साहित्य समाज का दर्पण है...

 

त्रिवेणी दास

एबीएन एडिटोरियल डेस्क। प्रसिद्ध कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। साहित्यकार हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी इस कथन को स्थापित किया था। समाज की छवि, आर्थिक शैक्षणिक स्थिति, संस्कृति, परंपरा एवं विरासत और विचारधारा को उसका साहित्य ही स्पष्ट करता है।

समाज की वास्तविकता का प्रतिबिंब तथा उसकी सामाजिक गतिविधि का लेखा-जोखा उसका अपना साहित्य ही होता है। तत्कालीन युग का साहित्य उस समय के समाज का विचारधारा, उसके संघर्ष एवं उन्नति का आलेख होता है।

रामायण महाभारत तथा विभिन्न धर्मो के ग्रंथ तत्कालीन युग के साहित्य के रूप में लोक-व्यवहार को प्रतिबिंबित करता है। सामाजिक जीवन-शैली की मर्यादा को रेखांकित करता है। सफलता एवं असफलता के कारणों की शिक्षा देता है।

लोक व्यवहार इतना महत्वपूर्ण है कि वही व्यक्तित्व के प्राथमिक परिचय का आधार बन जाता है। वाणी (बोलचाल) व्यवहार का प्रमुख घटक है। पूरे समाज का लोक व्यवहार उसके साहित्य से समझा जा सकता है।

जिस समाज के पास अपना साहित्य नहीं होता है अथवा साहित्य की रचना में अभिरुचि नहीं होती है वह समाज संसार की नजरों से ओझल हो जाता है तथा अपनी पहचान के संकट से जूझता रहता है।

समाज के पास उपलब्ध साहित्य मात्र पूजा की वस्तु नहीं होती है बल्कि इसका अध्ययन एवं लोक व्यवहार में उतारने की आवश्यकता है जिससे सब प्रकार के सफलता एवं संतुष्टि प्राप्त किया जा सके। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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