एबीएन नॉलेज डेस्क। भारत के अपने अंतरिक्ष मिशन गगनयान की तैयारी का 80 प्रतिशत काम पूरा हो गया है और इस साल के अंत तक पहला मानव रहित मिशन लॉन्च किया जायेगा जबकि साल 2027 के आरंभ में अंतरिक्ष यात्रियों को भेजा जायेगा।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अध्यक्ष वी. नारायणन ने गुरुवार को यहां एक संवाददाता सम्मेलन के दौरान बताया कि गगनयान मिशन की तैयारी का काम जोरशोर से चल रहा है। व्हीकल हेल्थ मैनेजमेंट सिस्टम, क्रू इस्केप सिस्टम और पैराशूट का विकास आदि समेत 80 प्रतिशत तैयारी पूरी कर ली गयी है। शेष 20 प्रतिशत काम भी मार्च 2026 तक पूरे कर लिये जायेंगे।
एबीएन नॉलेज डेस्क। एक दिन 24 घंटे का होता है। लेकिन साइंस की एक ऐसी स्टडी सामने आयी है जो बताती है कि 60 करोड़ साल पहले एक दिन 21 घंटे का होता था। पृथ्वी का रोटेशन धीमा हो रहा है जिससे दिन की लंबाई औसतन प्रति शताब्दी लगभग 1.8 मिलीसेकंड बढ़ जाती है। इसी वजह से 60 करोड़ साल पहले 21 घंटे का एक दिन होता था।
साइंस में हर दिन नए खुलासे होते हैं। हाल ही में एक ऐसा खुलासा हुआ है जिसको जानकर आप भी चौंक जायेंगे। पूरे दिन में कितने घंटे होते हैं। इस सवाल का आप बड़ी ही आसानी से जवाब दे सकते हैं। 24 घंटे, लेकिन अगर मैं यह कहूं कि 60 करोड़ साल पहले एक दिन 24 नहीं बल्कि 21 घंटे का होता था।
मेरी बात सुनकर आप शायद विश्वास न करें। लेकिन, चलिए आपको साइंस की ऐसी स्टडी बताते हैं जिससे मेरी बात को समझनने और इस पर विश्वास करने में आपको आसानी होगी। एक दिन में 24 घंटे होते हैं यानी 86,400 सेकंड।
एक दिन के 24 घंटे यह वो समय होता है, जितने समय में पृथ्वी को एक बार घूमने में समय लगता है। हालांकि, पृथ्वी बिल्कुल समान रूप से नहीं घूमती है। आमतौर पर, धीरे-धीरे पृथ्वी का रोटेशन धीमा हो रहा है जिससे दिन की लंबाई औसतन प्रति शताब्दी लगभग 1.8 मिलीसेकंड बढ़ जाती है। इसका मतलब यह है कि 60 करोड़ साल पहले एक दिन सिर्फ 21 घंटे का होता था।
दिन की लंबाई में जो समय के साथ यह बदलाव आया है यह कई चीजों की वजह से आया है। जिसमें चांद और सूरज के ज्वारीय प्रभाव, पृथ्वी के अंदर कोर-मेंटल युग्मन और ग्रह पर मास का वितरण शामिल है। इसी के साथ भूकंप यानी भूकंप की गतिविधि, ग्लेशियर, मौसम, महासागर और पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र भी दिन की लंबाई पर असर डालता है।
साल 2020 में वैज्ञानिकों ने एक चौंकाने वाली खोज की थी। उन्होंने पाया था कि पृथ्वी धीमी होने के बजाय तेजी से घूमने लगी है। यह अब पिछले 50 वर्षों में किसी भी समय की तुलना में अधिक तेजी से घूम रही है। जहां एक समय में सामने आता था कि पृथ्वी का रोटेशन धीमा हो रहा है। वहीं, स्टडी में अब सामने आ रहा है कि यह बढ़ रहा है।
अभी तक, वैज्ञानिक पूरी तरह से निश्चित नहीं हैं कि पृथ्वी की रोटेशन दर में जो यह तेजी आ रही है इसके पीछे की वजह क्या है। लेकिन कुछ ने सुझाव दिया है कि यह 20 वीं शताब्दी के दौरान ग्लेशियरों के पिघलने या नॉर्थ हेमिस्फीयर के ग्लेशियर में बड़ी मात्रा में पानी के इकट्ठा होने के कारण हो सकता है।
हालांकि, विशेषज्ञों का अनुमान है कि यह पृथ्वी की रोटेशन में जो यह तेजी आई है या अस्थायी है, यह कुछ ही समय के लिए है। भविष्य में एक बार फिर पृथ्वी धीमी होने लगेगी। लेकिन, अब सवाल उठता है कि क्या अभी के लिए, क्या हमें चिंतित होना चाहिए?
हालांकि, इसका हमारे रोजाना के जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, लेकिन जीपीएस उपग्रह, स्मार्टफोन, कंप्यूटर और संचार नेटवर्क जैसी टेक्नॉलोजी पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है, जो सभी बेहद सटीक समय सिस्टम पर निर्भर हैं। लेकिन ऐसी समस्याओं पर काबू पाया जा सकता है। तो नहीं, हमें चिंतित नहीं होना चाहिए झ्र जब तक कि दिन का छोटा होना मानव गतिविधि के कारण न हो।
एबीएन नॉलेज डेस्क। अब शरीर की गंध सिर्फ पसीना या साफ-सफाई का संकेत नहीं, बल्कि स्वास्थ्य की सूचक भी बन सकती है। ताजा वैज्ञानिक शोधों में यह सामने आया है कि शरीर से निकलने वाली गंध से कई गंभीर बीमारियों जैसे पार्किंसन, मलेरिया, कैंसर और अन्य का पता लगाया जा सकता है। आइये जानते हैं इस नए वैज्ञानिक खुलासे के बारे में...
यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर के वैज्ञानिकों ने पार्किंसन रोग के मरीजों की त्वचा से निकलने वाले विशेष कंपाउंड्स का पता लगाया है। उन्होंने sebum के नमूनों का विश्लेषण कर 30 ऐसे volatile organic compounds (VOCs) खोजे, जो केवल पार्किंसन के मरीजों में पाए गए। इनमें eicosane और octadecanal शामिल हैं।
इससे अब मात्र 3 मिनट में skin swab टेस्ट से पार्किंसन की बीमारी का पता चल सकता है। प्रोफेसर पेर्डिटा बैरन के अनुसार, यह खोज बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि पहली बार किसी बीमारी को उसकी गंध से इतनी सटीकता से पहचाना गया है।
2018 में केन्या में हुई एक रिसर्च में पाया गया कि मलेरिया संक्रमित बच्चों के पैर से निकलने वाली गंध में heptanal, octanal और nonanal जैसे aldehydes की अधिकता होती है। यह गंध मच्छरों को आकर्षित करती है, जिससे मलेरिया का प्रसार तेज होता है।
कुत्ते कैंसर जैसी बीमारियों की गंध पहचानने में माहिर होते हैं। MIT के वैज्ञानिक एंड्रियास मर्सिन की टीम ने RealNose.ai नाम से एक आर्टिफिशियल नाक विकसित की है, जो इंसानी गंध को पहचानने के लिए मशीन लर्निंग और इंसानी olfactory receptors का उपयोग करती है। इसका उद्देश्य कुत्तों से भी बेहतर और तेज़ गंध पहचानना है ताकि बीमारी का पता जल्द लगाया जा सके।
इन शोधों से पता चलता है कि भविष्य में बिना ब्लड टेस्ट या बायोप्सी के, केवल शरीर की गंध से ही बीमारियों का पता लगाया जा सकेगा। यह एक नया डायग्नोसिस का तरीका बन सकता है, जो मरीजों के लिए सरल और जल्दी परिणाम देगा।
एबीएन नॉलेज डेस्क। माइक्रोसॉफ्ट ने एक अमेरिकी स्टार्टअप के साथ 12 साल के लिए 1.7 अरब डॉलर का समझौता किया है। यह समझौता न केवल उसके एआई और क्लाउड सेवाओं के बुनियादी ढांचे को बढ़ाने के लिए है, बल्कि उसके जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने में मदद के लिए भी है। वॉल्टेड डीप के साथ इस समझौते के तहत, यह तकनीकी दिग्गज मानव अपशिष्ट, गोबर और अन्य जैविक उपोत्पाद, जिन्हें सामूहिक रूप से बायोस्लरी कहा जाता है, खरीदेगा और उन्हें लगभग 5,000 फीट जमीन के नीचे इंजेक्ट करेगा।
इसके साथ, इसकी योजना पृथ्वी से 4.9 मिलियन मीट्रिक टन कार्बन डाइआॅक्साइड हटाने की है। यह सौदा माइक्रोसॉफ्ट द्वारा अपने एआई डेटा सेंटर संचालन के विस्तार के तुरंत बाद हुआ है, जिससे उसका कार्बन फुटप्रिंट बढ़ रहा है - 2020 और 2024 के बीच लगभग 23-30%।
कंपनी ने एआई इंफ्रास्ट्रक्चर से लगभग 75.5 मिलियन मीट्रिक टन कार्बन डाइआॅक्साइड समतुल्य उत्सर्जित किया। वॉल स्ट्रीट जर्नल की एक रिपोर्ट के अनुसार, कार्बन निष्कासन की औसत लागत लगभग 350 डॉलर प्रति टन होने के कारण, यह सौदा कचरे को कार्बन भंडारण में बदलने की दिशा में अब तक के सबसे महत्वपूर्ण निवेशों में से एक है।
ये उत्सर्जन न केवल प्रत्यक्ष ऊर्जा उपयोग से, बल्कि बड़े पैमाने पर हार्डवेयर, निर्माण सामग्री (स्टील, कंक्रीट) के उत्पादन और आपूर्ति श्रृंखलाओं जैसे अप्रत्यक्ष स्रोतों से भी आते हैं, जिन्हें स्कोप 3 उत्सर्जन कहा जाता है। इसके बावजूद, कंपनी 2030 तक कार्बन-नकारात्मक बनने की योजना बना रही है।
रिपोर्टों के अनुसार, बायोस्लरी को जमीन के नीचे रखने से प्राकृतिक अपघटन को रोका जा सकेगा, जिससे मीथेन जैसी शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैसें वायुमंडल में उत्सर्जित होंगी। ग्लोबल वार्मिंग के संदर्भ में, मीथेन को उड2 से कम से कम चार गुना ज्यादा हानिकारक माना जाता है।
इस समझौते का उद्देश्य अन्य पर्यावरणीय जोखिमों को भी कम करना है, जिसमें बायोसॉलिड्स के निपटान के पारंपरिक तरीके, जैसे कि उन्हें खेतों में फैलाना, भी शामिल है। यह तरीका न केवल जल प्रदूषण के लिए जिÞम्मेदार है, बल्कि पीएफएएस जैसे पदार्थों से होने वाले रासायनिक संदूषण के लिए भी जिम्मेदार है। वॉल्टेड डीप की सीईओ जूलिया रीचेलस्टीन ने इंक के साथ एक साक्षात्कार में कहा, हम सतह-स्तर की समस्या को जमीन के नीचे स्थायी रूप से बंद करके हल कर रहे हैं।
इतना ही नहीं, माइक्रोसॉफ्ट ने 2050 तक अपने सभी ऐतिहासिक उत्सर्जनों को हटाने की भी प्रतिबद्धता जतायी है। इसके लिए, कंपनी ने पहले ही 83 मिलियन टन से अधिक मूल्य के कार्बन रिमूवल क्रेडिट खरीद लिये हैं, जिनमें से 59 मिलियन तो सिर्फ इसी वर्ष खरीदे गये हैं।
माइक्रोसॉफ्ट के ऊर्जा एवं कार्बन निष्कासन के वरिष्ठ निदेशक, ब्रायन मार्स ने वॉल्टेड डीप के समाधान को स्केलेबल, कम जोखिम वाला और वास्तव में स्थायी बताया। यह समझौता अब तक का दूसरा सबसे बड़ा कार्बन निष्कासन समझौता है, जो माइक्रोसॉफ्ट द्वारा एटमोसक्लियर को 15 वर्षों में 6.75 मिलियन टन कार्बन उत्सर्जन के लिए 2.36 बिलियन डॉलर की प्रतिबद्धता के बाद दूसरा सबसे बड़ा समझौता है।
एबीएन सेंट्रल डेस्क। भारत और अमेरिका की पहली अंतरिक्ष साझेदारी की शुरुआत बुधवार को हुई, जब भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने निसार नाम का उपग्रह सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में भेजा। इस उपग्रह को इसरो और अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने मिलकर बनाया है। इसे इसरो के जीएसएलवी एफ-16 रॉकेट के जरिए शाम 5:40 बजे श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से लॉन्च किया गया।
लॉन्च के करीब 19 मिनट बाद रॉकेट ने निसार को सूरज के साथ घूमने वाली खास कक्षा (सूर्य समकालिक ध्रुवीय कक्षा) में सफलतापूर्वक स्थापित कर दिया। निसार एक अवलोकन उपग्रह है, जो धरती पर होने वाले भूकंप, भूस्खलन, बर्फबारी और जंगलों में बदलाव जैसी चीजों की निगरानी करेगा। इस मिशन को भारत और अमेरिका के बीच तकनीकी सहयोग की एक मिसाल माना जा रहा है।
इससे पहले 18 मई को इसरो का पीएसएलवी-सी61 मिशन असफल रहा था, जिसमें पृथ्वी पर नजर रखने वाला एक उपग्रह तय कक्षा तक नहीं पहुंच पाया था। हालांकि, इसरो इससे पहले रिसोर्ससैट और रीसैट जैसे कई उपग्रह सफलतापूर्वक लॉन्च कर चुका है, जो खासतौर पर भारत की जरूरतों के लिए बनाए गए थे। लेकिन निसार मिशन के जरिए इसरो ने अब पूरी धरती पर नजर रखने और वैज्ञानिक जानकारी जुटाने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है।
करीब 27 घंटे के काउंटडाउन के बाद 51.7 मीटर ऊंचा जीएसएलवी एफ-16 रॉकेट बुधवार शाम 5:40 बजे सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र, श्रीहरिकोटा से लॉन्च किया गया। इस रॉकेट में 2,393 किलो वजन वाला निसार उपग्रह मौजूद था। रॉकेट से उपग्रह के अलग होने के बाद वैज्ञानिकों ने इसे पूरी तरह सक्रिय करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है, जो अगले कुछ दिनों तक चलेगी। इस प्रक्रिया के बाद उपग्रह अपने मिशन के उद्देश्य पूरे करने के लिए तैयार हो जायेगा।
इसरो ने जानकारी दी कि निसार मिशन के लिए एस-बैंड रडार सिस्टम, डेटा हैंडलिंग सिस्टम, हाई-स्पीड डाउनलिंक सिस्टम, सैटेलाइट और लॉन्च सिस्टम को भारत ने विकसित किया है। वहीं अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने एल-बैंड रडार सिस्टम, हाई-स्पीड डेटा रिकॉर्डर, जीपीएस रिसीवर, 9 मीटर लंबा बूम और 12 मीटर का रडार रिफ्लेक्टर इस मिशन के लिए मुहैया कराया है। इसरो इस उपग्रह के संचालन और निर्देशन की जिम्मेदारी निभाएगा, जबकि नासा कक्षा में उपग्रह को चलाने और रडार संचालन की योजना बताएगा।
दोनों एजेंसियां ग्राउंड स्टेशन के जरिए प्राप्त डाटा को डाउनलोड करेंगी और उसे प्रोसेस कर उपयोगकर्ताओं तक पहुंचायेंगी। एक ही मंच से प्राप्त एस-बैंड और एल-बैंड के रडार डाटा की मदद से वैज्ञानिक पृथ्वी में हो रहे बदलावों को बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। इसरो के अनुसार, निसार मिशन का मुख्य उद्देश्य जमीन और बर्फ की सतह में बदलाव, जमीन के पारिस्थितिकी तंत्र और समुद्री क्षेत्रों का अध्ययन करना है। यह मिशन जंगलों की संरचना, फसल क्षेत्र में बदलाव, आर्द्रभूमि (वेटलैंड्स) की सीमा और जैविक सामग्री की मात्रा का आकलन करने में मदद करेगा। निसार मिशन की अवधि पांच साल होगी।
नासा ने कहा कि निसार मिशन से प्राप्त डाटा प्राकृतिक और मानवीय कारणों से होने वाले खतरों की भविष्यवाणी करने में मदद करेगा और सरकारों को निर्णय लेने के लिए पर्याप्त समय दे सकेगा। यह उपग्रह धरती की जमीन और बर्फ की सतह का त्रि-आयामी (थ्रीडी) दृश्य प्रदान करेगा और बादलों व हल्की बारिश के बावजूद दिन-रात डाटा भेजने में सक्षम होगा। इससे भूकंप और भूस्खलन संभावित क्षेत्रों की लगातार निगरानी की जा सकेगी और ग्लेशियरों में हो रहे बदलावों का भी आकलन किया जा सकेगा।
यह उपग्रह अंटार्कटिका का भी अभूतपूर्व डाटा देगा, जिससे यह समझने में मदद मिलेगी कि वहां की बर्फ की चादरें समय के साथ कैसे बदल रही हैं। निसार अब तक का सबसे उन्नत रडार सिस्टम है जिसे नासा और इसरो ने मिलकर लॉन्च किया है और यह हर दिन पहले के किसी भी पृथ्वी उपग्रह की तुलना में अधिक डाटा जनरेट करेगा।
इस मिशन से दोनों देशों को वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र की निगरानी में मदद मिलेगी। एल-बैंड रडार जंगलों की गहराई तक पहुंचकर उनकी संरचना की जानकारी देगा, जबकि एस-बैंड रडार फसलों की निगरानी करेगा। निसार से प्राप्त डाटा से शोधकर्ता यह जान पाएंगे कि जंगल, वेटलैंड और कृषि क्षेत्र समय के साथ कैसे बदल रहे हैं।
एबीएन नॉलेज डेस्क। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) ने अब तक कई महत्वाकांक्षी और सफल अंतरिक्ष मिशन लॉन्च किए हैं जिन्होंने भारत की वैज्ञानिक प्रगति को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया है।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि इसरो का अब तक का सबसे महंगा मिशन कौन सा है? आज 30 जुलाई 2025 को इसरो ने अपने सबसे महंगे मिशन NISAR (नासा-इसरो सिंथेटिक अपर्चर रडार) को श्रीहरिकोटा से GSLV-F16 रॉकेट के जरिए सफलतापूर्वक लॉन्च कर दिया है।
NISAR मिशन NASA और ISRO का एक संयुक्त प्रोजेक्ट है जिसकी अनुमानित लागत करीब 1.5 बिलियन डॉलर है जो भारतीय रुपये में लगभग 12,500 करोड़ रुपये बैठती है। यह सिर्फ इसरो का ही नहीं बल्कि दुनिया का सबसे महंगा अर्थ-इमेजिंग सैटेलाइट मिशन है। इस प्रोजेक्ट में इसरो की हिस्सेदारी करीब 788 करोड़ रुपये की है।
पृथ्वी की बदलती सतह पर रखेगा नज़र
NISAR सैटेलाइट की खासियतें इसे बेहद खास बनाती हैं:
भूकंप और ज्वालामुखी की गतिविधियां।
भूस्खलन और ग्लेशियरों की हलचल।
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की निगरानी।
NISAR की लागत इसरो के अन्य प्रमुख मिशनों की तुलना में कई गुना ज़्यादा है:
NISAR की इतनी ज़्यादा लागत की मुख्य वजह इसकी अत्याधुनिक तकनीक और नासा के साथ अंतरराष्ट्रीय सहयोग है जो इसे एक अभूतपूर्व और भविष्योन्मुखी परियोजना बनाता है। यह सैटेलाइट पृथ्वी विज्ञान के क्षेत्र में एक क्रांति ला सकता है और हमें अपने ग्रह को समझने में अभूतपूर्व मदद करेगा।
एबीएन नॉलेज डेस्क। 15 जुलाई 2025 दोपहर 3 बजे भारतीय समयानुसार, भारतीय अंतरिक्ष यात्री ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला ने अपनी 18 दिन लंबी अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आइएसएस) यात्रा पूरी करके धरती पर कदम रखा। यह उनकी पहली अंतरिक्ष यात्रा थी जो एक्सिओम मिशन 4 (एएक्स-4) का हिस्सा थी। शुभांशु स्पेसएक्स के ग्रेस यान में बैठकर कैलिफोर्निया तट के पास प्रशांत महासागर में सुरक्षित उतर गये। यह लैंडिंग भारत के अंतरिक्ष इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय साबित होगी।
शुभांशु शुक्ला 25 जून 2025 को फाल्कन 9 रॉकेट से अंतरिक्ष के लिए रवाना हुए थे। अगले दिन आइएसएस से जुड़कर उन्होंने वहां लगभग 18 दिन बिताये। इस दौरान उन्होंने 60 से ज्यादा वैज्ञानिक प्रयोग किये, जिनमें मांसपेशियों की कमजोरी, मानसिक स्वास्थ्य पर अंतरिक्ष के प्रभाव और अंतरिक्ष में फसल उगाने जैसे महत्वपूर्ण विषय शामिल थे। इन प्रयोगों से मानव जीवन को बेहतर समझने और भविष्य में लंबे अंतरिक्ष अभियानों के लिए मदद मिलेगी।
14 जुलाई की शाम 4:45 बजे (भारतीय समयानुसार) ग्रेस यान ने आइएसएस से अलग होकर पृथ्वी की ओर प्रस्थान किया। लौटने के लिए यान ने डीआर्बिट बर्न प्रक्रिया अपनाई, यानी कक्षा से बाहर निकलने के लिए इंजन जलाए और गति कम की। यह प्रक्रिया आवश्यक थी ताकि यान सही स्थान पर सुरक्षित लैंडिंग कर सके। यान वायुमंडल में 27,000 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से घुसा। इस दौरान उसकी हीट शील्ड ने तापमान 1600 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने से बचाया।
घर्षण की वजह से यान के आस-पास प्लाज्मा की एक गर्म परत बन गयी, जिससे कुछ देर के लिए संचार बाधित हो गया। यह प्रक्रिया हर अंतरिक्ष मिशन की सामान्य और जरूरी कड़ी होती है। वायुमंडल से बाहर आते ही यान के पैराशूट खुल गये और उसकी गति धीमी हुई। 15 जुलाई को दोपहर 3 बजे ग्रेस यान प्रशांत महासागर में सुरक्षित रूप से उतर गया।
लैंडिंग के दौरान जोरदार सोनिक बूम सुनाई दिया जो इसकी उच्च गति का प्रमाण था। तुरंत रिकवरी टीम नौकाओं और हेलीकॉप्टरों के साथ पहुंची और शुभांशु समेत पूरा एएक्स-4 दल सुरक्षित निकाला गया। इस दल में कमांडर पैगी व्हिटसन, स्लावोश उजनांस्की-विस्निव्स्की और टिबोर कपु भी शामिल थे।
एबीएन नॉलेज डेस्क। वर्जीनिया क्लास जैसी आधुनिक पनडुब्बियाँ महीनों तक छुपी रह सकती हैं, और इसका राज है इनकी उन्नत स्टील्थ तकनीक (एडवांस्ड स्टील्थ टेक्नोलॉजी)।
इनकी बाहरी सतह पर एनेकोइक टाइल्स (अनेचोइस टाइल्स) लगी होती हैं — ये खास तरह की रबर की परतें होती हैं जो सोना (Sonar) तरंगों को सोख लेती हैं, उन्हें वापस नहीं लौटातीं। इससे दुश्मन के लिए पनडुब्बी को पकड़ पाना बेहद मुश्किल हो जाता है।
इन पनडुब्बियों में बेहद शांत प्रोपेलर (साइलेंट प्रॉपल्लेर्स) और शोर कम करने वाली मशीनें (साउंड-डेडनिंग सिस्टम) होती हैं, जो इनकी आवाज़ को न्यूनतम बना देती हैं। नतीजा — ये पानी के नीचे लगभग पूरी तरह चुपचाप चल सकती हैं।
अगर दुश्मन का सोनार इन्हें पकड़ने के करीब आ जाए, तो ये पनडुब्बियाँ 200 मीटर या उससे भी गहराई तक गोता लगा सकती हैं। वहाँ समुद्र में तापमान, दबाव और नमक की परतें इतनी जटिल होती हैं कि ध्वनि तरंगें मुड़ जाती हैं, बिखर जाती हैं — जिससे पनडुब्बी का पता लगाना और भी कठिन हो जाता है। यही कारण है कि ये समुद्र के साए महीनों तक छुपे रह सकते हैं — बिना किसी को पता चले।
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