ी में दो भाई हैं, दूसरी पीढ़ी में दस तो तीसरी पीढ़ी में फिर दो-तीन हो जाने की संभावना है । इस प्रकार न तो वहां पर घर बढ़ता है और नहीं खेत- संपत्ति बँटती है । आदमियों के न बढ़ने से जंगल काट कर नए खेतों को आबाद करने की आवश्यकता भी नहीं होती है । लेखक बताते हैं कि नेपाल के इधर के पहाड़ों में तिब्बत का नमक चलता है जो सस्ता भी होता है । नेपाली लोग अपनी पीठ पर मक्की, चावल या कोई भी अनाज लादकर ञेनम पहुंचते हैं और वहां से नमक लेकर लौट जाते हैं । वे आगे कहते हैं कि इधर के गांव में हर जगह बौद्ध चैत्य या मंत्र खुदे हुए पत्थरों की दीवारें रहती हैं । नमक लादे लोग इन्हीं चैत्यों और मांडियों में शौच जाते हैं ।. बस्ती के आसपास तो गंदगी का ठिकाना ही नहीं है । ञेनम के पास पहुंचते ही उन्हें एवरेस्ट पर्वत भी दिखाई पड़ा । पुस्तकों की खोज करते-करते लेखक सस्क्या की ओर पहुंचे । वे रास्ते में मक्खन वाला नमकीन चाय पीते हैं । चाय के साथ सत्तू खाने की भी परंपरा रही है । थुकपा उन्हें बहुत पसंद आता है । थुकपा के बारे में वह बताते हैं कि वह एक तरह की पतली खिचड़ी है । यह हमारे यहां की खिचड़ी से बिल्कुल अलग है । हमारे यहां की खिचड़ी में दाल चावल इत्यादि डाले जाते हैं किंतु थुकपा में अन्न की जगह सत्तू, मूली या आलू, मांस और हड्डी, चर्बी, नमक-प्याज जैसी चीजें अधिक पानी में डालकर घंटों पकाई जाती है । फिर कटोरों में लेकर उसे गरमा गरम किया जाता है । चर्बी मांस और प्याज डालकर दो-तीन घंटे पकाया गया हो तो बहुत स्वादिष्ट होता है, इसमें संदेश नहीं । बड़े घरों में तो इसे 5-5, 6- 6 घंटे चूल्हे पर रखकर छोड़ा जाता है । चूल्हों पर एक साथ पांच बर्तन रखे जा सकते हैं । इसलिए ज्यादा इंधन खर्च होने का सवाल ही नहीं है । यह गरमा गरम थुकपा चीनी मिट्टी के कटोरे में रात में सोने से पहले भी पीना पसंद करते हैं। तिब्बत में सत प्रतिशत लोग मांसाहारी हैं किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि वह मांस बहुत सुलभ है । बड़े घरों में सूखा मांस हमेशा तैयार रहता है । क्योंकि किसी मेहमान की खातिरदारी के लिए मांस आवश्यक चीज है । सूखा होने पर उसे पकाने की आवश्यकता नहीं समझी जाती । इसलिए उसके दो एक बड़े टुकड़े एक ऊंचे पांव की तस्करी पर रखकर नमक और चाकू के साथ मेहमान के सामने रख दिए जाते हैं । इसके साथ ही लकड़ी के सुंदर सत्तू दान में सत्तू और सुंदर चीनी प्याला चाय के लिए रखा जाता है । जाड़ा आरंभ होने से पहले ही भेड़ या याक जैसे पशुओं को मार कर रख लिया जाता है क्योंकि जाड़ों के आरंभ होने पर वहां घास और दूसरे चारों की कमी हो जाती है । जिसके कारण पशु दुर्बल होने लगते हैं । तिब्बती पंचांग का चौथा महीना शाक्य माह के आने पर उस समय प्राणी हिंसा करना बुरा समझा जाता है । यह बुद्ध के जन्म,निर्वाण और बुद्धत्व प्राप्ति का महीना होने के कारण बहुत पुण्य माना जाता है । सन 1934 में राहुल जी ने तिब्बत की दूसरी यात्रा की थी। इसका वर्णन हमें पत्रों के रूप में दिखाई पड़ता है । वह अपने परम मित्र आनंद जी को पत्र लिखते हैं और बड़ी ही सूक्ष्मता से अपनी यात्रा के विविध पहलुओं से उन्हें अवगत कराते हैं । एक पत्र में वह लिखते हैं- प्रिय आनंद जी, कलिमपोंग से लहासा तक वही पुराना रास्ता था । इसलिए उसके बारे में विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं थी । लहासा 2 महीने 11 दिन रहा । इस बीच में विनय पिटक के अनुवाद और विज्ञप्ति के कुछ भाग को संस्कृत में करने के अतिरिक्त दो महत्वपूर्ण तालपत्र के संस्कृत ग्रंथों अभिसमयालंकार टीका और वादन्याय टीका को खोज पाने का सौभाग्य मिला । ( यह उनकी खोजी प्रवृत्ति को दशार्ती है ।) दोनों पुस्तकों के फोटो ले लिए । एक कॉपी अपने पास रख नेगेटिव सहित एक-एक प्रति पटना में श्री जायसवाल जी के पास भेज दी है । अबकी बार यहां भिक्षुओं तथा गृहस्थों के नाना प्रकार के वस्त्र, आभूषण भी संग्रह कर रहा हूं । तिब्बत में चित्रकला पर एक लेख लिख चुका हूं जो किसी हिंदी पत्र में भेज दूंगा- सचित्र । साथ ही यहां के चित्रकारों के सभी रंग, उनके बनाने का ढंग, तूलिका आदि का संग्रह किया है । तिब्बती भाषा की दूसरी तीसरी पुस्तकों को छापने के लिए कोलकाता भेजा था, रास्ते में उसी थैले में किसी ने शराब रख दी, जिससे भींग कर पुस्तक के कितने ही भाग अपाठ्य हो गए । विनयपिटक के हिंदी अनुवाद को भी आदमी के हाथ गयाची (डाकखाना) जहां कि अंग्रेजी डाकखाना है, भेजा है । देखिए, सकुशल पहुंच जाए तब । नहीं तो योगिनी-डाकिनी के मुल्क में कहीं फिर बोतल लुढ़क गई तो वह भी राम-राम सत्य । अपने राम ने तो कसम खा रखी है यानी लेखक ने कसम खा रखी है कि यदि लिखी हुई कोई पुस्तक एक बार गुम या नष्ट हो जाए तो फिर उसमें हाथ नहीं लगाना । हां तो फेम्बो की यात्रा की क्यों जरूरत पड़ी । 10 वीं सदी से 13 वीं सदी तक कितने ही अच्छे-अच्छे विद्वान इस प्रदेश में हुए । मेरे एक विद्वान मित्र का कहना है कि फेम्बो या फेन् बो हमेशा तंत्र मंत्र से बगावत करता रहा है । रावण की लंका में विभीषण के समान दीपंकर पंडित शर-बा तो तंत्र मंत्र के कठोर विरोधी थे । मालूम हुआ कि दसवीं से 13 वीं शताब्दी तक के कितने ही विहार हैं जिनमें रेड़िड़् में तो निश्चित ही थोड़ी सी ताल पत्र की पुस्तकों के होने की बात बतलाई गई है । वस्तुत: यही कारण है इधर आने का । जब पुस्तकों के लिए आना ही था तो उसके लिए विशेष तैयारी करनी जरूरी थी । यात्रा हेतु इस बार वह भीखमंगे का छद्म वेश नहीं, सामने से पूरी तैयारी के साथ तिब्बत में प्रवेश की योजना बनाते हैं । सबसे पहले तो सभी पुराने मठों के लिए पुस्तकें दिखाने हेतु वह भोट सरकार से चिट्ठी प्राप्त कर लेते हैं । चिट्ठियों के बाद दूसरा प्रश्न था साथी और सवारी का । साथियों में गे से के अतिरिक्त एक फोटोग्राफर की आवश्यकता थी । सौभाग्य से लहासा के फोटोग्राफर श्री लक्ष्मी रत्न ने चलना स्वीकार कर लिया । डाकू एवं चोरों से रक्षा हेतु एक और साथी इन-ची मिन-ची जुड़े । एक पिस्तौल बंदूकधारी थे । एक अन्य साथी जुड़े जो अच्छे चित्रकार हैं तथा इतिहास और न्याय शास्त्र की अच्छी जानकारी भी रखते हैं । कहसुन कर राहुल जी ने उनके भी गले में एक सात गोली का पिस्तौल एवं कारतूसों की माला लटका दी । सवारी के लिए खच्चरों की व्यवस्था भी हो गई थी । छ:. खच्चरों की व्यवस्था साहू पूर्णमान ने कर दी । खच्चरों के सरदार थे सो- नम ग्यलन छन थे । इस तरह हम देखते हैं कि यात्रा हेतु राहुल जी की पूरी तैयारी तात्कालिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए की गई थी । सभी साथी एक दूसरे के साथ मस्ती करते हुए आगे बढ़ते हैं । फोटोग्राफर लक्ष्मी रतन को लोग नाती-ला के नाम से जानते हैं । दरअसल उनकी नानी उन्हें नाती कहती थी और भोट वासियों ने उन्हें नाती-ला बना दिया । अब बुढ़ापे तक उसे नाती-ला ही रहना है । नाती-ला को इस बात से बहुत ऐतराज था । इसलिए सभी उन्हें नाती-ला कहकर चिढ़ाते थे । इस तरह घुमक्कडों की छोटी सी टोली लक्ष्य प्राप्ति हेतु हंसते-गाते निकल पड़ती है । ये सभी लहासा से उत्तर की ओर जाते हैं। चांग की ओर, सक्य की ओर एवं ञेनम की ओर, नेपाल की ओर राहुल सांकृत्यायन यात्राएं करते हैं । और बहुत ही लाभप्रद मनोरंजक यात्रा वृतांत भी लिखते हैं । अब थोड़ा सा जिक्र लद्दाख यात्रा का भी कर लिया जाए । कश्मीर के रास्ते लद्दाख जाकर जब वे वापस लौट रहे थे तो हमेशा की तरह वह आनंद जी के नाम चिट्ठी लिखते हैं । उनके द्वारा लिखी गई चिट्ठी हमें वहां के लोगों की सभ्यता-संस्कृति, रहन-सहन वेशभूषा, मठों एवं भौगोलिक क्षेत्र एवं जलवायु से लगातार जोड़ती रही। लेखक हमें बताते हैं कि लद्दाख में पित्तोक, ठिक्-से, रिजोंड्ं और लि-कीर यह प्रधान गोलूपा यानी पीली टोपी वाले मठ हैं । लि-कीर का कोई अवतारी लामा नहीं है । यह 11वीं शताब्दी में स्थापित हुआ था । बाकी तीन मठों के अधिपति अवतारी लामा होते हैं जिन्हें लद्दाख में कुशोक कहते हैं । पित्तोक का अशोक 15-16 वर्ष का बालक है जो आजकल लहासा में पढ़ रहा है । रिजोंड्ं का कुशोक तो तीन चार वर्ष का बच्चा है । ठिक्-से के वर्तमान अशोक की जीवनी नाना चित्र-विचित्र घटनाओं से परिपूर्ण है । ठिक-से के कुशोक का बाप एक बड़ा राज कर्मचारी है । अकेला पुत्र होने पर भी मठ के अधिकार के लोभ से या अवतारवाद के मायाजाल में पढ़कर बाप ने लड़के को कुशोक बनने के लिए दे दिया । लड़कपन तो जैसे-तैसे कुछ पढ़ते, कुछ खेलते बीता । जब यौवन में प्रवेश हुआ, तब उसे अपने पर काबू रखना भारी हो गया । पहले छुप-छुपकर स्त्री और शराब का दौर चलता था, पीछे खुलकर । साथ में सिगरेट भी पीने लगा जिसका पीना भोट देशीय उन लामाहों के लिए अक्षम्य अपराध समझा जाता है जो दिन रात छड़ यानी शराब के गर्क में रहते हैं । मठ के भिक्षुओं और गृहस्थों को बुरा लगने लगा । किंतु करते क्या । वह तो एक पुरातन सिद्ध पुरुष का अवतार था । धीरे-धीरे उसने मठ की चीजें बेचनी शुरू कर दी । मारपीट हुई, मुकदमा हुआ । अंत में उसे लद्दाख छोड़ देना पड़ा । मठ के अधिकारियों के बीच जब अवतार को लेकर विचार-विमर्श हो रहा था तो लेखक राहुल सांकृत्यायन ने भी अपने विचार रखे । उनका कहना था- अब अवतार को तिलांजलि दो । पाँच समझदार लड़कों को अच्छी तरह पढ़ाओ । जो अधिक योग्य होगा वही कुशोक होगा । लेखक आगे कहते हैं कि हां तो सभी ने कहा किंतु हां पर अमल होगा इसका मुझे जरा भी विश्वास नहीं । उन्हें वहां की एक और घटना दु:खद मालूम होती है । वे कहते हैं कि सभी खच्चर वालों के साथ लद्दाखी लोग बुरा बर्ताव करते हैं । उन्हें भोटा भोटा कह कर पुकारना तो आम बात है, उन्हें मां बहन की गाली भी दे देते हैं । लेखक कहते हैं कि जब हम लाचा लुड़्ला के उस पार ठहरे थे, तब रात के आठ-नौ बजे एक बूढ़ा लद्दाखी राहगीर डेरा देखकर ठहरने के लिए आया । बेचारा बोली भी नहीं समझता था । तंबू में नहीं, बाहर एक कोने में सोना चाहता था । किंतु उसे गाली दे दे, डंडे मारने का डर दिखा कर वहां से भगाया गया । मैंने सारी जमात की मनोवृति देखकर कुछ नहीं कहा । किंतु दु:ख मुझे बड़ा हुआ । लोग कह रहे थे कि चोर है और भी इसके साथी होंगे । मैं सो गया । रात को मैंने स्वप्न देखा कि कुछ भोटिया चोर मेरे बॉक्स को उठा ले गए । जिसमें मंझिम निकाय का अनुवाद और 4 भोट भाषा की पुस्तकें हैं । मैंने कहा- वही मेरी तीन मास की कमाई है । और चोरों को इससे कुछ फायदा नहीं । अंत में सोते ही टटोलकर पास में वह बक्से को महसूस किया तो दु:स्वप्न हटा । इस तरह हम देखते हैं कि राहुल जी वहां के लोगों की मानसिक प्रवृत्ति भी बीच-बीच में हमें बताते रहते हैं । इसके साथ-साथ वहां की स्त्रियों की वेशभूषा एवं रास्ते में आने वाले गांव का जिक्र भी करते हैं । "पूरे एक सप्ताह के बाद आज दोपहर बारह बजे पहला घर देखने को मिला । यह दर्जा गांव था । अब आसपास पहाड़ों पर काफी देवदार के वृक्ष थे । गांव में यहां भी लद्दाख वाले सफेदे और वीरी के वृक्ष मौजूद थे । सिर्फ घर का ढंग ही लद्दाखी नहीं था, बल्कि थोड़ा नीचे मैंने कुछ स्त्रियों को फीरोजो के सपार्कार लद्दाखी शिरोभूषण पिर-क को भी पहने देखा । आगे एक स्त्री को पीठ पर बोझा ले गुजरते देखा । उसकी नाक में सोने की दुअन्नी भर लॉन्ग भी पड़ी थी । मैं तो समझने लगा कि सारे लाहुल में स्त्रियों ने आभूषणों में लद्दाखी पि-रक और लॉन्ग को अपनाया है किंतु आगे देखने से पता चला कि लद्दाख की पि-रक सिर्फ दारचा गांव में ही है ।" उन्होंने देखा कि फसलों की कटाई ढुलाई करने वाले जो स्त्री पुरुष हैं, वह अपनी मेहनत को हल्की करने के लिए स्वर में स्वर मिलाकर बारी-बारी से कुछ गाते जा रहे हैं । कोईलों के स्वदेशी इन स्त्री पुरुषों के कंठों में भी कुछ असर है । राह में राहुल जी को लाखों वर्षों तक टूट-टूट कर जमा होती पहाड़ी चट्टानों का ढेर भी मिलता है और वे उस ढेर का इतिहास भी मालूम कर लेते हैं । बहुत पहले इसी स्थान पर एक बड़ा गांव था, जिसमें 100 घर थे। एक दिन गांव के सारे लोग एकत्र हो भोज कर रहे थे । उसी समय बड़े लाचा की ओर से कोई वृद्ध आया। उसे साधारण भोटिया समझकर सभी लोगों ने उसका तिरस्कार कर पंक्ति से बाहर निकाल दिया । लेकिन सबसे अंत में एक लड़का बैठा हुआ था। उसने बूढ़े को अपना आसन दे अपने से पहले स्थान पर बैठाया। भोज और छड़ के बाद वृद्ध अंतर्ध्यान हो गया। लोगों ने नाच-गाना चालू कर दिया उसी समय एक भारी तूफान आया और उस तूफान में लाखों भारी- भारी चट्टाने पहाड़ से गिरने लगी। सारा गांव उसके नीचे दब गया। तूफान ने उस लड़के को उड़ा कर दरिया पार कर दिया था। उसकी संतान अब भी मौजूद है और शायद यह ऐतिहासिक घटना भी उसी की परंपरा से सुनी गई है। ऐसा माना जाता था कि इन स्थानों पर एक जबरदस्त भूत रहने लगा। वह दिन-दोपहर को आदमी को पकड़ कर खा जाता था। उस तरफ इक्के-दुक्के निकलने वाले आदमी त्राहिमाम करते जाते थे। आस-पास के गांव वाले कितने ही पूजा पाठ, तंत्र मंत्र करके हार गए लेकिन वह भूत काबू नहीं आया । दो-तीन वर्ष पूर्व हेमिस (लद्दाख) मठ के महंत कुशग स्तग सङ्ग् रसपा इधर से आए और मंत्र से भूत को बांध दिया। तब से उस भूत ने न तो किसी को सताया और न हीं उसे निकलते ही किसी ने देखा। राहुल जी कहते हैं कि पहली घटना से नष्ट हुए गांव के प्राणियों के लिए मुझे अफसोस ही हुआ, किंतु दूसरे भूत की बात सुनकर तो मेरी आत्मा रोम-रोम से अपने मित्र कुशक् तक सङ्ग् रस् पा को आशीर्वाद देने लगा- ह्लयदि वह भूत कहीं खुला होता तो मेरी क्या हालत होती ! शायद मेरे हाथ का लिखा हुआ पत्र तुम्हें नहीं मिल पाता। सबसे अधिक अफसोस तो मुझे सुकखु लाल के घोड़ों के लिए होता जिसपर मैं सवार था। क्या जाने भूखे भूत का पेट सिर्फ सवार से नहीं भरता। लेखक की ये बातें सच में पाठकों को गुदगुदा जाती हैं । यात्रा संस्मरण को, यात्रा वृतांत को और भी रोचक बना डालती है। राहुल सांकृत्यायन के यात्रा साहित्य में दो प्रकार की दृष्टि देखने को मिलती हैं। पहले प्रकार में यात्राओं का केवल सामान्य वर्णन है। और दूसरे प्रकार की यात्रा सहित को शुद्ध साहित्यिक कहा जा सकता है। दूसरे प्रकार के यात्रा साहित्य में राहुल सांकृत्यायन ने स्थान के साथ-साथ अपने समय को भी लिपिबद्ध किया है। उदाहरणस्वरूप, बाकू से ईरान के लिए जब राहुल जी प्रस्थान करते हैं तो बड़े प्रेम से अपना स्वानुभव पाठकों के साथ साझा करते हैं। वे कहते हैं कि ह्ल11 सितंबर 1935 ई को हमारा जहाज खुलने वाला था। हम अपने सामान के साथ 2:30 बजे बंदर पर पहुंचे। रूस में सभी काम योग्यता होने पर सभी के लिए खुले हुए हैं। बड़े से बड़े पद के लिए भी नहीं स्त्री पुरुष का ख्याल है, न एशियाई या यूरोपियन का ख्याल। कस्टम आॅफिसर एशियाई थे और फारसी जानते थे। उन्होंने बड़ी शिष्टतापूर्वक हमारा सामान देखा। रुपयों को भी गिन कर देख लिया। थोड़ी देर बाद हम अपने जहाज में पहुंचे। वे आगे कहते हैं कि पहले-पहल सोवियत के जहाज को देखने का मौका मिला। जहाज का नाम फोमिन था। वह दूसरे दर्जे के यात्री थे और बाकू से पहलवी तक उन्हें $19 (लगभग ?50) देना पड़ा। किराए में दो वक्त का भोजन भी शामिल था।ह्ण राहुल जी बताते हैं कि रूस की तरह ईरान में भी मिल की जगह किलोमीटर का इस्तेमाल होता है। कैस्पियन के किनारे वाला ईरान का यह प्रांत जिलान बहुत ही हरा भरा है। इसके हरे-भरे जंगल, बड़े-बड़े वृक्ष लहलहाते चावल के खेत बड़े सुंदर मालूम होते थे। ईरानी तो इसके प्राकृतिक सौंदर्य पर इतने मुग्ध हैं कि इसे हिंद कोचक यानी छोटा हिंदुस्तान नाम दे रखा है। इन्हीं बातों में इसकी उत्तर बिहार से समानता है। मकानों की छतें अधिकतर फूस की हैं। गांव में अभी कोट-पतलून धीरे-धीरे आ रहा है और उसी के अनुसार मेज-र्सी भी। इस प्रांत में पहुंचकर एक बार भारत याद आने लगा।

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