एबीएन डेस्क। हिमालय तीन प्रमुख भारतीय नदियों का स्रोत है- सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र। भारतीय संस्कृति की साक्षी गंगा अपने मूल्यवान पारिस्थितिकी, आर्थिक और सांस्कृतिक महत्त्व के साथ भारत की सबसे पवित्र नदियों में से एक है। लगभग ढाई हजार किलोमीटर की यात्रा करने वाली यह भारत की सबसे लंबी नदी है। गंगा नदी घाटी क्षेत्र देश की छब्बीस फीसद भूमि का हिस्सा है और भारत की तियालीस फीसद आबादी इससे पोषित होती है। भारत के कुल अनुमानित भूजल संसाधनों का लगभग चालीस फीसद गंगा बेसिन से आता है। शहरी, आर्थिक और औद्योगिक क्षेत्रों से मीठे पानी की लगातार बढ़ती मांग और संरचनात्मक नियंत्रण के कारण गंगा का पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित हो गया है। पारंपरिक नदी प्रबंधन में संरचनात्मक नियंत्रण का प्रभुत्व था, जिसके परिणामस्वरूप नदी कार्यों का स्तर कम होता गया। गंगा पुनर्जीवन और संरक्षण के चार संरचनात्मक स्तंभ हैं- अविरल धारा (निरंतर प्रवाह), निर्मल धारा (स्वच्छ जल), भूगर्भिक इकाई (भूवैज्ञानिक विशेषताओं का संरक्षण) और पारिस्थितिक इकाई (जलीय जैव विविधता का संरक्षण)। हमें यह जानना चाहिए कि चार पुनर्स्थापना स्तंभों को एकीकृत किए बिना हम गंगा की सफाई के सपने को साकार नहीं कर सकते। भारत में पानी राज्य का विषय है और जल प्रबंधन वास्तव में ज्ञान आधारित सोच और समझ पर नहीं टिका है। गंगा के प्रबंधन में ह्यबेसिन-व्यापक एकीकरणह्ण का अभाव है, साथ ही विभिन्न तटवर्ती राज्यों के बीच भी तालमेल की भारी कमी है। इसके अलावा, जल जीवन मिशन के तहत 2024 तक सभी निर्दिष्ट स्मार्ट शहरों में जलापूर्ति और अपशिष्ट जल उपचार के बुनियादी ढांचे को उन्नत करने और स्वच्छ जलापूर्ति सुनिश्चित करने की एक बड़ी चुनौती है। सीमित जल संसाधनों को देखते हुए यह कार्य बहुत बड़ा है। लगभग तीन दशकों तक गंगा को साफ करने के लिए अलग-अलग रणनीतियां अपनाई गईं। इनमें गंगा एक्शन प्लान (जीएपी, चरण एक और दो) और राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की स्थापना जैसे प्रयास थे, लेकिन लंबे समय तक इनके ठोस नतीजे नहीं मिले। दिसंबर 2019 में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में अपनी पहली बैठक में गंगा परिषद ने पांच राज्यों में गंगा बेसिन के दोनों ओर पांच किलोमीटर क्षेत्र में जैविक समूहों को बढ़ावा देकर गंगा के मैदानों में स्थायी कृषि को बढ़ावा देने की योजना पर काम किया। इस पर विचार करते हुए कि पिछले एक दशक में कीटनाशकों के संचयी उपयोग में दोगुनी वृद्धि हुई है और इसका अधिकांश भाग हमारी नदियों में बह गया है, यह एक अच्छी नीति है। सरकार को अंतत: बेसिन में अधिक क्षेत्र को शामिल करने के लिए इसे फैलाने की योजना बनानी चाहिए। नदी किनारे की कृषि संपूर्ण जैविक होनी चाहिए। यह तो स्पष्ट है कि गंगा को केवल प्रदूषण उन्मूलन उपायों द्वारा अविरल-निर्मल नहीं बनाया जा सकता। प्रभावी नीति-निर्माण के लिए वैज्ञानिक आधार चाहिए। कई रणनीतियों जैसे- नदियों को जोड़ने, नदियों के किनारों के विकास परियोजनाएं, गांवों को खुले में शौच मुक्त बनाने, ग्रामीण क्षेत्रों में पाइपलाइन से जलापूर्ति सुनिश्चित करने जैसे प्रयासों को दीर्घकालिक लक्ष्य बनाने की आवश्यकता है। नीतियों को समग्र जल प्रबंधन की प्रौद्योगिकी और व्यापक पहलुओं के अनुकूल होना चाहिए। महत्त्वपूर्ण समय और पैसा उन उपायों पर खर्च किया जा सकता है जिनकी प्रभावशीलता की गंभीरता से जांच नहीं की गई है। इसलिए अब तक किए गए सभी प्रबंधन कार्यक्रमों की समीक्षा करने और पिछली विफलताओं से सीखने की तत्काल आवश्यकता है। आज यदि गंगा को प्रदूषण मुक्त करना है, तो तकनीकी तौर पर हमें गंगा से जुडी समस्याओं को समझना होगा। इसके लिए एक दस-सूत्रीय दिशा निर्देश भी तैयार गया गया है। जिन जिन शहरों से गंगा गुजरती है, वहां का औद्योगिक अपशिष्ट और सीवर का पानी गंगा में गिरता है। इन शहरों में कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, पटना और कोलकाता हैं। इसके अलावा यमुना, गोमती, घाघरा, रामगंगा, सरयू आदि सहायक नदियों का भी अपशिष्ट गंगा में जाता है और इसके चलते व्यापक स्तर पर मानवीय जीवन के साथ-साथ जल जीवन भी संकट में है। गंगा को साफ रखने में यह सबसे बड़ी बाधा है। जाहिर है, गंगा को साफ रखना है तो इससे पहले शहरों, कस्बों की सीवर व्यवस्था को सुधारना होगा। इसके लिए बड़ी कॉलोनियों के स्तर पर केवल विकेंद्रीकृत सीवेज उपचार संयंत्रों (डीएसटीपी) को बढ़ावा देने की जरूरत है। सिंचाई के लिए और प्राकृतिक नालियों के लिए अपशिष्ट जल का पुन: उपयोग होना चाहिए। जिन शहरों को स्मार्ट शहर बनाने की योजना पर काम चल रहा है उनमें पहले ही से सीवेज उपचार संयंत्रों (एसटीपी) की स्थापना पर ध्यान देना होगा। मौजूदा और नियोजित एसटीपी को स्वतंत्र एजेंसियों द्वारा तकनीक-दक्षता, विश्वसनीयता और प्रौद्योगिकी मापदंडों पर दुरुस्त करने की आवश्यकता भी है। कई एसटीपी वांछित मानकों का पालन नहीं कर रहे हैं। सीपीसीबी ने अपने एक सर्वेक्षण में पाया था कि कानपुर में अधिकांश एसटीपी पर्यावरण नियमों का पालन करने में विफल रहे हैं। बाढ़ और सूखे दोनों के स्थायी समाधान के रूप में स्थानीय भंडारण के रूप में तालाबों और झीलों को विकसित और पुनर्स्थापित करने की जरूरत है। मानसून की वर्षा के दौरान प्राप्त पानी का केवल दस फीसद ही पुनर्भरण में जाता है। तालाबों और झीलों का संरक्षण नदी संरक्षण रणनीति का एक अभिन्न अंग होना चाहिए। नदियों में मिलने वाले सभी प्राकृतिक नालों को स्वस्थ जल निकायों में फिर से जीवंत करना होगा। समस्या यह है कि हमारे नगर निकायों ने प्राकृतिक नालों को मैला ढोने वाली नालियों में बदल डालने में बड़ी भूमिका निभाई है। नदियों में मिलने वाले सभी प्राकृतिक नाले आज सीवेज चैनल में बदल गए हैं। ऐसे नालों को फिर से स्वस्थ जल निकायों में बदलना होगा। गंगा बेसिन में निचले क्रम की धाराओं और छोटी सहायक नदियों को पुनर्जीवित करना सबसे जरूरी है। हर नदी महत्त्वपूर्ण है। गंगा एक्शन प्लान के दोनों चरणों और नमामि गंगे में ध्यान सिर्फ नदी की मुख्य धारा पर ही दिया गया, लेकिन नदी को जल देने वाली सहायक नदियों की अनदेखी कर दी गई। गंगा की आठ प्रमुख सहायक नदियां यमुना, सोन, रामगंगा, गोमती, घाघरा, गंडक, कोसी और दामोदर हैं। गंगा की मुख्य धारा और ऊपरी यमुना बेसिन पर प्रदूषण-उन्मूलन के उपायों पर काफी पैसा फूंका गया, जो गंगा बेसिन का सिर्फ बीस फीसद हिस्सा बैठता है। इसके अलावा ये आठ प्रमुख सहायक नदियां छोटी नदियों से भी जुड़ती हैं, जिनका संरक्षण भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। लेकिन छोटी नदियां उपेक्षित हैं, इसलिए उन्हें प्रदूषण से बचाने की योजनाएं भी नजरअंदाज हो जाती हैं। नदियों को बचाने के लिए ह्यनदी-गलियारोंह्ण को बिना सीमेंट-कंक्रीट संरचनाओं के क्षेत्रों के रूप में पहचान करने, परिभाषित करने और उनकी रक्षा करने की जरूरत है। प्रकृति के हजारों वर्षों के कार्यों के बाद नदियों का निर्माण हुआ है। क्षेत्र और शहरी विकास परियोजनाओं या स्मार्ट शहर के विकास के नाम पर नदी के पारिस्थितिकी तंत्र के बुनियादी ढांचे के विकास और विनाश को रोका जाना चाहिए, ताकि जल स्रोतों की रक्षा और संरक्षण किया जा सके। अब बात आती है नदी क्षेत्रों को अतिक्रमण से बचाने की। गंगा की सहायक नदियों की संपूर्ण लूप लंबाई और भूमि के रिकॉर्ड को दुरुस्त और अद्यतन करना होगा। कई नदियों की लंबाई को कम करके आंका गया है जो अतिक्रमण का कारण बनती हैं। नदी की लंबाई को मापने के लिए मौजूदा विधियां त्रुटिपूर्ण हैं और जल संसाधनों के सही मूल्यांकन और राजस्व नक्शे को सही करने के लिए पूरी और सही लंबाई मापना आवश्यक है। लंबाई और भूमि के रिकॉर्ड यह सुनिश्चित करेगा कि सक्रिय बाढ़ के मैदान और नदी-गलियारे अतिक्रमण से मुक्त हों।
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