एबीएन डेस्क। कोविड-19 संक्रमण के नए मामलों में लगातार इजाफे ने आर्थिक स्थितियों में सुधार को लेकर खतरा बढ़ा दिया है। आशा तो यही है कि वायरस पर जल्दी नियंत्रण कर लिया जाएगा और यह आर्थिक गतिविधियों को अधिक प्रभावित नहीं करेगा। परंतु देश के नीति निमार्ताओं के लिए सिर्फ वायरस ही चुनौती नहीं है। घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजार में जो परिस्थितियां बन रही हैं वे नीतिगत क्षेत्र की जटिलताएं बढ़ा सकती हैं। उदाहरण के लिए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के ताजे मासिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि ऐसे बॉन्ड निवेशक सुधार की प्रक्रिया को क्षति पहुंचा सकते हैं जो मुद्रास्फीति बढ़ाने वाली मौद्रिक या राजकोषीय नीतियों की स्थिति में बॉन्ड बिकवाली करते हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि आरबीआई प्रतिफल में स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए प्रयासरत है लेकिन हालात नियंत्रित करने में दोनों पक्षों की भूमिका होती है। हालिया दिनों में बॉन्ड प्रतिफल में इजाफा हुआ है और मुद्रा की बढ़ी हुई लागत सुधार की प्रक्रिया को बाधित कर सकती है। परंतु आरबीआई का आकलन कुछ हद तक अतिरंजित लगता है। प्रतिफल के पीछे कुछ बुनियादी वजह हैं और केंद्रीय बैंक को आश्चर्यचकित होने की आवश्यकता नहीं है। सरकारी ऋण में भी काफी इजाफा हुआ है और वह निकट भविष्य में भी ऊंचे स्तर पर बना रह सकता है। मूल मुद्रास्फीति फरवरी में छह फीसदी के स्तर पर पहुंच गई और बढ़ती जिंस कीमतें शीर्ष दर को एक बार फिर बढ़ा सकती हैं। यह बात भी ध्यान देने लायक है कि भारत इकलौता बाजार नहीं है जहां उधारी लागत बढ़ रही है। 10 वर्ष के अमेरिकी सरकारी बॉन्ड पर प्रतिफल 2020 के निचले स्तर से 100 आधार अंक बढ़ चुका है। अमेरिका में उच्च प्रतिफल का असर वैश्विक वित्तीय तंत्र पर पड़ेगा। भारतीय बाजार भी इससे अछूते नहीं रहेंगे। ऐसी चिंताएं हैं कि अमेरिका में 1.9 लाख करोड़ डॉलर का अतिरिक्त प्रोत्साहन कीमतों में इजाफा कर सकता है। अर्थशास्त्री लॉरेंस समर्स ने हाल ही में द वॉशिंगटन पोस्ट में एक आलेख में लिखा...ऐसी संभावना है कि सामान्य मंदी की स्थिति के बजाय द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर के स्तर का वृहद आर्थिक प्रोत्साहन ऐसा मुद्रास्फीतिक दबाव बनाएगा जो पीढि?ों से नहीं देखा गया हो। परंतु अमेरिकी फेडरल रिजर्व फिलहाल चिंतित नहीं है। फेड के चेयरमैन जेरोम पॉवेल का मानना है कि कीमतों में इजाफा अस्थायी होगा। पॉवेल के चिंतित न होने की वजह है। वर्ष 2007-08 के वित्तीय संकट के बाद से ही मुद्रास्फीति अधिकांश समय 2 फीसदी के स्तर के नीचे बनी रही। इसके अलावा फेडरल रिजर्व कुछ समय के लिए उसे 2 फीसदी के दायरे से ऊपर जाने दे सकता है ताकि बीते वर्षों की कम कीमत की भरपाई हो सके। इससे वित्तीय बाजारों में अनिश्चितता बढ़ेगी। बाजारों को यह पता नहीं कि फेड किस समय क्या कदम उठाएगा। इसके अतिरिक्त प्रश्न यह भी है कि यदि मुद्रास्फीति फेड के अनुमान से बहुत अधिक ऊपर चली गई तो क्या होगा? विगत एक वर्ष में फेड की बैलेंस शीट करीब दोगुनी हो चुकी है और ऋण की लागत कम रखने के लिए वह निरंतर परिसंपत्तियां खरीद रहा है। चूंकि राजकोषीय हस्तक्षेप के आकार की तुलना दूसरे विश्वयुद्घ से की जा रही है इसलिए नतीजों पर ध्यान देना भी अहम है। फेडरल रिजर्व बैंक आॅफ सेंट लुइस ने गत वर्ष एक नोट में कहा था कि फेड ने सन 1942 में प्रतिफल को सीमित किया था ताकि उधारी लागत कम रखी जा सके। परंतु घाटे के लगातार बढ़ते रहने के कारण फेड ने सरकारी बॉन्ड एकत्रित करना जारी रखा। सन 1947 तक मुद्रास्फीति बढ़कर 17 फीसदी हो गई थी। आखिरकार सन 1951 में मुद्रास्फीति के 20 फीसदी का स्तर पार करने के बाद प्रतिफल को लक्षित करना बंद किया गया। यह जरूरी नहीं है कि मुद्रास्फीति उसी तरह बढ़ेगी। जापान में 2016 से प्रतिफल को निशाना बनाया जा रहा है लेकिन वहां कीमतें नहीं बढ़ीं। परंतु जापान जैसी मुद्रास्फीति अमेरिका और शेष विश्व के लिए अधिक दिक्कत खड़ी कर सकते हैं। हालात अनिश्चित हैं जिससे बॉन्ड बाजारों में अनिश्चितता बढ़ रही है। परंतु एक बात तय है कि अमेरिका पहले जताए अनुमानों की तुलना में तेज वृद्घि हासिल करेगा। इसका अलग प्रभाव होगा। मसलन अमेरिका में उच्च वृद्घि पूंजी आकर्षित करेगी और डॉलर को मजबूत करेगी। इससे शेष विश्व में हालात तंग हो सकते हैं। वृद्घि और वित्तीय स्थिरता को भी जोखिम उत्पन्न हो सकता है। जिन उभरते बाजारों ने अल्पावधि के डॉलर वाला कर्ज लिया है उन्हें भी दिक्कत हो सकती है। यकीनन भारत 2013 से बेहतर स्थिति में है। आरबीआई ने 2020 में अतिरिक्त विदेशी पूंजी की मदद से भंडार बनाकर बेहतर किया। इससे बाहरी मोर्चे पर अस्थिरता का प्रबंधन हो सकेगा। अमेरिका में बॉन्ड प्रतिफल का सामान्य होना भारत में पूंजी की आवक और ऋण लागत को भी प्रभावित करेगा। वृहद आर्थिक स्थिरता के क्षेत्र में भारत की स्थिति कमजोर कड़ी है। अमेरिका में उच्च वृद्घि जिंस कीमतों को प्रभावित कर सकती है और मुद्रास्फीति बढ़ा सकती है। ऐसे में आरबीआई को कई चुनौतियों का सामना करना होगा। उसे मुद्रा बाजार की अस्थिरता का प्रबंधन करना होगा, सरकार की बढ़ी उधारी और मुद्रास्फीति के दबावों से निपटना होगा तथा आर्थिक स्थिति बहाल करनी होगी। आने वाले महीनों में घरेलू और अंतररार्ष्ट्रीय आर्थिक हालात को देखते हुए विरोधाभासी हालात बन सकते हैं। अर्थशास्त्री रॉबर्ट शिलर द्वारा एकत्रित आंकड़ों के अनुसार 10 वर्ष का अमेरिकी बॉन्ड प्रतिफल सन 1871 से ही औसतन 4.5 फीसदी रहा है। हालांकि हाल के वर्षों में प्रतिफल अपेक्षाकृत कम रहा है क्योंकि मुद्रास्फीति कम रही लेकिन भारी राजकोषीय प्रोत्साहन, केंद्रीय बैंक की बैलेंस शीट में तेजी से विस्तार, मांग में इजाफा और बचत के कारण मजबूत पारिवारिक स्थिति से हालात बदल सकते हैं। ऐसे में वैश्विक वित्तीय बाजार में सही मायनों में तांडव देखने को मिल सकता है।
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