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Published / 2024-11-16 21:03:15
गायत्री परिवार के कार्यक्रम में शामिल हुए पांच प्रांत के साधक-शिष्य

  • युगतीर्थ शांतिकुञ्ज प्रशिक्षण में वैश्विक ज्योति कलश रथ यात्रा कार्यशाला में पांच प्रांत से साधक-शिष्य गण शामिल हुए

टीम एबीएन, रांची। अखिल विश्व गायत्री परिवार शान्तिकुञ्ज मुख्यालय में 5 प्रांत बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र, गोवा सिलीगुड़ी जोन के साधक-शिष्य गणों और नैष्ठिक, कर्मठ कार्यकर्ताओं की त्रिदिवस प्रशिक्षण सत्र की  कार्यशाला में भागीदारी शानदार सैकड़ों की संख्या में हुई है। 

कार्यक्रम का स्वरुप दिनांक 15.11.2024 से  आगमन एवं पंजीयन से शुभारंभ हुआ।  आज श्रद्धेया जीजी एवं श्रद्धेय डॉ साहब से भेंट परामर्श (कलश पूजन एवं निर्देशन) में दिन भर में  सुबह से सायंकालीन कई कार्यक्रम आयोजन चल रहे हैं। 

आज के कार्यक्रम में संगीत एवं उद्बोधन, विषय रहा अखंड ज्योति गुरुसत्ता का जन्म दिवस, जीवन्त वृतांत, साक्षात् स्वरुप एवं अखंड ज्योति की दिव्य ज्योति और  उनकी भावनाओं की परिणति पर वक्ता थे योगेन्द्र गिरि, संचालन- ओइन्द्र सिंह का रहा। यह कार्यक्रम तीन दिवसीय है, आज द्वितीय दिवस है। आज दिव्य ज्योति कलश की बहुत ही विशिष्ट रूप से विधिवत पूजा-पाठ हुए।

कल सुबह  भी प्रशिक्षण कार्यशाला में कई  विषयों पर कार्यक्रम और संबोधन व प्रवचन एवं मार्गदर्शन होंगे। झारखंड से  सभी जिला से  साधक-शिष्यों व कार्यकर्ताओं की अच्छी भागीदारी रही। उक्त जानकारी गायत्री परिवार रांची के वरिष्ठ साधक सह प्रचार-प्रसार प्रमुख जय नारायण प्रसाद ने दी।

Published / 2024-11-14 19:00:19
हजारीबाग : जिले का प्रमुख धार्मिक पर्यटन केंद्र नृसिंह स्थान मंदिर सज-धज कर तैयार

विधि विधान के साथ भगवान श्री हरि को जगाने के बाद

भगवान के दर्शन को लेकर श्रद्धालुओं की उमड़ेगी भीड़

15 नवंबर को कल लगेगा कार्तिक पूर्णिमा का महामेला

टीम एबीएन, हजारीबाग। स्थानीय लोगों में एक कहावत है हजारीबाग की तीन पहचान झील, पंचमंदिर और नृसिंह स्थान। उत्तरी छोटानागपुर प्रमंडलीय मुख्यालय हजारीबाग से छह किलोमीटर दूर बड़कागांव रोड में कटकमदाग प्रखंड अंर्तगत श्री नृसिंह स्थान मंदिर जिले का प्रमुख धार्मिक पर्यटन केंद्र है। यह प्राचीन धरोहर को लगभग चार सौ वर्ष के इतिहास को संजोये हुए है। 

यह यह मुगलकाल अकबर के राज्य से लेकर ब्रिटिश शासन और वर्तमान लोकतंत्र का साक्षी भी रहा है। यहां भगवान विष्णु के अवतार नृसिंह की  पांच फीट की प्राचीन प्रतिमा है। जो काले रंग के ग्रेफाइट पत्थर की बनी है। वर्तमान में इसका मूल्य करोड़ों में बताया जाता है।

मान्यता है कि यहां गर्भ गृह में भगवान विष्णु के साथ शिव साक्षात विराजमान है। यहां स्थापित शिवलिंग जमीन से तीन फीट नीचे है। गर्भ गृह में शिव के साथ विष्णु भगवान के विराजमान रहने का का अद्भुत संयोग है। जो वैष्णव और शिव भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करता है। इसके अलावा भगवान सूर्य देव, नारद, शिव पार्वती और नवग्रह के प्रतिमा दर्शनीय  है। 

गर्भ ग्रह के बाहर हनुमान जी की प्रतिमा है। यहां सालों पर दर्शन पूजन करने श्रद्धालु आते हैं। गुरुवार और पूर्णिमा के दिन पूजा का अपना एक अलग महत्व है। कार्तिक और माघ महीने में भक्तों की भीड़ यहां बढ़ जाती है। यहां मुंडन, जनेउ, शादी विवाह व अन्य धार्मिक का आयोजन किए जाते हैं। शहर एवं आसपास लोक नया वाहन खरीदने पर यहां पूजा करने पहुंचते हैं। 

यह कार्तिक पूर्णिमा के दिन नृसिंह मेला लगता है। जो झारखंड में प्रसिद्ध है। मंदिर से कुछ दूरी पर मां सिद्धेश्वरी का मंदिर है जिसे नकटी महामाया मंदिर भी कहते हैं। यह सिद्ध पीठ है। मंदिर परिसर में भगवान विष्णु के दशा अवतार के मंदिर हैं। जिसमे मत्स्य, कुर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण बुद्ध और कल्कि अवतार के मंदिर शामिल है। इसके अलावा यहां काली मंदिर और लक्ष्मी नारायण का भी मंदिर है।

जानें क्या है इतिहास

श्री नृसिंह मंदिर का इतिहास काफी पुराना है। इसकी स्थापना 1632 ईस्वी में पंडित दामोदर मिश्र ने की थी। जो रामायण के रचनाकार संत तुलसीदास के समकालीन थे। वह संस्कृत और ज्योतिष के विद्वान के होने के साथ-साथ तांत्रिक भी थे। संस्कृत में उन्होंने कई रचनाए लिखी है। वह दुर्लभ पांडुलिपि आज देखरेख के अभाव में खत्म होने के कगार पर हैं। उनके वंशजों का कहना है कि वह औरंगाबाद सीरीश कुटुंबा के रहने वाले थे। 

उन्होंने बनारस मे शिक्षा दीक्षा लेने के बाद गंगा नदी के किनारे सिद्धेश्वरी घाट पर भगवान विष्णु के उग्र रूप नृसिंह की आराधना कर सिद्धि प्राप्त की थी। उसके बाद वह अपनी माता लवंगा के साथ हजारीबाग खपरियांवा पहुंचे। यहां उन्हें स्वप्न देखा कि भगवान विष्णु उनसे कह रहे हैं कि वह नेपाल के भूसुंडी पहाड़ी में है। यहां उनकी प्रतिमा स्थापित है। जिसे स्वप्न में लाने का उन्हें आदेश प्राप्त हुआ। 

इसके बाद वह अपने सहयोगियों के साथ पद यात्रा कर नेपाल पहुंचे। फिर वहां के भूसुंडी पहाड़ी में खुदाई शुरू की। जैसे ही खुदाई शुरू की। पहले खून की धारा बहने लगी। जिससें वह डर गए और भयभीत होकर उन्होंने खुदाई को रोक दिया। फिर रोते हूए भगवान से प्रार्थना करने लगे। उसी रात स्वप्न में भगवान विष्णु ने खुदाई करने का पुन: आदेश दिया। दूसरे दिन जब उन्होंने खुदाई शुरू किया तो भगवान नृसिंह के साथ-साथ मंदिर परिसर में स्थापित अन्य प्रतिमाएं निकली।

उसके बाद सभी प्रतिमा को लेकर खपरियावां पहुंचे। यहां पहले इमली पेड़ के पास स्थापित किया। उसके बाद वर्तमान में जहां मंदिर है। वहां अभी प्रतिमाओं को ले जाकर स्थापित किया। मंदिर के चारों ओर आम व जामुन  के वृक्ष लगायें। जिसे आज भी लोग जमुनिया बागी कहते है। उन्होंने तालाब का भी निर्माण कराया। कहा जाता है कि उस समय यह क्षेत्र राजा रामगढ़ का राज्य था। उनके राज दरबार में एक ब्राह्मण था। वह काफी विद्वान और जानकार था। राज दरबार के कई मंत्री उनसे जलते थे। 

उन्होंने राजा को कुछ गलत बातें बता दी। कहा जाता है कि जिसके बाद राजा ने उन्हें मौत की सजा सुना दी। मौत के बाद वह ब्राह्मण प्रेत बन गया। और राजमहल में उपद्रव करने लगा। राज परिवार प्रेत बाधा से परेशान हो उठा। तब उन्हें किसी ने सलाह दी कि वह पंडित दामोदर मिश्र से संपर्क करें। दामोदर मिश्र जब प्रेत बाधा दूर करने पहुंचे और मंत्रोच्चार करने लगे तो वह प्रेत प्रकट हो गया। उसने बताया कि वह निर्दोष है। 

उसे राजा ने उसे गलत सजा दी है। वह राजा को मार डालेगा। लेकिन दामोदर मिश्र के तंत्र विद्या के सामने वह प्रेत नहीं ठहरा। लेकिन जाते-जाते उसने यह श्राप दे दिया कि  वह राजा को छोड़ देगा। लेकिन उनके तंत्र विद्या के कारण उसे न्याय नहीं मिल पा रहा है इसलिए उसने श्राप दे दिया कि उन्होंने जो रचनाएं की है। जो धरोहर स्थापित किया है। आने वाले समय में वह नष्ट हो जायेगा। 

उसके बाद राजा की प्रेत बाधा दूर हो गयी। राजा ने पंडित दामोदर मिश्र को 22 गांव की जमींदारी सौंप दी। उस समय से यहां पूजा अर्चना की जा रही है। खपरियांवा पंचायत के बन्हा टोला निवासी लंबोदर पाठक मुखिया बनने के बाद जिला परिषद के सदस्य बने। फिर बरकट्ठा क्षेत्र से विधायक बने। वह बहुत बड़े ठेकेदार थे। भारद्वाज कंस्ट्रक्शन कंपनी की स्थापना की। धर्म कर्म में उन्हें बहुत रुचि थी। वह अपनी तरक्की के पीछे भगवान नृसिंह का आशीर्वाद मानते थे। देवघर में उन्होंने पाठक धर्मशाला का निर्माण कराया था। 

उसके बाद उन्होंने प्राचीन मंदिर का पुर्ननिर्माण करने की योजना बनायी। इसके लिए संकल्प लिया। ऐसी मान्यता है भगवान नृसिंह से मन्नत मांगने के बाद जब फूल गिर जाता है तो उसे भगवान का आशीर्वाद मांगा जाता है। लंबोदर पाठक ने धार्मिक अनुष्ठान के साथ भगवान नृसिंह से आशीर्वाद भी प्राप्त किया। उसके बाद मंदिर के चारों ओर खुदाई शुरू कर दी। इसी दौरान साल 1988 में एकीकृत बिहार के समय जब भूकंप आया। पूरा मंदिर प्राचीन मंदिर धर्मशाला वह अन्य ऐतिहासिक धरोहर जमीजोद हो गया। लेकिन भगवान नृसिंह की प्रतिमा व अन्य विग्रह सुरक्षित रहे। 

इसके बाद मंदिर का पुनर्निर्माण शुरू हुआ। वर्ष 1995 में वर्तमान मंदिर तैयार हुआ आने के  ऐसी मान्यता है कि यहां जलाया गया अखंड दीप और मंदिर की परिक्रमा कभी व्यर्थ नहीं जाती है। दर्शन पूजन के साथ मनवांछित फलों की कामना के लिए श्रद्धालुओं का आना-जाना बना रहता है। जिले के अलावा दूसरे राज्य के लोग शादी विवाह और मन्नत को लेकर बाबा के दरबार में पहुंचते हैं। नृसिंह स्थान को पर्यटन केंद्र बनाने के लिए सरकार प्रयासरत है। लेकिन सरकारी जमीन नहीं रहने के कारण पर्यटन केंद्र नहीं बन पा रहा है। पर्यटन केंद्र बनाने की दिशा में सिर्फ विवाह मंडप का निर्माण कार्य किया गया है। स्थानीय लोग बताते हैं कि यहां धर्मशाला और विवाह घर बनाने की जरूरत है।

Published / 2024-11-12 21:11:06
खाटू श्री श्याम प्रभु का जन्म उत्सव एक पवित्र परंपरा : संजय सर्राफ

टीम एबीएन, रांची। रांची जिला मारवाड़ी सम्मेलन के संयुक्त महामंत्री सह प्रवक्ता संजय सर्राफ ने कहा है कि खाटू श्याम प्रभु का जन्म उत्सव हर कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि के दिन मनाया जाता है। इस दिन देवउठनी एकादशी का भी व्रत रखा जाता है। खाटू श्याम जी का जन्म दिवस 12 नवंबर को बड़े ही उत्साह एवं हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। 

यह दिन भगवान श्रीकृष्ण के अवतार श्री श्याम प्रभु के जन्म की याद में मनाया जाता है, जो अपने भक्तों को मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग दिखाते हैं। पौराणिक कथा के अनुसार, श्री श्याम प्रभु का जन्म भगवान श्रीकृष्ण के अवतार के रूप में हुआ था। भगवान श्रीकृष्ण ने श्री श्याम प्रभु के रूप में अवतार लिया था और उन्होंने अपने भक्तों को मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग दिखाया।

खाटू श्री श्याम जी को कलयुग का देव माना जाता है इनका हारे का सहारा कहा जाता है ऐसा माना जाता है कि जो भी व्यक्ति हार कर इनके दर पर जाता है बाबा उसको जीत दिलाते हैं खाटू श्याम जी का जन्मदिन हर साल कार्तिक महीने की शुक्ल पक्ष की ग्यारस यानी एकादशी तिथि को दिन मनाया जाता है। हालांकि कुछ लोग बाबा का जन्मदिन फाल्गुन मास ग्यारस तिथि मनाते हैं। 

खाटू वाले बाबा का जन्म दिन खाटू श्याम मंदिर राजस्थान के अलावे पूरे देश में बहुत ही उत्साह और धूमधाम के साथ मनाया जाता है बाबा के भक्तों को बाबा के जन्मदिन का पूरा साल इंतजार रहता है। श्री श्याम प्रभु की कथा के अनुसार, श्री श्याम प्रभु का जन्म एक गरीब ब्राह्मण के घर में हुआ था। उनके माता-पिता ने उन्हें भगवान श्रीकृष्ण के अवतार के रूप में पहचाना और उन्हें भगवान के रूप में पूजा की। 

श्री श्याम प्रभु ने अपने जीवन में कई चमत्कार किए और अपने भक्तों को मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग दिखाया। उन्होंने अपने भक्तों को सिखाया कि भगवान की भक्ति करना और उनकी आराधना करना ही जीवन का सच्चा उद्देश्य है। खाटू श्याम प्रभु का जन्म उत्सव बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन भगवान श्री श्याम प्रभु की पूजा की जाती है और उन्हें फूल, फल और मिष्ठान्न अर्पित किए जाते हैं। 

भगवान श्री श्याम प्रभु की आरती की जाती है और उनकी कथा सुनी जाती है। खाटू श्याम प्रभु के जन्म उत्सव का महत्व बहुत अधिक है। यह दिन भगवान श्रीकृष्ण के अवतार श्री श्याम प्रभु के जन्म की याद में मनाया जाता है और इस दिन की पूजा और आराधना से भगवान श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त होती है और जीवन में सुख और समृद्धि आती है। खाटू श्याम प्रभु का जन्म उत्सव एक पवित्र परंपरा है।

Published / 2024-11-11 20:55:20
देवउठनी एकादशी से सभी प्रकार के मांगलिक कार्य होंगे प्रारंभ

तुलसी विवाह कराने पर सभी प्रकार के कष्टों से मिलती है मुक्ति : संजय सर्राफ

टीम एबीएन, रांची। विश्व हिंदू परिषद सेवा विभाग व राष्ट्रीय सनातन एकता मंच के प्रांतीय प्रवक्ता संजय सर्राफ ने कहा है कि हर वर्ष कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी, जिसे देवउठनी, देवोत्थान और देवप्रबोधिनी के नाम से जाना जाता है। उदयव्यापनी एकादशी 12 नवंबर को होने से देवउठनी एकादशी इसी दिन मनायी जाती है। इस दिन तुलसी विवाह का आयोजन किया जाता है। 

12 नवंबर को तुलसी विवाह का शुभ मुहूर्त प्रदोष काल में शाम 5 बजकर 29 मिनट से लेकर शाम 7 बजकर 53 मिनट तक रहेगा। हिंदू धर्म के अनुसार सृष्टि के पालनहार श्रीहरि भगवान विष्णु देवउठनी एकादशी पर चार महीने की अपनी योगनिद्रा से जागते हैं। भगवान विष्णु के जागने पर इस दिन तुलसी विवाह किया जाता है। भगवान विष्णु के शालिग्राम स्वरूप संग तुलसी विवाह विधि-विधान के साथ किया जाता है। 

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार देवउठनी एकादशी पर तुलसी विवाह करना बहुत ही शुभ और मंगलकारी माना जाता है। देवउठनी एकादशी पर सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु के शालिग्राम स्वरूप के साथ तुलसी जी का विवाह कराने पर सभी तरह के कष्टों से मुक्ति मिलती और भगवान विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त होता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार देवउठनी एकादशी पर भगवान शालिग्राम संग तुलसी विवाह का बहुत ही विशेष महत्व होता है। 

चार महीने की योगनिद्रा के बाद जब प्रभु जागते हैं तो उस दिन सभी देवी-देवता मिलकर भगवान विष्णु की पूजा करते हैं। भगवान विष्णु के जागने पर चार महीने से रुके हुए सभी तरह के मांगलिक कार्य फिर से शुरू हो जाते हैं। इस दिन भगवान शालिग्राम संग तुलसी विवाह किया जाता है। ऐसा करने पर वैवाहिक जीवन में आ रही बाधाएं खत्म होती है और जिन लोगों के विवाह में रुकावटें आती हैं वह भी दूरी हो जाती है। 

शास्त्रों के अनुसार तुलसी-शालिग्राम का विवाह करने पर कन्यादान के बराबर का पुण्य लाभ मिलता है। अगर किसी के विवाह में तरह-तरह की अड़चनें आती हैं या फिर विवाह बार-बार टूटता है तो इस दिन तुलसी विवाह का आयोजन शुभ माना गया है। कार्तिक माह की देवउठनी एकादशी पर भगवान विष्णु के रूप शालिग्राम और विष्णुप्रिया तुलसी का विवाह संपन्न किया जाता है। 

इस दिन महिलाएं रीति-रिवाज से तुलसी वृक्ष से शालिग्राम के फेरे एक सुंदर मंडप के नीचे किए जाते हैं। विवाह में कई गीत, भजन व तुलसी नामाष्टक सहित विष्णुसहस्त्रनाम् के पाठ किये जाने का विधान है। धार्मिक मान्यता है कि निद्रा से जागने के बाद भगवान विष्णु सबसे पहले तुलसी की पुकार सुनते हैं इस कारण लोग इस दिन तुलसी का भी पूजन करते हैं और मनोकामना मांगते हैं। 

इसीलिए तुलसी विवाह को देव जागरण के पवित्र मुहूर्त के स्वागत का आयोजन माना जाता है। महिलाएं व्रत रखती है तथा पूरे विधि विधान के साथ पूजा अर्चना करती है। तुलसी-शालिग्राम विवाह कराने से पुण्य की प्राप्ति होती है,दांपत्य जीवन में प्रेम बना रहता है।

Published / 2024-11-10 20:58:35
251 कुंडीय विराट गायत्री महायज्ञ द्वारका दिल्ली में 5 दिवसीय अनुष्ठान का भूमिपूजन

टीम एबीएन, रांची। अखिल विश्व गायत्री परिवार शांतिकुंज हरिद्वार के तत्वावधान में आयोजित होने वाले  251 कुंडीय विराट गायत्री महायज्ञ द्वारका दिल्ली में 5 दिवसीय अनुष्ठान की भूमिपूजन आज रविवार को हुआ। अखिल विश्व गायत्री परिवार शांतिकुंज हरिद्वार के तत्वावधान में नई दिल्ली द्वारिका एरिया में पांच दिवसीय 251 कुंडीय विराट गायत्री महायज्ञ द्वारका सेक्टर 7 दादादेव मंदिर पास मेला ग्राउंड में होगा। 

इस अनुष्ठान कार्यक्रम का भूमिपूजन रविवार को हुआ। यह विराट अनुष्ठान कार्यक्रम 20 नवम्बर से 24 नवम्बर 2024 तक होना है। बताया गया कि इस महायज्ञ में भाग लेने हेतु सभी यज्ञकर्ता परिजन, सभी कार्यकर्ता, सदस्य, अपना परिवार सहित सभी आगंतुकों में प्रत्येक परिजन के लिए आॅनलाइन रजिस्ट्रेशन अनिवार्य किया गया है। इसके लिए क्यूआरकोड की भी व्यवस्था की गयी है। 

इस भूमिपूजन कार्यक्रम में झारखंड प्रान्त रांची व कुछ अन्य जिला के भी सदस्य गण शामिल पाए गये। परम वंदनीया गुरुमाता जी की जन्म शताब्दी वर्ष सह अखंड दीप शताब्दी वर्ष की विश्व स्तरीय और झारखंड के लिए दिव्य कलश रथ भ्रमण यात्रा संबंधित विशेष शांतिकुञ्ज प्रशिक्षण सत्र में भागीदार करने वाले दिल्ली पधारे रांची के परिजन इस महायज्ञ में अपनी भागीदारी में समयदान करके पुण्यलाभ की अभिलाषा व्यक्त किए। 

भूमिपूजन कार्यक्रम 5 कुंडीय संक्षिप्त यज्ञ सहित हुआ। मंच से शांतिकुंज के  महाप्रबंधक महोदय ने जनसमूह को संबोधित कर पूज्य गुरुदेव युग-ऋषि वेदमूर्ति-तपोनिष्ठ पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य के जीवन वृतांत, व्यक्तिव की खूबियों, युग निर्माण संबंधित विराट योजना तथा इसके 18 विशिष्ट सूत्रों के सत्संकल्प पाठ पर ध्यान आकर्षित कर इसकी विशिष्ट महत्ता और आवश्यकता पर तथा भारतीय संस्कृति और अध्यात्म दर्शन पर संक्षिप्त प्रकाश डाला। इसमें करीब पांच से छ: सौ कार्यकर्ताओं ने भागीदारी करके सफल बनाया। उक्त जानकारी गायत्री परिवार रांची के वरिष्ठ साधक सह प्रचार-प्रसार प्रमुख जय नारायण प्रसाद ने दी।

Published / 2024-11-10 20:56:49
हर्षोल्लास के साथ मनाया गया आंवला नवमी

एबीएन सोशल डेस्क। आज कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को आंवला नवमी पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। आंवला नवमी में महिलाएं उपवास रखते हुए अपने-अपने घरों में तथा आंवला के पेड़ की पूजा पूरे विधि विधान के साथ की। यह पर्व आंवले के पेड़ की पूजा के लिए मनाया जाता है, जो स्वास्थ्य और समृद्धि का प्रतीक है। 

आंवले के पेड़ की पूजा से भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है, इस दिन आंवले के पेड़ के नीचे भोजन करने से स्वास्थ्य और समृद्धि मिलती है। आंवला नवमी पर्व हमें स्वास्थ्य और समृद्धि की दिशा में आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करता है। 

इस पर्व को मनाने से हमें भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है और हमारे जीवन में सुख और समृद्धि आती है। बताते चलें कि तिरुपति अपार्टमेंट कांके रोड में एक सनातनी अनुराधा सर्राफ ने पारंपरिक तरीके से आंवला नवमी की पूजा की।

Published / 2024-11-09 19:12:04
आंवला नवमी स्वास्थ्य और समृद्धि का पर्व : संजय सर्राफ

टीम एबीएन, रांची। विश्व हिंदू परिषद सेवा विभाग एवं राष्ट्रीय सनातन एकता मंच के प्रांतीय प्रवक्ता संजय सर्राफ ने कहा है कि कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि के दिन मनाया जाने वाला आंवला नवमी पर्व हिंदू धर्म में बहुत महत्व रखता है। यह पर्व आंवले के पेड़ की पूजा के लिए मनाया जाता है, जो स्वास्थ्य और समृद्धि का प्रतीक है। 

हिंदू पंचांग के अनुसार अक्षय नवमी का आरंभ 9 नवंबर की रात को 10 बजकर 45 मिनट पर होगा और अगले दिन 10 नवंबर को रात 9 बजकर 1 मिनट पर इसका समापन होगा। इसलिए उदया तिथि की मान्यता के अनुसार अक्षय नवमी 10 नवंबर की रात को मनायी जायेगी। पौराणिक कथा के अनुसार, आंवले के पेड़ की उत्पत्ति भगवान विष्णु के शरीर से हुई थी। 

जब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया, तो उन्होंने राजा बलि से तीन पग भूमि मांगी। राजा बलि ने भगवान विष्णु को तीन पग भूमि देने का वचन दिया, लेकिन भगवान विष्णु ने तीन पग में ही समस्त भूमि को माप लिया और राजा बलि को पाताल लोक में भेज दिया। राजा बलि की पत्नी विंध्यावली ने भगवान विष्णु से अपने पति की मुक्ति के लिए प्रार्थना की। 

भगवान विष्णु ने उन्हें वरदान दिया कि आंवले के पेड़ की पूजा से राजा बलि की मुक्ति होगी। आंवला नवमी में महिलाएं आंवला पेड़ की पूजा पूरे विधि विधान के साथ करती है। आंवले के पेड़ की पूजा से भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है, इस दिन आंवले के पेड़ के नीचे भोजन करने से स्वास्थ्य और समृद्धि मिलती है। आंवला नवमी पर्व हमें स्वास्थ्य और समृद्धि की दिशा में आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करता है। इस पर्व को मनाने से हमें भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है और हमारे जीवन में सुख और समृद्धि आती है।

Published / 2024-11-03 21:38:47
चार दिवसीय लोक आस्था का महापर्व छठ 5 नवंबर से

छठ पर्व मे सूर्य, जल और वायु तीनों तत्वों की होती है पूजा : संजय सर्राफ

टीम एबीएन, रांची। विश्व हिंदू परिषद सेवा विभाग एवं राष्ट्रीय सनातन एकता मंच के प्रांतीय प्रवक्ता संजय सर्राफ ने कहा है कि लोक आस्था का महापर्व छठ का चार दिवसीय अनुष्ठान 5 नवंबर दिन मंगलवार को कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से नहाए खाय के साथ शुरू हो रहा है। 6 नवंबर को खरना मे छठ व्रती पूरे दिन का उपवास कर शाम में भगवान भास्कर की पूजा कर प्रसाद ग्रहण करेगी तथा 7 नवंबर गुरुवार की शाम डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया जायेगा। 

छठ महापर्व के चतुर्थ दिवसीय अनुष्ठान के अंतिम दिन शुक्रवार 8 नवंबर को उगते सूर्य को अर्घ्य देकर आयु आरोग्यता, यश, संपदा का आशीर्वाद लिया जायेगा। छठ पूजा एक ऐसा महापर्व है जो अपने आप में विश्वास, श्रद्धा और प्रकृति के प्रति आभार का प्रतीक है। यह पर्व मुख्य रूप से बिहार झारखंड एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश मे धूमधाम से मनाया जाता है। 

छठ पूजा सूर्य देव और छठी मैया को समर्पित है सूर्य देव को जीवन दाता माना जाता है और छठी मैया को संतान की देवी, इस पर्व मे सूर्य, जल और वायु तीनों तत्वों की पूजा की जाती है। छठ पूजा करने से स्वास्थ्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है। छठ पूजा के दौरान सभी लोग मिलजुल कर पूजा करते हैं जिससे सामाजिक एकता बढ़ती है। 

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार पहली बार त्रेता युग में माता सीता ने छठ का व्रत किया था तो वही भगवान श्री राम ने सूर्य देव की आराधना की थी इसके अलावा द्वापर युग में दानवीर कर्ण और द्रौपदी ने भगवान सूर्य की पूजा और उपासना की थी। तब से ही छठ का त्यौहार बड़े ही श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। एक और मान्यता है कि प्रियंवद ने सबसे पहले छठ माता की पूजा की थी। 36 घंटे निर्जला व्रत रखने वाले जातकों के जीवन से सभी प्रकार से दुख कष्ट दूर हो जाते हैं। 

हिंदू धर्म में छठ पूजा में छठ मैया और सूर्य देवता की पूरे विधि विधान से पूजा की जाती है। दीपावली के 6 दिन बाद छठ पर्व मनाया जाता है। छठ पूजा 4 दिनों तक चलता है जिसमें शुरूआत होती है नहाए खाय और खरना से, फिर डूबते और उगते सूर्य देव को अर्घ्य दिया जाता है। 

इसमें व्रती महिलाएं 36 घंटे तक निर्जला व्रत रखते हुए पूरी निष्ठा एवं पवित्रता के साथ फल, मिष्ठान, नारियल, पान, सुपारी, माला, फूल अरिपन से डाला सजाकर छठ घाट नदी, तालाबों में कमर तक जल में डूब कर सूर्य देवता को अर्घ्य देकर उनकी पूजा करती है। सूर्य को अर्घ्य देने से मानसिक शांति, उन्नति व प्रगति होती है तथा छठ मैया की पूजा करने से व्रती को आरोग्यता, सुख- समृद्धि, संतान सुख का आशीर्वाद प्राप्त होता है।

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