अब लाड़ली बहनों के हाथ में सत्ता की चाबी

 

क्षमा शर्मा

एबीएन एडिटोरियल डेस्क। टीवी चैनल पर महाराष्ट्र की एक महिला ने कहा कि सरकार की योजना से उसे जो पैसे मिले, उससे वह पहली बार साड़ी खरीद सकी। यह कितने अफसोस की बात है कि जब शादियों में दिखावे के रूप में पांच हजार करोड़ तक खर्च किये जा रहे हों, तब उसी प्रदेश में एक स्त्री इस बात के लिए धन्यवाद दे कि वह जीवन में पहली बार साड़ी खरीद सकी। जब पिछले दिनों मध्य प्रदेश के चुनाव में वहां के भूतपूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भारी बहुमत प्राप्त किया था, तो उन्होंने कहा था कि लाड़ली बहनों ने उन्हें जीत दिलायी है। सारा श्रेय उन्हीं को दिया जाना चाहिए। 

कल किसी ने जब कहा कि भारतीय जनता पार्टी रेवड़ियों का विरोध करती है और उसने महिलाओं को खूब रेवड़ियां बांटी तो एक अन्य दल की महिला नेत्री ने कहा कि इसे रेवड़ी नहीं, वुमेन एम्पावरमेंट कहते हैं। महाराष्ट्र कोई गरीब राज्य नहीं कि सरकार जरूरतमंद स्त्रियों की मदद नहीं कर सकती। स्त्री सशक्तीकरण में स्त्रियों के हाथ में पैसे हों, उनकी क्रय शक्ति बढ़े, वे अपनी जरूरतें पूरी कर सकें, इसकी बड़ी भूमिका मानी जाती है। इसके अलावा स्त्री विमर्श कहता है कि स्त्रियों के नाम अक्सर चल-अचल सम्पत्ति नहीं होती। 

इसलिए वे हमेशा अपने परिवार के पुरुषों के भरोसे रहती हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों में केंद्र सरकार ने स्त्रियों के नाम से ही पक्के घर दिए हैं। उन्हीं के नाम अगर जमीन की रजिस्ट्री हो तो स्टाम्प ड्यूटी में दो प्रतिशत की छूट मिलती है। इससे पहली बार भारत में स्त्रियों के अपने घर हो सके हैं। अक्सर स्त्रियों को हिंसा झेलते हुए, सबसे पहले घर से निकाला जाता है। अब जब घर उनके ही नाम पर है, जमीन उनकी है, तो किसकी हिम्मत है कि उन्हें घर से निकाल सके।

महाराष्ट्र में इस बार पंद्रह चुनाव क्षेत्रों में महिलाओं ने पुरुषों से भी अधिक वोट दिए। 65.22 प्रतिशत महिलाओं ने वोट दिया। कुछ स्थानों पर रजिस्टर्ड महिला मतदाताओं की संख्या भी पुरुषों से ज्यादा थी। कुल 30.64 मिलियन वोटर्स में कुल महिला वोटर्स की संख्या 46.99 है। महिला मतदाताओं के बड़ी संख्या में बाहर आने के बारे में बताया जा रहा है कि इसका बड़ा कारण लाड़की (लड़की) बहणी योजना को है। जिसमें महिलाओं को पंद्रह सौ रुपये प्रतिमाह दिए गए और सरकार बनने पर इक्कीस सौ रुपये देने का वादा किया गया। 

चुनाव में जीत के बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शिंदे ने भी लाड़ली बहनों का धन्यवाद किया। महाराष्ट्र में स्त्रियों की शिक्षा के लिए आर्थिक मदद का भी प्रावधान किया गया था। इसी तरह झारखंड में भी हेमंत सोरेन सरकार की वापसी का श्रेय, उनकी स्त्री संबंधी योजनाओं को दिया जा रहा है। जिसमें प्रमुख थीं—स्कूल जाने वाली लड़कियों को साइकिल मुफ्त देना, एकल मां को आर्थिक सहायता प्रदान करना, बेरोजगार स्त्रियों को मासिक भत्ता, मइया योजना के अंतर्गत गरीब स्त्रियों को साल में बारह हजार रुपये की मदद। 

इससे गरीब परिवारों और स्त्रियों के जीवन में कुछ खुशहाली आई। आदिवासी इलाकों में इसे विशेष रूप से महसूस किया गया। चूंकि स्त्रियों के खाते में पैसे सीधे भेजे जाते हैं, इसलिए उसका लाभ भी सीधे उन्हें ही मिलता है। इससे उनका परिवार भी लाभान्वित होता है। ऐसी योजनाएं अकेली बेसहारा माताओं, विधवाओं, स्कूल जाती लड़कियों को विशेष लाभ पहुंचाती हैं। याद होगा कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने यहां की स्कूल जाने वाली लड़कियों को साइकिलें दी थीं। सिर्फ एक साइकिल की सहायता से स्कूल जाने वाली लड़कियों में भारी बढ़ोतरी दर्ज की गई थी। 

चूंकि वे समूह में स्कूल जाती थीं, इसलिए उनकी सुरक्षा को लेकर भी माता-पिता की चिंता में कमी आई थी और स्कूल जाने वाली लड़कियों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई थी। उनका ड्रॉप आउट रेट भी कम हुआ था। और परिणामस्वरूप इन लड़कियों के माता-पिता ने अगली बार नीतीश कुमार को बहुमत से विजयी बनाया था। झारखंड में हेमंत सोरेन ने नीतीश कुमार से सीखा और महाराष्ट्र में शिवराज सिंह चौहान से सीखा गया। हेमंत की जीत में उनकी पत्नी कल्पना सोरेन की भी बड़ी भूमिका है। हेमंत सोरेन को जब जेल भेजा गया, तो उनकी पत्नी कल्पना ने मोर्चा संभाला। उन्हें स्त्रियों की खूब सहानुभूति भी मिली।

इसके अलावा केंद्र सरकार ने भी स्त्रियों के लिए कई योजनाएं चला रखी हैं। जैसे कि नमो ड्रोन दीदी स्कीम-इसमें ग्रामीण महिलाओं को कृषि कार्यों के लिए ड्रोन पायलट्स की ट्रेनिंग दी जाती है। जिससे कि वे आधुनिक तकनीकों से खेती कर सकें। इसके लिए उन्हें आर्थिक मदद भी दी जाती है। उड़ीसा में चलायी जा रही सुभद्रा योजना। जिसके अंतर्गत पांच सालों में गरीब महिलाओं को पचास हजार रुपये रक्षाबंधन और अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर दिये जाते हैं। महिला सम्मान पेंशन योजना- जिसमें विधवाओं और बूढ़ी महिलाओं को मदद दी जाती है। जिससे कि वे सम्मानपूर्वक जीवनयापन कर सकें।

अल्पसंख्यक महिलाओं को बिना किसी ब्याज के पचास हजार रुपये की मदद दी जाती है। इसमें से बस पच्चीस हजार रुपये उन्हें वापस देने पड़ते हैं। इसका लाभ तलाकशुदा और अठारह साल से पचपन साल की अविवाहित महिलाएं उठा सकती हैं। इसी प्रकार दिल्ली, बिहार, राजस्थान, कर्नाटक में भी महिलाओं को लाभ पहुंचाने वाली बहुत-सी योजनाएं हैं। देखने की बात यह है कि औरतों को लाभ पहुंचाने वाली योजनाएं, नेताओं को विधानसभाओं और लोकसभा में पहुंचा रही हैं। यह स्त्रियों की ताकत है, जिसे वे वोट के जरिए दिखा रही हैं। वे जानती हैं कि उनके जीवन के लिए ऐसी योजनाएं कितनी जरूरी हैं। लोकतंत्र में महिलाएं गेम चेंजर की भूमिका निभा रही हैं।

इस हिसाब से अगर अमेरिका के चुनाव पर नजर डालें तो वहां बड़ी संख्या में महिलाएं ट्रंप के खिलाफ थीं क्योंकि ट्रंप को गर्भपात का विरोधी माना जाता है। मगर वे चाहकर भी ट्रंप को हरा नहीं सकीं। अपने यहां महिलाएं आगे बढ़कर वोट दे रही हैं। यही नहीं, ऐसी खबरें भी आती रहती हैं कि वे अपने घर के आदमियों की बात भी नहीं मानतीं। वे वहां वोट देती हैं जो उनके जीवन में परिवर्तन ला सके। इनमें ग्रामीण महिलाएं बड़ी संख्या में होती हैं। अब वह समय चला गया है जब चुनाव विश्लेषक कहते थे कि औरतें वोट देने ही नहीं आतीं। 

इसमें सरकारों द्वारा चलाये गये उन अभियानों का भी हाथ है जो स्त्रियों से कहते थे चूल्ह-चौका बाद में पहले वोट। क्योंकि एक बार महिला घर के काम में लग जाती हैं तो गये रात तक उन्हें दम मारने की फुर्सत नहीं होती। इसलिए पहले वोट फिर कुछ और। पिछले कुछ दशकों से भारत में राजनीतिक दलों ने महिलाओं की इस ताकत को पहचाना है। इसलिए वे अपने-अपने मेनिफेस्टो में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर विशेष ध्यान देते हैं। तरह-तरह के वादे करते हैं। और सिर्फ वादे ही नहीं जीतने के बाद उन्हें कुछ हद तक पूरे भी करते हैं। (लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)

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