एबीएन एडिटोरियल डेस्क। योग की आड़ में देश में धंधा पनप गया है। महानगरों से लेकर कस्बों-गांवों में भी इंस्टीट्यूट, प्रशिक्षण केंद्र, योग टीचर्स की फौज तैयार हो गई है। योग पर किसी का पेटेंट नहीं होना चाहिए और न ही कोई इसकी किसी को ठेकेदारी करनी चाहिए। योग शरीर को चंगा रखने का मजबूत हथियार है और सदैव रहेगा। देखकर दुख होता है जब योग का शारीरिक जरूरतों से कहीं ज्यादा मौजूदा समय में उसका व्यावसायिक, धार्मिक और सियासत में इस्तेमाल होता है।
योग को मात्र स्वस्थ काया तक ही सीमित रखना चाहिए। उसकी आड़ में राजनीतिक जरूरतें पूरी नहीं करनी चाहिए। योग गुरु कहलाकर समूचे संसार में प्रसिद्धि पा चुके बाबा रामदेव ने निश्चित रूप से योग का प्रचार जबरदस्त तरीके से किया। इस दरम्यान उन्होंने बड़ा व्यवसाय भी स्थापित किया। बाजार में हजारों प्रोड्क्ट्स उतारकर उनकी कंपनी का टर्नओवर लाखों-करोड़ों में नहीं, बल्कि अरबों में पहुंच गया है।
विवादों के इतर देखें तो बाबा रामदेव की कोशिशों की बदौलत ही योग को वैश्विक मान्यता मिली। केंद्र सरकार ने भी प्रचार-प्रसार में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। उसके बदले सरकार ने भी उनका फायदा चुनाव में जमकर उठाया। इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इससे योग विज्ञान का कुछ समय बीतने के बाद नुकसान हुआ।
योग सत्ता पक्ष और विपक्ष में बंटकर भाजपा और कांग्रेस हो गया। जब पहला योग दिवस मना, तो कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दलों ने आयोजन का वॉकआउट किया। यहां तक उन्होंने और उनके कार्यकतार्ओं ने भी योग नहीं किया। लेकिन भाजपा ने हर्षोल्लास से मनाया। दरअसल, उनके मनाने का कारण क्या था, सभी को पता था। ठीक है, अगर विपक्षी दलों को बाबा रामदेव से कोई आपत्ति या ना-खुशी है, तो उनको योग को विरोध की केटेगरी में नहीं रखना चाहिए।
बहरहाल, कोई कहे बेशक कुछ न, पर सियासत ने योग को धर्म से छोड़ने की भी कोशिशें की। योगासनों में भी धर्मों की एबीसीडी खोजी जाती है। दूसरा, सबसे दु:खद पहलू योग के साथ ये जुड़ा, योग का व्यावसायीकरण कर दिया गया। कइयों की दुकानें योग की आड़ में चल पड़ी हैं। बड़े-बड़े प्रतिष्ठान, कॉलेज, स्कूल, प्रशिक्षण केंद्र संचालित हो गए हैं, जहां योग सिखाने के नाम पर मोटा माल काटा जा रहा है।
योग गुरुओं, एक्सपर्ट्स व प्रशिक्षकों की तो फौज ही खड़ी हो गई है। बड़े-बड़े नेताओं ने अपने लिए पर्मानेंट योग प्रशिक्षक हायर किये हुए हैं। कुल मिलाकर योग को लोगों ने अब पूरी तरह से स्टेटस सिंबल बना डाला है। यानी मध्यम वर्ग और गरीबों की पहुंच से बहुत दूर कर दिया गया है। योग विधा नयी नहीं है। पांच हजार पूर्व ऋषि परंपराओं से मिली अनमोल धरोहर जैसी है। ज्यादा पुराने समय की बात न करें, सिर्फ आजादी तक का इतिहास खंगाले तो पता चलता है कि उस वक्त तक भी चिकित्सा विज्ञान ने उतनी सफलता नहीं पायी थी, जिससे अचानक उत्पन्न होने वाली बीमारियों से तुरंत इलाज कराया जाये।
उस वक्त भी जड़ी-बूटियों और नियमित योगासन पर ही समूचा संसार निर्भर हुआ करता था। अंग्रेजी दवाओं का विस्तार कोई चालीस-पचास के दशक से जोर पकड़ा है। तब मात्र एकाध ही फार्मा कंपनियां हुआ करती थी, जो अंग्रेजी दवाइयों का निर्माण करती थीं। विस्तार अस्सी के दशक के बाद आरंभ हुआ। आज तीन से चार हजार के करीब फार्मा कंपनियां अंग्रेजी दवा बनाने में लगी हैं। बावजूद इसके योग का बोलबाला दिनों दिन बढ़ रहा है।
जानकार बताते हैं कि अंग्रेजी दवाएं तुरंत असर तो करती हैं पर, शरीर की प्रतिरोधक क्षमता हिला देती हैं। शायद, इस सच्चाई से आम लोग अनभिज्ञ होते हैं कि बड़ी-बड़ी फार्मा कंपनियों के मालिक भी नियमित योगासन करते हैं। क्योंकि उनको योग के फायदे पता होते हैं। योग को एक नहीं, बल्कि हजारों बड़ी और गंभीर बीमारियों से लड़ने का हथियार माना गया है।
वक्त फिर से पलटा है, इसलिए लोग धीर-धीरे पुरानी दवा पद्धितियों की ओर लौटने लगे हैं। सालों पुरानी हेल्थ प्रॉब्लम से छुटकारा पाने के लिए मरीज योग की मदद लेने लगे हैं। अनुभवी डॉक्टर्स भी अपने पेशेंट को डेली रूटीन में योग शामिल करने की सलाह देते हैं। योग चिकित्सक मंगेश त्रिवेदी की माने तो ऐसे कई केस सामने आए हैं, जिसमें 15-20 साल पुरानी बीमारी को खत्म करने के लिए लोगों ने पहले योग की मदद ली और 3 से 4 महीने में इसका असर भी देखा है।
बहरहाल, जरूरत इस बात की है कि योग को राजनीति और धर्म के मैदान में न घसीटा जाए। कुछ राजनीतिक दल योग और योग को नियमित अपनाने वालों को अपना वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। कुछ लोग योग पर एक छत्र राज और अपनी ठेकेदारी भी जमाते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए, योग सबके लिए है और वह भी नि:शुल्क। योग हमें ऋषियों-मुनियों द्वारा दी गई बेशकीमती सौगात है। हमारी धरोहर है जिसे हमारे पूर्वज हमारे लिए छोड़कर गये हैं। इसे सजोकर रखना हम सबका परमदायित्व बनता है।
योग के फायदों से हम परिचित हैं। योग को लेकर हमें किसी लोभ-लालच में नहीं पड़ना चाहिए। योग करने वालों को भाजपा का कार्यकर्ता, रामदेव का अनुयायी या आरएसएस का शुभचिंतक नहीं समझना चाहिए। हालांकि, ऐसी मिथ्या अब लोगों से दूर हुई है। सत्ता पक्ष हो या विपक्ष सभी अपने स्वास्थ्य की परवाह करते हुए योग को अपनाएं। विश्व योग दिवस का मकसद हममें योगासन के प्रति ललक पैदा करना और दूसरों को योग के लिए जागरुकता करना मात्र होता है। योग स्वस्थ शरीर का मुख्य सारथी है, इसे दूर न करें, नियमित अपनायें। (लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। प्रतिवर्ष 21 जून को दुनियाभर के 170 से भी ज्यादा देश अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाते हैं और योग को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाने का संकल्प लेते हैं। संयुक्त राष्ट्र ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के 69वें सत्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा रखे गये प्रस्ताव के जवाब में 11 दिसंबर 2014 को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की स्थापना की और वैश्विक स्तर पर पहला अंतरराष्ट्रीय योग दिवस 21 जून 2015 को मनाया गया।
इस वर्ष पूरी दुनिया स्वयं और समाज के लिए योग थीम के साथ 10वां अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मना रही है। प्रतिवर्ष यह दिवस मनाने का उद्देश्य योग को एक ऐसे आंदोलन के रूप में बढ़ावा देना है। वैसे तो योग को विश्वस्तर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सतत प्रयासों के चलते वर्ष 2015 में अपनाया गया, किंतु भारत में योग का इतिहास सदियों पुराना है। माना जाता रहा है कि पृथ्वी पर सभ्यता की शुरुआत से ही योग किया जा रहा है लेकिन साक्ष्यों की बात करें तो योग करीब पांच हजार वर्ष पुरानी भारतीय परंपरा है।
करीब 2700 ईसा पूर्व वैदिक काल में और उसके बाद पतंजलि काल तक योग की मौजूदगी के ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं। महर्षि पतंजलि ने अभ्यास तथा वैराग्य द्वारा मन की वृत्तियों पर नियंत्रण करने को ही योग बताया था। हिंदू धर्म शास्त्रों में भी योग का व्यापक उल्लेख मिलता है। विष्णु पुराण में कहा गया है कि जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही अद्वेतानुभूति योग कहलाता है।
इसी प्रकार भगवद्गीता बोध में वर्णित है कि दु:ख-सुख, पाप-पुण्य, शत्रु-मित्र, शीत-उष्ण आदि द्वंदों से अतीतय मुक्त होकर सर्वत्र समभाव से व्यवहार करना ही योग है। भारत में योग को निरोगी रहने की करीब पांच हजार वर्ष पुरानी मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक पद्धति के रूप में मान्यता प्राप्त है, जो भारतीयों की जीवनचर्या का अहम हिस्सा है।
सही मायनों में योग भारत के पास प्रकृति प्रदत्त ऐसी अमूल्य धरोहर है, जिसका भारत सदियों से शारीरिक और मानसिक लाभ उठाता रहा है, लेकिन कालांतर में इस दुर्लभ धरोहर की अनदेखी का ही नतीजा है कि लोग तरह-तरह की बीमारियों के मकड़जाल में जकड़ते गये। वैसे तो स्वामी विवेकानंद ने भी अपने शिकागो सम्मेलन के भाषण में संपूर्ण विश्व को योग का संदेश दिया था लेकिन कुछ वर्षों पूर्व योग गुरु स्वामी रामदेव द्वारा योग विद्या को घर-घर तक पहुंचाने के बाद ही इसका व्यापक प्रचार-प्रसार संभव हो सका और आमजन योग की ओर आकर्षित होते गये। देखते ही देखते कई देशों में लोगों ने इसे अपनाना शुरू किया। आज की भागदौड़ भरी जीवनशैली में योग का महत्व कई गुना बढ़ गया है।
योग न केवल कई गंभीर बीमारियों से छुटकारा दिलाने में मददगार साबित होता है बल्कि मानसिक तनाव को खत्म कर आत्मिक शांति भी प्रदान करता है। दरअसल यह एक ऐसी साधना, ऐसी दवा है, जो बिना किसी लागत के शारीरिक एवं मानसिक बीमारियों का इलाज करने में सक्षम है। यह मस्तिष्क की सक्रियता बढ़ाकर दिनभर शरीर को ऊजार्वान बनाए रखता है।
यही कारण है कि अब युवा एरोबिक्स व जिम छोड़कर योग अपनाने लगे हैं। माना गया है कि योग तथा प्राणायाम से जीवनभर दवाओं से भी ठीक न होने मधुमेह रोग का भी इलाज संभव है। यह वजन घटाने में भी सहायक माना गया है। योग की इन्हीं महत्ताओं को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 27 सितम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा से आह्वान किया था कि दुनियाभर में प्रतिवर्ष योग दिवस मनाया जाये ताकि प्रकृति प्रदत्त भारत की इस अमूल्य पद्धति का लाभ पूरी दुनिया उठा सके।
यह भारत के बेहद गर्व भरी उपलब्धि रही कि संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रधानमंत्री के इस प्रस्ताव के महज तीन माह के भीतर 177 देशों ने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाये जाने के प्रस्ताव पर स्वीकृति की मोहर लगा दी, जिसके उपरांत संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 11 दिसम्बर 2014 को घोषणा कर दी गयी कि प्रतिवर्ष 21 जून का दिन दुनियाभर में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाया जायेगा।
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के लिए 21 जून का ही दिन निर्धारित किए जाने की भी खास वजह रही। दरअसल, यह दिन उत्तरी गोलार्ध का पूरे कैलेंडर वर्ष का सबसे लंबा दिन होता है। इस दिन की तिथि को ग्रीष्म संक्रांति के साथ मेल खाने के लिए बनाया गया था, जो उत्तरी गोलार्ध में वर्ष का सबसे लंबा दिन होता है और प्रकाश और स्वास्थ्य का प्रतीक है। भारतीय संस्कृति के नजरिये से देखें तो ग्रीष्म संक्रांति के बाद सूर्य दक्षिणायन हो जाता है तथा यह समय आध्यात्मिक सिद्धियां प्राप्त करने में लाभकारी माना गया है।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी योग के महत्व को स्वीकारने लगा है। इसलिए स्वस्थ जीवन जीने के लिए जरूरी है कि योग को अपनी दिनचर्या का अटूट हिस्सा बनाया जाये। बहरहाल, योग केवल एक व्यायाम नहीं है बल्कि यह शरीर और मन के साथ-साथ स्वयं को सशक्त बनाने का एक बेहतरीन तरीका है। (लेखक,स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। विश्व को कल्याण का मार्ग दिखाने के लिए भारत का चिंतन पुरातन काल से रहा है। विश्व का कल्याण करने का भाव भारतीय चिंतन में हमेशा से रहा है। वर्तमान में विश्व में जितनी भी ज्ञान और विज्ञान की बातें की जाती हैं, वह भारत में युगों पूर्व की जा चुकी हैं। इससे कहा जा सकता है कि भारत में ज्ञान और विज्ञान की पराकाष्ठा थी, लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि हम विदेशी चमक के मोहजाल में फंसकर अपने ज्ञान को संरक्षण प्रदान नहीं कर सके। जिसके कारण हम स्वयं ही यह भुला बैठे कि हम क्या थे।
भारत की भूमि से विश्व को एक परिवार मानने का संदेश प्रवाहित होता रहा है, आज भी हो रहा है। यह अकाट्य सत्य है कि विश्व को शांति के मार्ग पर ले जाने का ज्ञान और दर्शन भारत के पास है। योग विधा एक ऐसी शक्ति है, जिसके माध्यम से दुनिया को स्वस्थ और मजबूती प्रदान की जा सकती है। 21 जून को मनाए जाने वाले अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के माध्यम से आज विश्व के कई भारत के साथ खड़े हुए हैं। यह विश्व को निरोग रखने की भारत की सकारात्मक पहल है।
देव भूमि भारत में वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा को आत्मसात करने वाले मनीषियों ने बहुत पहले ही विश्व को स्वस्थ और मजबूत देने का संदेश दिया है। वास्तव में योग में राजनीति देखना संकुचित मानसिकता का परिचायक है। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर विश्व में योग का जो स्वरूप दिखाई दिया है, वह अपने आप में एक करिश्मा है।
करिश्मा इसलिए क्योंकि ऐसा न तो पहले कभी हुआ है और न ही योग के अलावा दूसरा कार्यक्रम हो सकता है। इतनी बड़ी संख्या में भाग लेने वाले लोगों के मन में योग के बारे में अनुराग पैदा होना वास्तव में यह तो प्रमाणित करता ही है कि अब विश्व एक ऐसे मार्ग पर कदम बढ़ा चुका है, जिसका संबंध सीधे तौर पर व्यक्तिगत तथा सामूहिक उत्थान से है। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर भाग लेने वालों ने एक कीर्तिमान बनाया है।
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के योग साधकों के साथ मिलकर योग विद्या को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ले जाने की जो पहल की थी, आज उसके सार्थक परिणाम भी दिखाई देने लगे हैं। अब विश्व के कई देशों ने स्वस्थ और मजबूती की राह पर अपने कदम बढ़ा दिए हैं। अब विश्व को निरोग बनाने से कोई ताकत नहीं रोक सकती।
वर्तमान में विश्व के अनेक देश इस सत्य से भली भांति परिचित हो चुके हैं कि योग जीवन संचालन की एक ऐसी शक्ति है, जिसके सहारे तनाव मुक्त जीवन की कल्पना की जा सकती है। हम जानते हैं कि विश्व के कई देशों में जिस प्रकार का विचार प्रवाह है, उससे जीवन की अशांति का वातावरण तैयार हो रहा था और अनेक लोग इसकी गिरफ्त में आते जा रहे हैं।
विश्व के कई देश इस बात को जान चुके हैं कि योग के सहारे ही मानसिक शांति को प्राप्त किया जा सकता है। योग दिवस को मिले भारी वैश्विक समर्थन के बाद यह तो तय हो गया है कि विश्व को सुख और समृद्धि के मार्ग पर ले जाने के लिए भारत के दर्शन को विश्व के कई देश खुले रूप में स्वीकार करने लगे हैं।
इससे पहले जो भारत विश्व के सामने अपना मुंह खोलने से कतराता था, आज वही भारत एक नये स्वरूप में विश्व के समक्ष अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है। विश्व को भारत की विराट शक्ति का अहसास हो चुका है। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब से देश के प्रधानमंत्री बने हैं, तब से हमारे देश के बारे में वैश्विक दृष्टिकोण में गजब का बदलाव दिखाई दे रहा है।
सवाल यह है कि क्या यह बदलाव नरेन्द्र मोदी को देखकर आया है, नहीं। इसका जवाब यह है कि भारत के पास पूर्व से ही ऐसी विराट शक्ति थी, जिसका भारत की पूर्व सरकारों को भारतीय जनता को बोध नहीं था। हर भारतवासी के अंदर शक्ति का संचय है, हम शक्ति को प्रदर्शित नहीं कर पा रहे थे, इतना ही नहीं हम यह भूल भी गए थे कि हमारे अंदर भी शक्ति है।
नरेन्द्र मोदी ने जामवंत की भूमिका अपनाकर देशवासियों एवं अप्रवासी भारतीयों के मन में इस भाव को जाग्रत किया कि आप महाशक्ति हैं। जैसे ही नरेन्द्र मोदी ने अमेरिका के मेडीसन एस्क्वायर में भारतीय शक्ति का प्रस्फुटन किया, वैसे ही भारत के नागरिकों के अंदर गौरव का अहसास तो हुआ ही साथ ही विश्व के विकसित देश भारत को अपना समकक्ष मानने लगे।
भारत के दर्शन में एक ठोस बात यह भी है कि भारत में हमेशा सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया वाला भाव ही रहा है। जो भी देश भारत के इस दर्शन से तालमेल रखता हुआ दिखाई देता है, वह कभी दूसरे का अहित सोच भी नहीं सकता। जबकि विश्व के अनेक देश केवल स्वयं का ही हित सबसे ऊपर रखकर दूसरों के हितों पर चोट करते हैं।
आतंक फैलाकर अपना वर्चस्व स्थापित करने वाला समाज मारकाट करने की मानसिकता के साथ जी रहा है। ऐसे लोगों का न तो कोई अपना है, और न ही कोई परिवार। कई मुस्लिम देशों के नागरिक आज मुसलमानों के ही दुश्मन बनकर मारकाट का खेल खेल रहे हैं। ऐसे लोगों से शांति का बातें करना भी बेमानी है। हमारी सलाह है कि ऐसे लोग भी योग की क्रियाएं अपनाकर शांति के मार्ग पर चल सकते हैं। योग जहां स्वस्थ मानािकता का निर्माण करने में सहायक है वहीं शांति स्थापना का उचित मार्ग है।
सवाल उठता है कि वर्तमान के मोहजाल में फंसे विश्व के अनेक देश आज किसी भी चीज में राहत नहीं देख रहा है। पैसे के पीछे भाग रहा पूरा विश्व तनाव भरा जीवन जी रहा है। इस तनाव से मुक्ति पाने का एक ही मार्ग है योग को अपनाना। जिसने अपने जीवन में योग को महत्व दिया है, वह इस तनाव से छुटकारा पाने में सफल रहा है। आज सबसे ज्यादा तनाव का जीवन मुस्लिम देशों में दिखाई देता है। वहां केवल मारकाट की भाषा के अलावा कुछ भी नहीं है। इन देशों में हमेशा अशांति का वातावरण दिखाई देता है और सरकार नाम की कोई चीज नहीं है।
यह इस बात का ध्यान रखना होगा कि आध्यात्मिकता और ध्यान योग के मामले में हम विश्व के सभी देशों से बहुत आगे हैं। इस बारे में दुनिया का ज्ञान भारत के समक्ष अधूरा ही है। भारत को जब तक इस बात का बोध था, तब तक विश्व का कोई भी देश भारत का मुकाबला करने का सामर्थ्य नहीं रखता था। आज इस शक्ति के प्रदर्शन की शुरूआत हो चुकी है, जरूरत इस बात की है कि हम सभी सरकार के कदम के साथ सहयोग का भाव अपनाकर अपना कार्य संपादित करें। आने वाले समय में भारत का भविष्य उज्ज्वल है। (लेखिका, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
एबीएन सेंट्रल डेस्क। उड़िसा में लोस, विस में भाजपा की प्रचंड जीत राजनीतिक पंडितों के लिये शोध का विषय है। भाजपा ने इन लोकसभा चुनावों में उड़िसा में अप्रत्याशित सफलता प्राप्त की है। एक ऐसे राज्य में जहां बीजद के शोर में किसी और दल की उपस्थिति न दिखती हो वहां चुपचाप बिना किसी करंट के दिखे भाजपा ने 21 में से 19 सीटें जीत ली।
यह एक प्रकार से यूपी में हुई क्षति की अच्छी खासी भरपाई भी है और भाजपा का चुपचाप उड़िसा में तख्तापलट सा प्रदर्शन है। हमें यह भी याद रखना होगा कि उड़िसा से धर्मेंद्र प्रधान और संबित पात्रा प्रधान के अलावा कोई और परिचित भाजपाई चेहरा तक नहीं दिखता। फिर भी बिना शोर या किसी नायक के भाजपा ने उड़िसा लोक सभा और विधानसभा कैसे विजित किया?
यह राजनीतिक विश्लेषकों, पंडितों और एग्जिट पोल वालों के लिए भी शोध का विषय है।भाजपा की जीत अप्रत्याशित क्यों है इसे जानने के लिये उड़िसा, बीजद और नवीन पटनायक के अतीत को देखना होगा। 4 जून से पहले उड़िसा के पूर्व सीएम नवीन बाबू सदैव अपराजेय लगते थे। मेरा भी मानना था कि उड़िसा में बीजू जनता दल को कहीं से कोई चुनौती नहीं है। एक दूसरा तथ्य भी जुड़ा रहा कि उड़िसा में नवीन बाबू भारतीय राजनीति में अजातशत्रु सी छवि के साथ रहे हैं।
मुझे याद है भाजपा कभी भी उनके खिलाफ आक्रामक नहीं रही और नवीन पटनायक को अघोषित रूप से एनडीए का साथी मानती रही, वहीं यूपीए के भी किसी पार्टी ने उनके खिलाफ कोई तल्खी या विरोधी रूख नहीं दिखाया। सिर्फ इन चुनावों में भाजपा और पीएम मोदी ने उनपर कुछ विरोधी बयानबाजी की। जैसे पीएम मोदी का ये कहना कि नवीन पटनायक अस्वस्थ हैं वो सीएम की कुर्सी और बीजद की कमान संभालने की स्थिति में नहीं हैं। किसी ने कहा कि वो अपना उत्तराधिकारी किसे बनायेंगे? एक ब्यूरोक्रेट को जो उनका करीबी और विश्वासपात्र है? नवीन पटनायक पर ये सारे हमले चुनावी थे, इनमें वास्तव में नवीन पटनायक के प्रति कोई खास नाराजगी या दुर्भावना नहीं थी।
दो साल पहले मैं भुवनेश्वर में था। वहां एक लोकल टैक्सी ड्राइवर ने बातचीत में कहा कि जब तक नवीन पटनायक स्वस्थ हैं तब तक वही उड़िसा के सीएम रहेंगे और किसी पार्टी के लिये कोई चांस नहीं। उस उड़िया ड्राइवर का ये भी कहना था कि नवीन बाबू सीएम रहने का हर रिकार्ड तोड़ देंगे।
नवीन पटनायक संयोग से राजनीति में आये थे और दुर्घटनावश उड़िसा के सीएम बने और रिकार्ड बार सीएम बनते रहे। वर्ष 2000 में वह अपने पिता बीजू पटनायक की मृत्यु के बाद अचानक बीजद पार्टी के उत्तराधिकारी के तौर पर विदेश से उड़िसा अवतरित हुए। पार्टी नेताओं के कहने पर बागडोर संभाला और जन समर्थन से वह चुनाव जीत सीएम बने। तब वह उड़िया भी नहीं बोल पाते थे।
आम उड़िया जन से जमीनी जुड़ाव उनका नहीं हो पाता था। फिर भी पहली बार जीतने पर जनता से वादा किया कि मैं अगली बार उड़िया सीख कर आऊंगा और आप लोगों से मधुर सुंदर उड़िया में बात करूंगा। मुझे नहीं पता था नवीन बाबू उड़िया सीख पाये या नहीं? मैंने उन्हें हमेशा दबी और धीमी आवाज में अंग्रेजी बोलते ही सुना है। फिर भी वह 24 साल तक सीएम बने रहे।
उड़िसा उन एक दो राज्यों में है जहां लोकसभा के साथ ही विधानसभा चुनाव भी होते हैं। नवीन पटनायक कम बोलने वाले और अप्रिय या विवादास्पद बयानों से दूरी रखने वाले व्यक्ति हैं। दस साल पहले जब नवीन पटनायक एक बार फिर से विस चुनाव जीत कर सीएम बने और राजदीप सरदेसाई उन्हें बधाई देते हुते कुछ सवाल पूछ रहे थे, पर नवीन बाबू भावहीन चेहरे से यंत्रवत जवाब दे रहे थे।
तब राजदीप ने उन्हें टोका और कहा कि नवीन बाबू आज आप तीसरी बार सीएम बने हैं अरे अब थोड़ा तो मुस्कुराइये और जवाब दीजिये? तब जाकर नवीन पटनायक कुछ सेकेंड के लिए चेहरे पर मुस्कुराहट ला पाये थे, अन्यथा नवीन बाबू आये हरख न गये विसाद वाले व्यक्ति हैं। आज हार भी गये तो न कोई बयान न कोई दुख या अफसोस पूर्ववत भावहीन हैं नवीन बाबू। वहीं उनके पायलट पिता बीजू पटनायक एक मुखर और वाचाल राजनेता थे। वह चुनाव हारने पर पुरी जाकर भगवान जगन्नाथ से भी लड़ आते थे।
एक बार बीजू चुनाव हारे तो पुरी मंदिर में भगवान जगन्नाथ से तल्खी में पूछ रहे थे कि आखिर ऐसा क्यों हुआ मैं चुनाव कैसे हार गया, कहां गलती थी मेरी? एक बार बीजू पटनायक को किसी बेरोजगार युवक ने थप्पड़ मार दिया तो बीजू ने भी पलट कर थप्पड़ दे मारा। इन वाक्यों को देखें तो नवीन पटनायक बिल्कुल शांत सौम्य मुख्यमंत्री रहे।
आज इंजीनियरिंग प्रबंधन की उत्कृष्ट पढ़ाई के लिए बिहार, झारखंड, बंगाल का छात्र उड़िसा का रुख करते हैं। पुरी और भुवनेश्वर में पेयजल की व्यवस्था ऐसी कि आप कहीं भी नल से पानी लेकर पी सकते हैं। जब केंद्र सरकार ने वाहनों के कागजात को अप-टू-डेट रखने या कार्रवाई का फरमान जारी किया तो नवीन पटनायक ने उड़िसा की जनता को तीन महीने का समय दिया था ताकि सभी लोग अपने वाहन के कागजात दुरूस्त करवा सकें।
नवीन पटनायक के मुख्यमंत्रित्व में उड़िसा बहुत कम मौकों पर किसी गलत वाकये की वजह से चर्चा में आया। अमूमन उड़िसा को एक शांत राज्य माना जाता है। ओलंपिक खेलों में दशकों बाद हॉकी में कांस्य पदक जीतने वाली हमारी टीम को जब कोई प्रायोजक नहीं मिला, तो नवीन पटनायक ने उड़िसा सरकार के माध्यम से पूरा खर्च उठाया था।
बेशक नवीन पटनायक दशकों तक उड़िसा के एक सफल मुख्यमंत्री रहे। उनके खिलाफ इस बार कोई हवा या अंडरकरंट नहीं दिख रहा था, यहां न तमिलनाडू के तरह यहां कोई अन्नामलाई थे न बंगाल की तरह शुभेंदू फिर भी भाजपा के हाथों बीजू जनता दल का सूपड़ा साफ होना और विधानसभा में प्रचंडता से भाजपा का बहुमत प्राप्त करना एक आश्चर्यजनक राजनीतिक घटना है।
तीन साल पहले मैं पुरी में समुद्र तट पर घूम रहा था। तभी एकाएक वहां पुलिस आयी और लाउडस्पीकर पर चेतावनी देकर समुद्र तट पर दुकान सजाये छोटे-छोटे दुकानदारों को भगाने लगी। दुकानदारों ने विरोध किया तो पुलिस जब्ती और सख्ती पर उतर आयी। तब सैकड़ों दुकानदार तट स्थित मुख्य सड़क पर ही बैठ कर धरना देने लगे और सड़क को जाम कर दिया। पुलिस देखती रही।
संभव है वैसे छोटे-छोटे आक्रोश बड़े होते गये और भाजपा ने चुपचाप भुना लिया या फिर ये मान लिया जाये कि एक अच्छे कर्मठ पर भावहीन चेहरे वाले सीएम से उड़िया जन का मन भर गया और सिर्फ इसी आधार पर उन्हें जनता ने हरा दिया और भाजपाई सीएम मोहन मांझी के लिए वोट किया? जवाब अनुत्तरित हैं। जवाब श्री जगन्नाथ ही जानें...।
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। पर्यावरण जीवों और उनके जीवन का आधार और एक अनिवार्य घटक है। उसके बिना जीवन अकल्पनीय है। हमारा जीवन-चक्र पर्यावरण में स्थित है और पर्यावरण द्वारा ही आयोजित होता है। हम उसी में जन्म लेते हैं, जीते हैं और मृत्यु के बाद उसी में विलीन हो जाते हैं। हम वनस्पतियों और अन्य प्राणियों की ही तरह पर्यावरण के अंग होते हैं परंतु अपने अहंकार में हम अपनी इस मौलिक सदस्यता को भूल कर अपने को पर्यावरण से अलग तत्व के रूप में देखते हैं।
हम मनुष्य और पर्यावरण की दो अलग-अलग कोटियां या श्रेणियां बना लेते हैं जो भिन्न मान ली जाती हैं। इनके बीच का रिश्ता भी उपभोक्ता (कंज्यूमर) और उपभोग्य वस्तु (कंज्यूमेबल आब्जेक्ट) मान बैठे हैं। पर्यावरण हमारे लिए एक संसाधन होता गया है जिनमें कुछ नवीकरणीय भी होते हैं और कुछ समाप्त हो कर उस रूप में वापस नहीं मिलते। अपनी संपदाओं के कारण धरती को वसुंधरा कहते हैं। वह हमारे लिए सुख के स्रोत उपलब्ध कराती है।
पर्यावरण में मौजूद विविध पदार्थों, ऊर्जा के श्रोतों (जैसे : कोयला, पेट्रोल आदि), जल संसाधनों, भिन्न-भिन्न गुणवत्ता के भूमि रूपों (जहां किस्म-किस्म के अन्न, फल, लकड़ी, औषधि और अन्य पदार्थ पैदा होते हैं) को लेकर हम बड़े प्रसन्न होते हैं। पर पर्यावरण की इस सम्पदा को सिर्फ निष्क्रिय निर्जीव वस्तुओं के संसाधन के रूप में मान बैठना भ्रम है।
इसलिए ऐसा सोचना ठीक तो है परन्तु यह आधी सच्चाई है। पर्यावरण को सिर्फ संसाधन मान बैठना न सही है न वांछित। पर्यावरण से हमारा पारस्परिक रिश्ता है। वह हमें रचता है और हमसे अपेक्षा है कि हम उसकी रक्षा करें। इस तरह पृथ्वी पर एक जीवन-चक्र चलता सदैव चलता रहता है। इन सबको देखते हुए ही धरती को माता कहा गयाझ्र माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या:। पृथ्वी सभी प्राणियों का बिना भेद-भाव के माता की तरह भरण-पोषण करती है।
आज इसे भुला कर हम निर्मम भाव से इस पर्यावरण को अपने अविवेकपूर्ण आचरण द्वारा तरह-तरह से आघात पहुंचा कर लगातार उसका हृदय छलनी कर रहे हैं और शरीर नष्ट-भ्रष्ट कर रहे हैं। ऐसा करते हुए अपने ही पैरों पर ही कुल्हाड़ी चला रहे हैं। पेड़ कटते जा रहे हैं, वन जलाये जा रहे हैं, कंक्रीट के जंगल उग रहे हैं, और रासायनिक खाद से धरती की उर्वराशक्ति नष्ट हो रही है।
हमारी भौतिकवादी दृष्टि कितनी दूषित हो चुकी है कि हम प्रकट सत्य का भी प्रत्यक्ष नहीं कर पाते हैं और न वह क्षति ही महसूस कर पाते हैं जिसकी भरपाई संभव ही नहीं है। ग्रीन गैस का उत्सर्जन जिस तरह हो रहा है और कार्बन डाई आक्साइड जिस तरह बढ़ रहा है वह सब जीवन के विरुद्ध है। पर्यावरण की ओर से हमें लगातार चेतावनी मिल रही है और हम हैं कि उसे अनसुना करते रहे हैं।
ग्लेशियर का पिघलना, अति वर्षा, सूखा, बाढ़ और गर्मी का अत्याधिक बढ़ना ऐसे ही संकेत हैं। आज धरती और पर्यावरण की सीमाओं को बिना पहचाने उसका अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है। ऐसा करते हुए हम यह अकसर भूल जाते हैं कि हमारा आहार, हमारी सांसें और हमारे कार्य-कलाप सब कुछ पर्यावरण से ही उधार लिया हुआ है। यदि पर्यावरण इसमें कोई कोताही करता है तो परिस्थिति विकट हो जाती है।
कुछ ही दिनों पहले कोविड झ्र 19 की महामारी के दौरान हम सबने विश्व भर में यह बात अपनी आंखों देखी कि पर्यावरण के साथ रिश्ता कितना नाजुक होता है। उस दौरान आक्सीजन की कालाबाजारी तक हुई थी। मनुष्य की पर्यावरण के साथ रिश्तों में भागीदारी का सबसे घातक पक्ष प्रदूषण है जो वायु, जल, पृथ्वी सब में तेजी से फैलता जा रहा है। विकास के साथ तरह-तरह के कूड़ा-कचरा की मात्रा भी तेजी से बढ़ रही है जिसके निस्तारण की कोई माकूल व्यवस्था हम नहीं कर सके हैं।
हमारी धरती हमारा भविष्य है। हम लोगों को पर्यावरण संरक्षित करने की कोशिश करनी होगी। धरती और उसकी परिस्थितिकी को बचाना हमारा पहला कर्तव्य बनता है। जैव विविधता को बचाना और जलवायु परिवर्तन के खतरों से बचाना मनुष्यता की रक्षा के लिए जरूरी है। धरती हमें जीने का अवसर देती है उसकी रक्षा और हरी-भरी दुनिया के लिए हर स्तर पर प्रयास जरूरी है।
साइकिल का उपयोग, सार्वजनिक वाहन का उपयोग, वस्तुओं का यथा सम्भव पुन: उपयोग, वृक्षारोपण, और स्थानीय सामग्री का अधिकाधिक उपयोग आदि कुछ छोटी पहल भी हरित आर्थिकी (ग्रीन इकॉनमी) का मार्ग प्रशस्त करने में सहायक होगी। (लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली एनडीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में बाजार का प्रदर्शन यूपीए के दूसरे कार्यकाल से बेहतर रहा है। लेकिन अलग कुल मिलाकर, 10 साल की अवधि में देखा जाये तो मनमोहन सिंह के कार्यकाल में बाजार का प्रदर्शन नरेंद्र मोदी से बेहतर रहा है। हालांकि, अगर अलग-अलग कार्यकालों की तुलना करें, तो नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में बेंचमार्क सेंसेक्स में 87 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जो कि मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में 80 प्रतिशत की वृद्धि से थोड़ा ज्यादा है। लेकिन, अगर हम पहला कार्यकाल देखें, तो सिंह के कार्यकाल में बाजार में 2.7 गुना की वृद्धि हुई, जो मोदी के पहले कार्यकाल में 55 प्रतिशत की वृद्धि से कहीं ज्यादा है।
इसके परिणामस्वरूप, सन 2004 से 2014 तक यूपीए के शासन के 10 सालों के दौरान सेंसेक्स ने 5 गुना रिटर्न दिया और पिछले 10 सालों के दौरान एनडीए के शासन में 3 गुना रिटर्न दिया। दोनों सरकारों को 2008 में वैश्विक वित्तीय संकट और 2020 में कोविड-19 महामारी जैसे प्रमुख आर्थिक और बाजार झटकों का सामना करना पड़ा। पिछले 10 सालों में अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए लिये गये कुछ बड़े फैसलों की वजह से थोड़ी उथल-पुथल भी देखने को मिली, लेकिन इन फैसलों से भारतीय अर्थव्यवस्था को आधुनिक बनाने में मदद मिली।
इन फैसलों में कुछ प्रमुख थे : नवंबर 2016 में नोटबंदी, जुलाई 2017 में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू करना, मई 2016 में दिवाला और शासी संहिता का कानून बनना और सितंबर 2019 में कंपनी टैक्स में कटौती। भले ही महामारी और कुछ बड़े फैसलों के बाद शेयर बाजार में अचानक गिरावट आयी, लेकिन चीजें जल्दी पटरी पर लौट आयीं। इससे लोगों के लिए अपनी बचत को शेयर बाजार में लगाना आसान हो गया। अब लोग सीधे निवेश या म्यूचुअल फंड के जरिए ज्यादा पैसा शेयर बाजार में लगा रहे हैं। इससे भारत को विदेशी निवेशकों के पैसों पर उतना निर्भर नहीं रहना पड़ रहा है।
अल्फानीति फिनटेक के सह-संस्थापक यू आर भट ने कहा कि पहले सिर्फ विदेशी निवेशक ही बाजार को प्रभावित करते थे, लेकिन पिछले कुछ सालों में घरेलू निवेशक भी अहम भूमिका निभाने लगे हैं। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के दौरान अर्थव्यवस्था अच्छी स्थिति में थी, इसलिए उनके लिए आगे बढ़ना ज्यादा मुश्किल नहीं था।
वहीं दूसरी तरफ, मोदी को उस वक्त अर्थव्यवस्था संभालनी पड़ी थी जब भारत फ्रैजाइल फाइव में शामिल था। लेकिन उनकी खूबी यह है कि उन्होंने उन बड़े सुधारों को भी आगे बढ़ाया जिनसे उनके पूर्ववर्ती नेता दूर ही रहते थे, जैसे जीएसटी या बुनियादी ढांचे में भारी निवेश। उनका कहना है कि घरेलू निवेशकों की बढ़ती दिलचस्पी और बड़े नीतिगत बदलावों का असर भारतीय बाजार को भविष्य में बेहतर रिटर्न देने में मदद करेगा।
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। जैसे-जैसे बुजुर्गों की संख्या बढ़ने लगी है वैसे ही डिमेंशिया की बीमारी का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। बहुत कुछ आज की सामाजिक व्यवस्था व सामाजिक परिवेश डिमेंशिया का कारण बनता जा रहा है। एक ओर एकल परिवार, अपने में खोये रहना और दिन-प्रतिदिन की भागमभाग है तो दूसरी और पढ़ने-पढ़ाने की आदत कम होना, प्रमुख कारण है। गूगल गुरु ने तो सबकुछ बदल कर ही रख दिया है। दुनिया में डिमेंशिया प्रभावितों की संख्या में दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो अगले 25 साल में डिमेंशिया की रोगियों की संख्या में तीन गुणा बढ़ोतरी हो जाएगी।
डिमेंशिया खासतौर से बुजुर्गों की होने वाली बीमारी है। इसमें मनोभ्रांति की स्थिति हो जाती है और भूलने या निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित होती है। इसमें बुजुर्ग धीरे-धीरे अपनी याददाशत को खोने लगते हैं। भारत के संदर्भ में यह इसलिए गंभीर हो जाती है कि चीन और जापान की तरह भारत में भी आने वाले सालों में बुजुर्गों की संख्या अधिक हो जायेगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार दुनिया के देशों में डिमेंशिया की बीमारी से पांच करोड़ लोग जूझ रहे हैं। एक अध्ययन के अनुसार 2050 तक डिमेंशिया से प्रभावितों की संख्या 15 करोड़ से अधिक होने की संभावना है।
दुनिया के देशों में हर साल करीब 10 लाख लोग इस बीमारी की गिरफ्त में आ रहे हैं। वाशिंगटन विश्वविद्यालय के अध्ययन के अनुसार अफ्रीका के उपसहारा क्षेत्र, उत्तरी अफ्रीका और मध्यपूर्व में डिमेंशिया के रोगियों की संख्या अधिक बढ़ रही है। मेलबोर्न के मोनाश विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार रुटीन बदलने से काफी हद तक इस बीमारी के असर को कम किया जा सकता है। इसमें खासतौर से बुजुर्ग व्यस्त रह करके डिमेंशिया के असर को कम कर सकते हैं या यों कहें कि डिमेंशिया का खतरा कम हो सकता है। एक बात और कि इसके लिए बुजुर्गों को कुछ खास करने की आवश्यकता भी नहीं है, बस कुछ कुछ आदतों में बदलाव लाने की जरूरत है।
दरअसल, एक समय लोगों में लिखने-लिखाने और पढ़ने-पढ़ाने की आदत होती थी। किस्सागोई की परंपरा थी तो गांवों-शहरों में चौपालें होती थी। बड़े-बुजुर्ग वहां बैठकर मोहल्ले में घटने वाली घटनाओं पर नजर रखते थे। वहीं आपसी चर्चा, ताश, चौपड़, शतरंज आदि खेल, गाना-बजाना या इसी तरह की गतिविधियां चलती रहती थी। इसके अपने फायदे भी थे। बड़े-बुजुर्गों की इस चौपाल से जहां मोहल्ले की सुरक्षा चाक-चौबंद रहती थी, वहीं मोहल्ले में असामाजिक गतिविधियों पर अंकुश लगता था।
बड़े-बुजुर्गों की व्यस्तता के साथ ही आपसी दुख-दर्द को भी साझा किया जाता था तो समस्या के समाधान खोजने के साझा प्रयास होते थे। काफी हद तक मन का बोझ भी कम हो जाता था। पर आज हालात इसके ठीक विपरीत होते जा रहे हैं। चौपालों की परंपरा तो लगभग खत्म ही हो गई है। ले देकर ड्राइंम रूम संस्कृति रह गई है। उसमें भी अब सोशियल मीडिया और कम्प्यूटर-मोबाइल ने एक ही कमरे को अलग-अलग हिस्सोें में बांट कर रख दिया है। सब अपने-अपने मोबाईल पर उंगुलियां घुमाने में व्यस्त रहते हैं और एक-दूसरे से बात करने, सुनने-सुनाने का तो समय ही नहीं रह गया है।
इसके दुष्परिणाम भी सामने आने लगे हैं। संवेदनहीनता, एकाकीपन, स्वार्थता, चिड़चिड़ापन, अनिद्रा और ना जाने कितनी ही समस्याएं सामने आने लगी हैं। यही कारण है कि आज अधिक संख्या में लोग मनोविकारों से पीड़ित होने लगे हैं। एक अध्ययन में सामने आया है कि लिखने-लिखाने और पढ़ने-पढ़ाने की आदत से बुजुर्गों को डिमेंशिया की बीमारी से काफी हद से बचाया जा सकता है। पढ़ने-पढ़ाने से व्यक्ति किताबों की दुनिया में खो जाता हैं। इससे उसे अलग तरह का ही अनुभव होता है। पढ़ने-पढ़ाने या लिखने लिखाने की आदत से डिमेंशिया की बीमारी का खतरा 11 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है।
जिसे हम हॉबी कहते हैं वह हॉबी यानी कि चित्रकारी, कुछ गाना बजाना, गुनगुनाना, अखबार पढ़ना, किताबों की दुनिया से जुड़ना आदि से भी डिमेंशिया के खतरे को कम किया जा सकता है। दरअसल जितना अधिक बुजुर्गों का गतिविधियों में इनवोल्वमेंट होगा उतनी ही अधिक संभावनाएं डिमेंशिया के खतरे को कम करने में होगी। परिवार जनों के साथ नियमित रुप से संवाद कायम रखने यानी कि हंसने बोलने, खेलने-खिलाने से भी डिमेंशिया का खतरा कम होता जाता है।
इसके साथ ही बुजुर्गों का सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय हिस्सेदारी से भी बहुत कुछ राहत मिल सकती है। बुजुर्गों को किसी ना किसी गतिविधि से जोेड़कर उसमें सक्रिय किया जाता है तो डिमेंशिया के शिकार होने की संभावनाएं कम होती जायेगी। आज भूलने भुलाने की आदत तो युवाओं तक में देखने को मिलने लगी है। ऐसे में बुजुर्गों की सक्रियता को बनाये रखना आवश्यक हो जाता है।
डिमेंशिया के बढ़ते खतरे को देखते हुए गैरसरकारी संगठनों, सामाजिक सस्थानों आदि को भी सक्रिय होना होगा क्योंकि आने वाले समय में यह समस्या और अधिक बढ़ेगी। ऐसे में मनोविश्लेषकों, चिकित्सकों, सामाजिक कार्यकतार्ओं आदि को अधिक गंभीरता से प्रयास करने होंगे। एकल परिवार, नौकरी के कारण एक दूसरे से दूरी, प्रतिस्पर्धा के चलते अलग तरह की कुंठा और मानसिक परेशानी सबको परेशान करने लगी है। समय रहते इसका हल खोजना होगा। (लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। भारत की आर्थिक तरक्की में साइकिल ने बहुत अहम भूमिका निभायी है। आजादी के बाद से ही साइकिल देश में यातायात व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा रही है। खासतौर पर 1960 से लेकर 1990 तक भारत में ज्यादातर परिवारों के पास साइकिल थी। यह व्यक्तिगत यातायात का सबसे किफायती साधन था। गांवों में किसान साप्ताहिक मंडियों तक सब्जी और दूसरी फसलों को साइकिल से ही ले जाते थे। दूध की सप्लाई गांवों से पास से कस्बाई बाजारों तक साइकिल के जरिये ही होती थी। डाक विभाग का तो पूरा तंत्र ही साइकिल के बूते चलता था। आज भी पोस्टमैन साइकिल से चिट्ठियां बांटते हैं। चीन के बाद आज भी भारत दुनिया में सबसे ज्यादा साइकिल बनाने वाला देश है।
दो सौ साल पहले 12 जून 1817 को जर्मनी के मैनहेम में बैरन कार्ल वॉन ड्रैस ने दुनिया की पहली साइकिल पेश की थी। यह लकड़ी से बना था और इसमें पैडल, गियर या जंजीर नहीं थी। उसने खुद को पहले एक पैर से और फिर दूसरे पैर से धकेला। उन्होंने इसे लॉफमाशाइन (जर्मन में चलने वाली मशीन) कहा। अब तो जापान के फुकुकोआ शहर में छात्रों ने एक ऐसी साइकिल बनायी है जो हवा से चलती है। इसकी अधिकतम रफ्तार 64 किलोमीटर प्रति घंटा है। गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकॉर्ड ने इसे कंप्रेस्ड हवा से चलने वाली दुनिया में सबसे तेज साइकिल का सर्टिफिकेट दिया है।
3 जून 2018 को विश्व में पहला विश्व साइकिल दिवस मनाया गया। तब से दुनिया में प्रतिवर्ष साइकिल दिवस मनाया जाने लगा है। इस बार हम छठवां विश्व साइकिल दिवस मना रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने परिवहन के सामान्य, सस्ते, विश्वसनीय, स्वच्छ और पर्यावरण अनुकूल साधन के रूप में इसे बढ़ावा देने के लिए विश्व साइकिल दिवस को मनाने की घोषणा की थी। भारत में भी विकसित की जा रही ज्यादातर आधारभूत आधुनिक संरचनाएं मोटर-वाहनों को ही सुविधा प्रदान करने के लिए बन रही हैं। साइकिल जैसे पर्यावरण-हितैषी वाहन को नजरअंदाज किया जा रहा है। जबकि शहरी व ग्रामीण परिवहन में भी साइकिल का महत्वपूर्ण स्थान है।
खासतौर से कम आय-वर्ग के लोगों के लिए साइकिल उनके जीविकोपार्जन का एक सस्ता, सुलभ और जरूरी साधन है। यह इसलिए भी कि भारत का कम आय-वर्ग के लोग अपनी कमाई से प्रतिदिन सौ-पचास रुपये परिवहन पर खर्च करने में सक्षम नहीं हैं। भारत सरकार अपनी साइकिल परिवहन व्यवस्था में कुछ जरूरी मूलभूत सुधार करके आम और खास लोगों को साइकिल चलाने के लिए प्रेरित कर सकती है। सरकार के इस कदम से ऐसे सभी लोग प्रेरणा पा सकते हैं। जिनकी प्रतिदिन औसत यातायात दूरी पांच-सात किलोमीटर के आसपास बैठती हैं।
हमारे देश की कई राज्य सरकारें अपने स्कूली छात्र-छात्राओं को बड़ी संख्या में साइकिल वितरण कर रही हैं। जिससे साइकिल सवारों की संख्या में वृद्धि हुई है। द एनर्जी ऐंड रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार पिछले एक दशक में साइकिल चालकों की संख्या ग्रामीण क्षेत्रों में 43 फीसदी से बढकर 46 फीसदी हुई है। जबकि शहरी क्षेत्रों में यह संख्या 46 फीसदी से घटकर 42 फीसदी पर आ गयी है। इसकी मुख्य वजह साइकिल सवारी का असुरक्षित होना ही पाया गया है।
बच्चे सबसे पहले साइकिल चलाना ही सीखते हैं। इसलिए बचपन में हम सभी ने साइकिल चलायी है। पहले के जमाने में जिसके पास साइकिल होती थी वह बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति माना जाता था। गांव के लोग जब कभी शहरों में जाते थे। तब लोगों को साइकिल चलाते हुए देखते थे और फिर वे खुद भी धीरे-धीरे साइकिल चलाना सीख जाते थे। पहले शहरों में किराये पर भी साइकिलें मिलती थी। देश की युवा पीढ़ी को अब साइकिल के बजाय मोटरसाइकिल ज्यादा अच्छी लगने लगी है। शहरों में मोटरसाइकिल का शौक बढ़ रहा था।
गांवों में भी इस मामले में बदलाव की शुरुआत हो चुकी थी। इसके बावजूद भारत में साइकिल की अहमियत खत्म नहीं हुई है। 1990 के बाद से साइकिलों की बिक्री में बढ़ोतरी आयी है। लेकिन ग्रामीण इलाकों में इसकी बिक्री में गिरावट आयी है। दरअसल 1990 से पहले जो भूमिका साइकिल की थी। उसकी जगह गांवों में मोटरसाइकिल ने ले ली है। इसके उपरांत भी साइकिल आज भी हमारे जीवन का अभिन्न अंग हैं। देश में लॉकडाउन के दौरान दूसरे प्रदेशों में कमाने गये लाखों लोग साइकिल पर 1000-1500 किलोमीटर की दूरी तय कर अपने घर पहुंचे थे। संकट के समय साइकिल ही उनके घर पहुंचने का एकमात्र साधन बनी थी।
लॉकडाउन के दौरान लाखों लोगों के घर पहुंचने का सबसे उपयोगी साधन बनने से लोगों को यह बात अच्छी तरह समझ में आ गयी की साइकिल आज भी आम लोगों का सबसे सस्ता व सुलभ साधन है। अब तो विभिन्न प्रकार के फीचर से लैस गियर वाली कीमती साइकिले बाजार में आ गयी है। पहले लोगों के पास सामान्य साइकिले ही हुआ करती थी। जिनके पीछे एक कैरियर लगा रहता था। जिस पर व्यक्ति अपना सामान रख लेता था व जरूरत पड़ने पर दूसरे व्यक्ति को बैठा लेता था। कई बार तो साइकिल सवार आगे लगे डंडे पर भी अपने साथी को बिठाकर 3-3 लोग साइकिल पर सवारी करते थे।
साइकिल से वातावरण में किसी तरह का प्रदूषण नहीं होता था। पेट्रोल डलवाने का झंझट भी नहीं था। साइकिल उठाई पैडल मारे और पहुंच गये अगले स्थान पर। पहले के जमाने में साइकिल के आगे एक छोटी सी लाइट भी लगी रहती थी। जिसका डायनुमा पीछे के टायर से जुड़ा रहता था। साइकिल सवार जितनी तेजी से साइकिल चलाता उतनी ही अधिक लाइट की रोशनी होती थी। तीन साल पहले विश्व साइकिल दिवस के दिन ही भारत की सबसे बड़ी साइकिल निर्माता कंपनी एटलस बंद हो गयी थी। प्रतिवर्ष 40 लाख साइकिल का उत्पादन करने वाली भारत की सबसे बड़ी व दुनिया की जानी मानी कंपनी एटलस के बंद होने से साइकिल उद्योग को बड़ा धक्का लगा है।
एटलस की फैक्ट्री बंद होने से वहां काम करने वाले करीबन एक हजार लोग बेरोजगार हो गये। एटलस साइकिल कम्पनी की स्थापना 1951 में हुई थी। इसका कई विदेशी साइकिल निर्माता कंपनियों के साथ गठबंधन था। जिस कारण एटलस कंपनी की साइकिल दुनिया भर की श्रेष्ठ साइकिलों में शुमार होती थी। अमेरिका के बड़े-बड़े डिपार्टमेंट स्टोर में भी एटलस की साइकिलें बेची जाती थी। अब समय आ गया है कि शहर एवं गांवों में साइकिल चालन को एक बड़े स्तर पर प्रोत्साहन देने का। ताकि बढ़ते प्रदूषण को कुछ हद तक रोका जा सके।
शहरों में समर्पित साइकिल मार्गों का निर्माण किया जाना चाहिये। हमें विश्व साइकिल दिवस को महज एक सांकेतिक कवायद के रूप में नहीं देखना चाहिये। आज के दिन हमें मन ही मन इस बात का संकल्प लेना चाहिये कि हम हमारे रोजमर्रा के काम साइकिल से पूरा करेगें। तभी सही मायने में साइकिल दिवस मनाना सफल हो पायेगा। बढ़ते प्रदूषण की वजह से दुनिया के बहुत से देशों में साइकिल चलाने को बढ़ावा दिया जा रहा है। नीदरलैंड की राजधानी एम्सटर्डम में सिर्फ साइकिल चलाने की ही अनुमति है।
भारत में भी दिल्ली, मुंबई, पुणे, अहमदाबाद और चंडीगढ़ में सुरक्षित साइकिल लेन का निर्माण किया गया है। उत्तर प्रदेश में भी 200 किलोमीटर लम्बा एशिया का सबसे लंबा साइकिल हाइवे बना है। अभी देश में साइकिल चालकों के अनुपात में साइकिल रोड़ विकसित किए जाने की प्रबल आवश्यकता है। पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से देखा जाये तो दुनिया के देशों में साइकिल की वापसी पर्यावरण की दृष्टि से एक शुभ संकेत माना जा सकता है। (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
Subscribe to our website and get the latest updates straight to your inbox.
टीम एबीएन न्यूज़ २४ अपने सभी प्रेरणाश्रोतों का अभिनन्दन करता है। आपके सहयोग और स्नेह के लिए धन्यवाद।
© www.abnnews24.com. All Rights Reserved. Designed by Inhouse