एबीएन एडिटोरियल डेस्क। ये विषय देश की आंतरिक सुरक्षा, सद्भाव और परस्पर समरसता से जुड़ा है। अभी लगातार दो तरह की घटनाएं घटती दिख रही हैं, एक तरफ राहुल गांधी स्वयं से नेतृत्व प्रदान कर रहे हैं तो दूसरी ओर जेएनयू जैसे शिक्षा संस्थान और स्वयंसेवी संस्थाएं हैं जिन्हें टूलकिट के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। उद्देश्य दोनों का समान है, भारत में अराजकता का माहौल पैदा करना।
वर्तमान केंद्र सरकार के खिलाफ अविश्वास की भावना आम जन में भर देना ताकि किसी भी तरह से देश में दंगे-फसाद कराये जा सकें और फिर किसी तरह से वर्तमान नेतृत्व को सत्ता से बाहर कर सत्ता हथियाई जा सके। वैसे देश की एकता, अखण्डता एवं समरसता के लिए पहले भी न्यायालय कई विषयों पर आगे से स्वत: संज्ञान लेकर हस्तक्षेप करता रहा है। इस मुद्दे पर भी माननीय न्यायालय से आग्रह है कि वह आगे आये। देश में घटनाएं कैसे घट रही हैं, आप देखिये; पहले, राहुल गांधी का एक वीडियो सामने आता है, इसे उत्तरप्रदेश के प्रयागराज में संविधान सम्मान सम्मेलन का बताया जा रहा है।
इस सम्मेलन में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी मिस इंडिया कॉन्टेस्ट को लेकर यह दावा करते नजर आ रहे हैं कि देश में नब्बे प्रतिशत लोग सिस्टम का हिस्सा नहीं हैं, कह रहे हैं, मैं तो मिस इंडिया की लिस्ट देख रहा था, उसमें कोई दलित-ओबीसी-आदिवासी, अल्पसंख्यक ही नहीं है। उनके पास हर तरह की प्रतिभा मौजूद है, लेकिन फिर भी वे सिस्टम से जुड़े नहीं हैं। यही कारण है कि हम जाति जनगणना की मांग कर रहे हैं। उनका ये बयान सामने आने के बाद मीडिया ने भी इसे तेजी के साथ आगे बढ़ाया।
स्वाभाविक है, जो आंकड़ों में नहीं जाते, अध्ययन करने पर कम, अपने नेता या वरिष्ठ के कहे पर विश्वास अधिक करते हैं। जो साक्षर हैं किंतु शिक्षित नहीं, वस्तुत: देश में ऐसे करोड़ों लोग हैं। अब ऐसे में राहुल गांधी का दयिा ये बयान उन्हें सही नजर आ सकता है! स्वभाविक तौर पर उनके मन में आक्रोश भी पनप सकता है कि बताओ, स्वाधीनता के 77 वर्ष बाद भी देश में अनुसूचित जाति-जनजाति, ओबीसी और अल्पसंख्यकों को उनका अधिकार क्यों नहीं दिया गया है, बल्कि अभी पर कुछ चुनिंदा अपने में तथाकथित बड़ी जातियों ने कब्जा करके रखा है!
किंतु क्या राहुल गांधी यहां जो कह रहे हैं वह सच है माननीय न्यायालय आप जानते हैं कि राहुल गांधी यहां जूठ बोल रहे हैं। देश में सिर्फ मिस इंडिया ही नहीं अनेक प्रमुख प्रतिष्ठित स्थानों पर अजा, जनजा, अल्पसंख्यक लोग विराजमान रहे हैं और वर्तमान में भी हैं। इस संदर्भ में अनेक तथ्य मौजूद हैं, जैसेकि भारतीय जनता पार्टी नेता तजिंदर पाल सिंह बग्गा ने स्वाधीनता के बाद से अब तक उन महिलाओं की सूची साझा की है, जिन्होंने मिस इंडिया का क्राउन पहना है।
इस लिस्ट को जारी करते हुए तजिंदर बग्गा ने एक्स पर लिखा भी कि इस देश में मिस इंडिया कॉन्टेस्ट 1947 में शुरू हुई, उसमें अल्पसंख्यक समाज की कई बहनें विजेता बनी। उन्होंने जो लिस्ट साझा करते हुए एस्टर विक्टोरिया अब्राहम, इंद्रानी रहमान, फेरिअल करीम से लेकर नायरा मिर्जा, अंजुम मुमताज, फरजारा हबीब, सोनू वालिया, गुल पनाग, साराह जेन डायस, नवनीत कौर ढिल्लन तक के नामों का उल्लेख किया है। वस्तुत: लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी इतना कहने के बाद भी चुप नहीं रहे हैं। उन्होंने केंद्र सरकार पर बड़े आरोप लगा दिए । इसी संविधान सम्मान सम्मेलन कार्यक्रम में बोलते दिखे कि संविधान की रक्षा, दलित, आदिवासी, ओबीसी करते हैं।
यहां प्रश्न यह है कि क्या अन्य जन जो इस सूची से बाहर हैं, वह संविधान की रक्षा नहीं करते फिर उनका यहां यह कहना कि देश के उद्योगपति में कोई दलित आदिवासी नहीं, मोची, धोबी और बढ़ई के हाथों में जबरदस्त स्किल है, पर देश में हुनर की इज्जत नहीं ह, कितना सही है आगे वे कहते दिखे, स्किल डेवेलमेंट की शुरूआत यूपीए ने की थी किंतु 90 प्रतिशत लोग सिस्टम से बाहर बैठे हैं। पीएम मोदी राजा-महाराजा वाला मॉडल चाहते हैं।
अब माननीय न्यायालय आप देखिये, यह संविधान बचाने के नाम पर देश को किस-किस तरह से आपस में यहां के जनसमुदायों को जाति के आधार पर भिड़ाने की कोशिश की जा रहे हैं! जबकि हकीकत यही है कि देश में अनेक उद्योगपति हैं, जोकि अजा, जनजा, पिछड़ावर्ग से आते हैं और वे अपने व्यवसाय में पूरी तरह से सफल हैं। यहां भी राहुल का इस संबंध में किया दावा गलत ठहरता है। इस वक्त राहुल गांधी जिस तरह से आबादी के हिसाब से नीतियां बनाने की बात कह रहे हैं, हम सभी जानते हैं कि वह साम्यवाद का वामपंथी मॉडल है, जो कहता है कि सभी को उनकी जनसंख्या के हिसाब से लाभ मिले।
दरअसल, सुनने में यह बहुत अच्छा लगता है।
किंतु इस मॉडल के अनेक खतरे हैं। पूरी दुनिया इस मॉडल को रिजेक्ट कर चुकी है, यहां तक कि जहां से वामपंथ शुरू हुआ था, वह देश वियतनाम, चीन, जर्मनी, रूस या अन्य कोई देश क्यों न हो। सभी का अनुभव इस मामले में एक जैसा ही है कि यह नीति अपने देश की बहुजनसंख्या को निकम्मा बना देने का काम करती है। अब इस सिद्धांत से चलेंगे तो जो काम करेगा उसे भी उतना ही भाग मिलेगा जितना कि बगैर काम करनेवाले को। ऐसे में योग्य लोगों की जब प्रतिभा का ह्रास होता दिखेगा तो फिर कौन काम करना चाहेगा समाज की व्यवस्था अपने आप डगमगा जायेगी। समाज की श्रम और क्रय शक्ति कमजोर होगी तो स्वभावकि है कि देश कमजोर हो जायेगा।
अभी ये घटना घटी ही थी कि एक दूसरी घटना का वीडियो सामने आया, अबकी बार ये जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) से बाहर आया था, जिसमें कि जेएनयू के अंदर आजादी-आजादी वाले फिर गूंजे हैं। यहां प्रदर्शन के दौरान छात्रों ने कथित तौर पर हिंदू राष्ट्र से आजादी और रामराज्य से आजादी के नारे लगाये हैं। यहां लगे नारों को लेकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की जेएनयू ईकाई के अध्यक्ष राजेश्वर कांत दुबे ने इसके संबंध में खुलकर बताया भी है कि कैसे कुछ वामपंथी अपना प्रोटेस्ट करते हैं और उसमें स्टूडेंट के हित को लेकर के नारे नहीं लगाते, बल्कि सनातन हिन्दू धर्म के खिलाफ ये नारे लगाते हैं।
राजेश्वर कांत दुबे बताते हैं कि जेएनयू में छात्रों की मांगों को लेकर प्रदर्शन कई दिनों से चल रहा था। इसी के तहत कुछ वामपंथी और कांग्रेसियों ने एमओई तक मार्च निकाला। इसमें छात्रों की मांगों को लेकर नारेबाजी नहीं हुई, बल्कि उसमें सनातन हिंदू धर्म के विरोध में नारे लगे। उसमें भारत के खिलाफ भी नारे लगाये गये हैं। अब माननीय न्यायालय आप ही देखें, भारत में कौन सा हिंदू राष्ट्र बन रहा है और कौन सा राम राज्य आ गया जो यह नारे लगाकर एक बहुसंख्यक समाज को विचलित कर देने का प्रयास किया जा रहा है! इसके पीछे के लोगों की आप पड़ताल करेंगे तो मालूम हो जाएगा कि इनके और राहुल गांधी के अंतरंग संबंध कितने गहरे हैं!
वास्वत में लगातार जहर उगल रहे राहुल गांधी बहुसंख्यक हिन्दू समाज को कई टुकड़ों में विभाजित कर देने के षड्यंत्र में रचे-बसे नजर आ रहे हैं। जोकि नेता प्रतिपक्ष होने के नाते अति गंभीर मामला है, जिस पर कि अतिशीघ्र रोक लगना जरूरी है। यहां यह भी ध्यान रखने की आवश्यकता है कि विरोध का मतलब यह कदापि नहीं हो सकता कि देश को कमजोर किया जा सके, वह कोई भी हो, एक जिम्मेदार पद पर बैठकर देश को कमजोर करने की अनुमति किसी को नहीं दी जा सकती है। माननीय न्यायालय अब आपसे ही आस है। (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। देश के सर्वोच्च न्यायालय की चिंता और लगभग पूरे देश के रोष के बाद भी राजनीति पश्चिम बंगाल में कुछ लोगों का कवच बनी हुई है। कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में प्रशिक्षु महिला चिकित्सक की यौन हिंसा के बाद हुई हत्या ने एक बार फिर साबित किया है कि समूचे देश में कामकाजी महिलाओं के लिये कार्यस्थल पर परिस्थितियां कितनी असुरक्षित हैं। वह भी इतनी भयावह कि कार्यस्थल पर ही प्रशिक्षु महिला चिकित्सक के साथ यह सब वीभत्स घट जाता है। निश्चित रूप से कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न मानव अधिकारों का सरासर उल्लंघन ही है।
कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए सुरक्षा अनुकूल वातावरण बनाने के मद्देनजर विशाखा दिशा-निर्देश जारी करने के 27 साल बाद अब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को डॉक्टरों की सुरक्षा को संस्थागत बनाने के लिए तुरंत कदम उठाने के निर्देश दिये हैं। वहीं दूसरी ओर देश की सर्वोच्च अदालत के निर्देश के अनुपालन हेतु गठित एक राष्ट्रीय टास्क फोर्स को चिकित्सा पेशवरों की सुरक्षा, महिला चिकित्सकों के लिये अनुकूल कामकाजी परिस्थितियां बनाने तथा उनके हितों की रक्षा के लिये प्रभावी सिफारिशें तैयार करने का काम सौंपा गया है।
विश्वास किया जाना चाहिए कि ये सिफारिशें यदि जमीनी स्तर पर भी प्रभावी साबित हुईं तो किसी भी पेशे में कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा के लिये असरकारी साबित होंगी। लेकिन यह तभी संभव है जब सभी हितधारक एक स्तर पर एकजुट होकर इस दिशा में काम करेंगे। निस्संदेह, किसी भी दुर्भाग्यपूर्ण घटना होने के वक्त तमाम तरह के उपक्रम होते हैं, लेकिन कुछ समय बाद सब कुछ ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है।
और यही वजह है कि नयी कार्ययोजना बनाते समय इस बात का आकलन करने की सख्त जरूरत महसूस की जा रही है कि महिला सुरक्षा को लेकर मौजूदा कानून और दिशा-निर्देश जमीनी स्तर पर बदलाव लाने में कितने सफल रहे हैं। सही मायनों में कानून बनाने और दिशा-निर्देश जारी करने से ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि उनका अनुपालन कितने पारदर्शी व संवेदनशील दृष्टि से किया जाता है। साथ ही विगत के अनुभवों से भी सबक लेकर आगे बढ़ने की जरूरत है।
यह तथ्य किसी से छिपा नहीं कि वर्ष 2012 के निर्भया कांड के बाद देश में कोलकाता कांड में भी उसी तरह की तल्ख प्रतिक्रिया सामने आयी है। जिसके बाद आवश्यकता महसूस की गई कि ऐसे क्रूर अपराधियों को सख्त से सख्त सजा देने वाले कानून लाये जायें। कालांतर देश में यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम अस्तित्व में आया। दरअसल, महिलाओं के लिये सुरक्षित कार्यस्थल सुनिश्चित करने के प्राथमिक उद्देश्य के साथ ही विशाखा दिशा-निर्देशों के विस्तार के रूप में इसे अधिनियमित किया गया।
यहां उल्लेखनीय है कि पिछले साल, देश की शीर्ष अदालत ने इस अधिनियम के क्रियान्वयन के संबंध में गंभीर खामियों की ओर इशारा किया था। साथ ही इससे जुड़ी अनिश्चितताओं की ओर भी संकेत दिया था। इसके उदाहरण के रूप में महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने तथा सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं के कार्यान्वयन के लिये केंद्र सरकार द्वारा स्थापित निर्भया फंड अक्सर नकारात्मक कारणों से सुर्खियों में रहा है। जिसमें आवंटित धन का पर्याप्त रूप में उपयोग न करना या फिर इस आवंटित धन का दुरुपयोग होना शामिल है।
करीब एक दशक में देश के विभिन्न राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों के लिये महिला सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं के क्रियान्वयन के लिये आवंटित धनराशि का लगभग छिहत्तर प्रतिशत धन ही खर्च हो पाया है। निश्चित रूप से महिला सुरक्षा की ऐसी चुनौतियों के बीच कम धन का खर्च होना एक विडंबना ही कही जायेगी। वहीं इस दौरान देश में दर्ज किये गये बलात्कार के मामलों की संख्या में केवल नौ प्रतिशत की ही गिरावट दर्ज की गयी है। निश्चित रूप से महिलाओं की सुरक्षा को लेकर शुरू की जाने वाली किसी भी नयी पहल पर इन तमाम गंभीर तथ्यों को ध्यान में रखना बेहद जरूरी है।
इसमें दो राय नहीं कि महिलाओं की सुरक्षा और कार्यबल में उनकी बड़ी भागीदारी तब तक अधूरी कही जायेगी, जब तक हम न केवल अपराधियों के खिलाफ बल्कि उन अधिकारियों के खिलाफ भी सख्त कार्रवाई नहीं करते, जो अपने कर्तव्य पालन में लापरवाही के लिये दोषी पाये जाते हैं। (लेखक, वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। क्या आप जानना चाहते हैं कि भारत में ब्लू-कॉलर वर्कर्स कितना कमाते हैं? एक नई रिपोर्ट बताती है कि देश में ज्यादातर ब्लू-कॉलर वर्कर्स को इतनी कम तनख्वाह मिलती है कि वे अपने घर, दवाई और बच्चों की पढ़ाई जैसे जरूरी कामों के लिए भी पैसे नहीं जुटा पाते।
ब्लू-कॉलर नौकरियों में आमतौर पर हाथों से काम करना होता है, जैसे फैक्ट्री में काम करना या कोई भी काम जो आॅफिस में नहीं होता। इनमें निर्माण, उत्पादन, मरम्मत और खनन जैसे काम शामिल हो सकते हैं। पहले लोग सोचते थे कि ब्लू-कॉलर काम करने वाले लोग कम पढ़े-लिखे होते हैं, लेकिन अब ऐसा नहीं है। आजकल कई ब्लू-कॉलर नौकरियों के लिए खास ट्रेनिंग और तकनीकी ज्ञान की जरूरत होती है।
वर्क इंडिया नाम की एक कंपनी की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 57.63% से ज्यादा ब्लू-कॉलर नौकरियों में महीने के 20,000 रुपये या उससे कम की कमाई होती है। इसका मतलब है कि बहुत सारे ब्लू-कॉलर वर्कर्स को बहुत कम पैसे मिलते हैं, जिससे उनके लिए घर का किराया, दवाई और बच्चों की पढ़ाई जैसे जरूरी कामों के लिए पैसे जुटाना मुश्किल हो जाता है।
हालांकि ज्यादातर ब्लू-कॉलर वर्कर्स को कम पैसे मिलते हैं, लेकिन कुछ नौकरियों में अच्छी कमाई होती है। रिपोर्ट के मुताबिक, कुछ काम ऐसे हैं जिनमें 40,000 रुपये से ज्यादा कमाया जा सकता है :
इनमें से बहुत सारे ब्लू-कॉलर वर्कर्स, खासकर 18 से 30 साल के, ज्यादा पैसे कमाने और अच्छी जिंदगी जीने के लिए बहुत मेहनत वाले काम करते हैं, जैसे निर्माण, फैक्ट्री में काम करना, या घर का काम। ज्यादा कमाई के लिए ये लोग अपने देश को छोड़ने में गुरेज नहीं करते।
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। और भारत ने कल अपना 78वां स्वतंत्रता दिवस मना ही लिया। प्रतिपक्ष इस बात का सबूत मांगता रहा कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार की सार्वजनिक क्षेत्र से संबंधित नीतियों में सूक्ष्म किंतु महत्त्वपूर्ण बदलाव आया है तो क्या? पिछले सप्ताह लोकसभा में पेश किया गया नया संशोधन विधेयक ही काफी है। यह सही है कि सैद्धांतिक तौर पर सरकार अपने उस पुराने निर्णय पर अटल है कि कम महत्त्व वाले क्षेत्रों के सरकारी उपक्रमों से वह निकल जाएगी और महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति कम से कम रखेगी, परंतु इस नीति को अगर त्यागा नहीं भी गया है तो फिलहाल यह रुकी हुई प्रतीत होती है।
मोदी सरकार ने आईडबीआई के अलावा दो सरकारी बैंकों के निजीकरण का प्रस्ताव रखा था। तब से तीन वर्ष बीत गए हैं और अब थोड़ी बहुत उम्मीद इस बात की है कि आईडीबीआई बैंक को चालू वित्त वर्ष के अंत तक निजी हाथों में बेच दिया जायेगा। इस माह के आरंभ में केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में बैंकिंग नियमन अधिनियम, भारतीय स्टेट बैंक अधिनियम और बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं अंतरण) अधिनियम में संशोधन के प्रस्ताव को मंजूरी दी गई। इससे उम्मीद बढ़ी कि निजीकरण के मोर्चे पर कुछ प्रगति हो रही है।
जैसा पिछले सप्ताह के घटनाक्रम में दिखा, इन संशोधनों का प्राथमिक उद्देश्य था बैंक खातों और लॉकरों के धारकों के लिए अधिकतम चार व्यक्तियों को नामित किए जाने की अनुमति देना, सहकारी बैंकों के निदेशकों का कार्यकाल बढ़ाना और जिस लाभांश, शेयर तथा ब्याज या बॉन्ड की रकम पर दावा नहीं किया गया, उन्हें निवेशक शिक्षा एवं संरक्षण कोष में भेजने में सहायता करना। सरकारी उपक्रमों में सरकार की हिस्सेदारी बेचने की गति भी काफी धीमी रही है। 2017-18 और 2018-19 में विनिवेश राजस्व एक लाख करोड़ रुपये के करीब रहा। उन दोनों वर्षों में तेजी के बाद इस मोर्चे पर सरकार का प्रदर्शन निरंतर कमजोर होता रहा। महामारी के बाद खासतौर पर ऐसा हुआ।
जब विनिवेश को शानदार प्रतिक्रिया मिल रही थी उस दौर में भी इससे होने वाली आय सकल घरेलू उत्पाद के 0.5 फीसदी से 0.6 फीसदी के बीच ही थी। बाद के वर्षों में तो यह और कम हुई तथा 2019-20 में जीडीपी की 0.25 फीसदी और गत वर्ष 0.11 फीसदी रह गयी। विनिवेश आय में लगातार गिरावट पर आधिकारिक टिप्पणी में कहा गया है कि सरकार मूल्य निर्माण पर ध्यान केंद्रित कर रही है और सरकारी उपक्रमों में हिस्सेदारी बेचने का निर्णय सही समय पर लिये जाने के संकेत हैं।
क्या सरकारी उपक्रमों से मिलने वाला लाभांश इतना बढ़ गया है कि उसने सरकार का यह भरोसा दे दिया कि मूल्य निर्माण शुरू हो गया है और उनके प्रदर्शन में सुधार कम से कम गैर कर राजस्व बढ़ाएगा और उसकी वित्तीय स्थिति मजबूत करेगा? नहीं। वित्तीय क्षेत्र से बाहर के सरकारी उपक्रमों के लाभांश धीमी गति से बढ़ा है। 2023-24 यह 50,000 करोड़ रुपये पर पहुंचा था, जो दस साल पहले की तुलना में केवल दोगुना हो पाया था। जीडीपी के प्रतिशत के रूप में भी गत वर्ष लाभांश केवल 0.17 फीसदी रह गया, जबकि 2013-14 में यह 0.23 फीसदी था।
यानी लाभांश तेजी से नहीं बढ़ रहा है और विनिवेश से आय घट रही है। यह वृद्धि सरकारी इक्विटी निवेश तीन गुना होने के साथ-साथ सरकारी उपक्रमों की अधिक आंतरिक संसाधन जुटाने की क्षमता का परिणाम थी। इससे यह भी पता चला कि सरकारी उपक्रमों की हिस्सेदारी की रणनीतिक बिक्री और विनिवेश पर तमाम बातों के बावजूद मोदी सरकार सार्वजनिक क्षेत्र को अधिक संसाधन प्रदान करने और अधिक संसाधन जुटाने की उनकी क्षमता में इजाफा करने में लगी हुई थी। चिंता की बात यह है कि बीते कुछ सालों में सरकारी क्षेत्र के निवेश की कहानी अक्षुण्ण रही क्योंकि सरकार इक्विटी निवेश करती रही।
कोविड के बाद के दौर में सरकारी क्षेत्र की आंतरिक संसाधन जुटाने या ऋण जुटाने की क्षमता प्रभावित हुई है। अगर सरकार को लगता है कि मूल्य निर्माण सरकारी क्षेत्र के लिए रणनीति है तो उसे इक्विटी डालने के अलावा भी कुछ करना होगा। इक्विटी निवेश भी भारत संचार निगम लिमिटेड, भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण और भारतीय रेल जैसे कुछेक संस्थानों तक सीमित हैं। बीते दो सालों के कुल पूंजीगत आवंटन में इन संस्थानों की हिस्सेदारी 87-90 फीसदी रही।
सरकार अनंतकाल तक सरकारी उपक्रमों में पूंजी नहीं डाल सकती। उसे प्रदर्शन के दूसरे पैमाने तय करने ही होंगे ताकि बेहतर वित्तीय नतीजे पाए जा सकें और सरकारी खजाने पर बोझ कम हो सके। राजनीतिक रूप से सरकार शायद निजीकरण की योजना पर धीमी गति से आगे बढ़ना चाहे और सरकारी उपक्रमों में और अधिक धन डालती रहे। परंतु सार्वजनिक क्षेत्र के वित्तीय प्रदर्शन की मौजूदा चुनौतियों से निपटने के लिए विश्वसनीय और प्रभावी आर्थिक नीति की जरूरत है। राजनीति और अर्थशास्त्र का एक दूसरे से लगातार दूर बने रहना वांछित नहीं है।
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। इस्लामिक अतिवादियों, उपद्रवियों और आतंकवादियों ने छात्र आंदोलन के नाम पर बांग्लादेश में शेख हसीना सरकार के इस्तीफे के बाद कई जगहों पर हिंदुओं पर हमले करना जारी रखा है। आधिकारिक तौर पर 500 से अधिक हिंदू मंदिरों, सैकड़ों घरों और हजारों व्यापारिक प्रतिष्ठानों को शरिया की चाह रखनेवाले और गैर मुस्लिम को अपना शत्रु समझनेवाले मुसलमानों ने निशाना बनाया है।
हिंदुओं की संपत्ति लगातार लूटी जा रही है। उनकी हत्या की जा रही है और उनके शवों को लटकाया जा रहा है। दूसरी ओर हिन्दू महिलाओं के साथ सामूहिक रेप हो रहे हैं। ये जिहादी इस्लामवादी बच्चियों को भी नहीं छोड़ रहे और इस प्रकार की घटनाओं की संख्या लगातार बढ़ती जा रही हैं । कई कट्टरपंथी तो साफ तौर पर हिन्दुओं को निशाना बनाने की बात कहकर सोशल मीडिया में वीडियो वायरल कर रहे हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा हिन्दुओं को निशाना बनाया जा सके।
ये इस्लामवादी यहां तक नीचता पर उतर आए हैं कि मारते वक्त पैंट नीचे उतारकर देखते हैं कि हिन्दू ही है या नहीं। जैसे ही पिटनेवाले का हिन्दू होना कन्फर्म हो जा रहा है कि इसका खतना नहीं हुआ, सभी ओर से उसे जान से मार देने के लिए टूट पड़ रहे हैं । पिछले तीन दिन में इस प्रकार के अनेक वीडियो सामने आ चुके हैं और अत्याचार के ये वीडियो लगातार सामने आते ही जा रहे हैं ।
ऐसे में गाजा पर, हमास और फिलिस्तीनियों के नाम पर इजराइल की सैन्य कार्रवाई को लेकर आंसू बहानेवाले मानवाधिकार संगठनों, यूनिसेफ समेत अन्य वैश्विक संस्थाओं की हिन्दू अत्याचार पर चुप्पी बहुत चुभ रही है। जबकि कहने को ये अपने आप को मानवाधिकार का सबसे बड़ा झण्डाबरदार मानते हैं । यूएन का बयान आया भी तो वह हिन्दुओं के ऊपर हो रहे कई दिन के अत्याचार के बाद । बांग्लादेश के कुल 64 जिलों में 50 से अधिक में हिन्दू विरोधी हिंसा जारी है।
दरअसल, अभी यूनाइटेड नेशन (यूएन) जिसकी अधिकारिक वेबसाइट पर तमाम मानवीयता का दावा करनेवाली स्टोरी तैरती नजर आ रही हैं, लेकिन यदि कुछ उसमें गायब है तो वह है हिन्दू अत्याचार से जुड़ी बांग्लादेश की एक भी स्टोरी का वहां नहीं पाया जाना । सबसे ज्यादा यूएन यदि मानवीयता के नाम पर कवरेज किसी को देता दिख रहा है तो वह गाजा है। उसके बाद दूसरे नंबर पर सूडान की समस्याओं का निदान है, उसके लिए किए जा रहे कार्य हैं ।
वहीं दिनांक 07 अगस्त के ताजा अपडेट में संयुक्त राष्ट्र को चिंता अफगान महिलाओं की सबसे ज्यादा दिखाई दे रही है और इसलिए वह ऑस्ट्रेलिया सरकार, अफगान हत्याओं के लिए मुआवजा दे, मानवाधिकार विशेषज्ञ शीर्षक से स्टोरी कर रहा है । वह कवरेज दे रहा है गाजा में स्कूलों पर इजराइली हमलों में तेजी पर गम्भीर चिन्ता शीर्षक के माध्यम से वहां की इस्लामिक जनता की चिंता उसे है, यह बताने की ।
यूनाइटेड नेशन (यूएन) को इस वक्त सबसे ज्यादा लेबनान, सीरिया गोलान पहाड़ियां और ईरान की राजधानी तेहरान में हुए हमलों से पूरे क्षेत्र में टकराव भड़कने की आशंका सता रही है। इसे मुस्लिम बच्चों और महिलाओं की चिंता है। इससे जुड़े सभी मानवाधिकार कार्यकर्ता और संगठन इन्हीं पर फोकस कर कार्य करते नजर आ रहे हैं, जैसा कि इसने अपनी रिपोर्ट्स में अधिकारिक वेबसाइट के माध्यम से बताया है, लेकिन उसे बांग्लादेश में जो अमानवीयता-अत्याचार हो रहा है, वह दिखाई नहीं दे रहा ।
हालांकि कुल तीन स्टोरी बांग्लादेश पर यूएन ने करवाई हैं, किंतु ये सभी सतही हैं। सामान्य डेटा है इसमें । यहां हिन्दुओं पर जो भयंकर अत्याचार हो रहे हैं, उस पर एक शब्द भी यूएन के माध्यम से अब तक नहीं बोला गया और न ही कोई स्टोरी फ्लेश की गई है । जबकि यूएन अपनी अधिकारिक वेबसाइट पर यह दावा जरूर करता दिखा है कि यूएन न्यूज यानी कि वैश्विक परिप्रेक्ष्य में मानवीय कहानियां (Global perspective Human stories) यही साझा करना उसका अहम कार्य है।
दूसरी ओर वास्तविकता में यहां यही दिखाई दे रहा है कि उसे ईसाईयत और इस्लाम से जुड़े लोगों की चिंता सबसे अधिक है, उनके मानवाधिकार उसे याद हैं, जैसा कि उसकी वेबसाइट https://news.un.org में देखा जा सकता है लेकिन वैश्विक मानवाधिकार की पैरोकार बननेवाले इस संगठन को हिन्दुओं के अत्याचारों से कोई भी लेना-देना नहीं है।
यही हाल यहां दूसरे सबसे बड़े बच्चों और महिलाओं के वैश्विक मंच होने का दावा करने वाले उनकी सर्वाधिक चिंता जतानेवाले संगठन यूनिसेफ का नजर आ रहा है । कहने को इस संगठन का दावा है कि दुनिया के हर देश में उनके वॉलंटियर एवं पेड वर्कर्स हैं, जिनके माध्यम से यह बच्चों एवं महिलाओं के हित में चहुंमुखी और सर्वाधिक कार्य करता है, लेकिन बांग्लादेश हिन्दू हिंसा पर ये संगठन भी पूरी तरह से गायब है, कहीं कोई आवाज इसकी सुनाई नहीं दे रही। ये पूरी तरह से चुप नजर आ रहा है ।
इसे भी आज यदि किसी की सबसे ज्यादा चिंता हो रही है जैसा कि दिखाई भी दे रहा है तो वह गाजा में रह रहे मुसलमान हैं। वे ही इस यूनिसेफ संगठन की नजरों में सबसे बड़े पीड़ित हैं, इसलिए ही यह अधिकारिक तौर पर Children in Gaza need life-saving support, UNICEF and partners are on the ground स्टोरी को पहले स्थान पर रखकर चल रहा है।
इसके बाद https://www.unicef.org/ जो विशेष स्टोरी महिलाओं एवं बच्चों के हित में यहां देता दिख रहा है, उसमें भी अफ्रिका के सूडान, हेती एवं अन्य देश शामिल हैं लेकिन बांग्लादेश के इस्लामिक जिहादियों से प्रताड़ित होते बच्चे और महिलाएं कहीं भी अपनी स्टोरी या दर्द भरी दांसता में (यूनिसेफ़) इसके यहां अपनी जगह नहीं बना सके हैं।
इसी तरह से कई वैश्विक एवं स्थानीय मानवाधिकार संगठनों, मानवाधिकार समूह एमनेस्टी इंटरनेशनल एवं अन्य की पहली प्राथमिकता में गाजा, फिलीस्तीन अफ्रीका, अफगानिस्तान एवं अन्य इस्लामिक देश एवं युरोपियन देश तो हैं, लेकिन बांग्लादेश में हिन्दू प्रताड़ित और अत्याचार से अपनी जान गंवा रहे हैं, यह उनके लिए भी कोई महत्व नहीं रखता है। जबकि वास्तविकता बांग्लादेश में सर्वत्र भयावह है।
ढाका के धामराई में एक हिंदू परिवार के घर पर 100-150 इस्लामिक चरमपंथियों की एक भीड़ आती है, घर को तोड़ देती, सारी संपत्ति लूट लेती है और घर में बने मंदिर को क्षत-विक्षत कर दिया जाता है। हिंदू परिवार पर हुए हमले की इस घटना को बांग्लाादेशी अखबार ढाका ट्रिब्यून ने प्रकाशित किया है। यहां ऐसे अनेक परिवारों पर लगातार हमले हो रहे हैं।
प्रश्न यह है कि ये सब कुछ बांग्लादेश में आरक्षण समाप्त करने के लिए छात्र आंदोलन के नाम पर हो रहा है! एक सवाल लगातार उठ रहे हैं, कि आखिर छात्र आंदोलन इतना हिंसक क्यों हो गया? आज यह सवाल उठना बहुत लाजमी भी है क्योंकि छात्रों के प्रदर्शन का मकसद सिर्फ आरक्षण को खत्म करना नहीं दिखा है, इससे इतर इसकी आड़ में इस्लाम का अतिवादी चेहरा दुनिया को दिखाना और यहां के अल्पसंख्यकों को समाप्त करके शरिया राज की स्थापना करना दिखाई दे रहा है !
जिस सरजिस आलम, छात्र नेता की बात जोरशोर के साथ शेख हसीना सरकार के खिलाफ हुए आंदोलन में केन्द्रीय भूमिका निभाने को लेकर हो रही है, उसके बारे में भी यह सामने आ चुका है कि उसका मूल मकसद छात्र आन्दोलन एवं अवाम को भड़काकर बांग्लादेश में शरिया आधारित इस्लाम की स्थापना करना है। सरजिस आलम ने फेसबुक पोस्ट में लिखा था, कल का राष्ट्र इस्लाम होगा, संविधान अल कुरान होगा - इंशा अल्लाह। जब उसकी इस पोस्ट से इस पूरे आन्दोलन का पर्दाफाश हुआ तो उसने फिर दूसरा चेहरा दिखाना शुरू कर दिया और इसलिए इस सरजिस आलम ने अपना फेसबुक पोस्ट डिलीट कर दिया। लेकिन बांग्लादेश को शरिया राष्ट्र में बदलने की उसकी मंशा अब दुनिया के सामने उजागर हो चुकी है।
बांग्लादेशी पत्रकार सलाह उद्दीन शोएब चौधरी इस बारे में जानकारी देते हुए लिख रहे हैं, कि सरजिस आलम बांग्लादेश में जिस इस्लाम की स्थापना करना चाहता है, उस शरिया देश में हिंदुओं और गैर-मुस्लिमों को जजिया देना होगा, जबकि गैर-मुस्लिम लड़कियों और महिलाओं को गनीमत की संपत्ति माना जाएगा, जिसका अर्थ है कि इस्लामवादी उन्हें यौन दास के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं। उन्होंने आगे लिखा है, कि विवेक रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति नैतिक रूप से इसका सामना करने के लिए बाध्य है। कृपया इस जानकारी को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाएं। आइए, हम इस्लामवादियों को बांग्लादेश को नव-तालिबान राज्य में बदलने से रोकें।
इस सब के बीच बड़ी और दुखभरी बात यह है कि दुनिया में एक देश जिसमें कि एक करोड़ से अधिक हिन्दू आबादी है, आज उनके घर लूटे जा रहे हैं, उनसे जीवन जीने का हक छीना जा रहा है, उन्हें अपना गुलाम बनाने पर ये इस्लामवादी मुसलमान मजबूर कर रहे हैं या फिर उन्हें अपना सब कुछ छोड़कर बांग्लादेश से बाहर जाने को कह रहे हैं।
दुखद है कि इन सभी हिन्दुओं पर होता अत्याचार वैश्विक स्तर पर बड़े बड़ों को जो अपने को शक्तशाली कहते हैं, उन्हें दिखाई नहीं दे रहा है। हर साल दुर्गापूजा पर इन्हें (हिन्दुओं को) निशाना बनाया जाता है। भारत में कुछ सांप्रदायिक मामले होते हैं तो हिंसा बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर शुरू हो जाती है। 1992 में भी निशाना बनाया गया था, जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिरा दिया था और पिछले 10 सालों में यहां पर कम से कम 05 हजार से अधिक हमलों की रिपोर्ट हुई है , जिसमें बर्बरता, आगजनी और लक्षित हिंसा शामिल है।
अभी तख्तापलट की स्थिति में यहां पर 27 जिलों में हिन्दुओं को मुस्लिम भीड़ ने अपना निशाना बनाया है। कई तस्वीरें विचलित करने वाली हैं। हालांकि, कई जगहों पर भीड़ को दूर रखने की पूरी कोशिश करते हुए, कुछ लोग मंदिरों के बाहर पहरा देते देखे जा रहे हैं। उनके भी वीडियो सामने आए हैं लेकिन फिर बाद में वे वीडियो भी आ रहे हैं कि वहां जैसे ही भीड़ पहुंचती है, उसने सभी कुछ नष्ट कर दिया।
जो मंदिर को बचाने के लिए पहले खड़े दिखाई दे रहे थे, वे भी फिर गायब हो गए । फिलहाल कोई मानवाधिकार संगठन हिंदुओं की रक्षा के लिए यहां दिखाई नहीं दे रहा है । इसमें भी दुख इस बात का सबसे अधिक यह है कि भारत में भी वह वर्ग जो अल्पसंख्यक अत्याचार के नाम पर या अन्य विवाद पैदा कर बार-बार आंसू बहाता, सड़कों पर निकलता, अधिकारों की बात करता हुआ दिखाई देता है, यहां वह वर्ग भी चुप्पी साधकर बैठा हुआ है।
यूएन, यूनिसेफ तो छोड़िए भारत के इन कथित सेक्युलरों के मुंह बंद होने पर आज इनका दोगलापन साफ दिखाई दे रहा है। इस सेक्युलर जमात में से वह भीड़ भी आज होते हिन्दू अत्याचार पर चुप और गायब है जो भारत में छोटी-छोटी बातों को बड़ा बनाकर हिन्दुओं के विरोध में लगातार एक प्रोपेगेंडा तथा नैरेटिव खड़ा करती है । जिन्होंने हमास के समर्थन में, गाजा में हिंसा के नाम पर इजराइल के विरोध में, फिलिस्तीन के हक में और न जाने ऐसे कितने ही वीडियो बना डाले।
सोशल मीडिया पर अभियान ले चला डाले तथा लम्बी-लम्बी पोस्ट उनके समर्थन में लिखी हैं; यहां ये सभी बांग्लादेश में हो रहे हिन्दू अत्याचार पर मौन दिखाई दे रहे हैं। अब इसे क्या कहें? मानवता की हत्या या संवेदनशीलता की मौत, जोकि हिंसा को हिंसा नहीं मानते, उसमें भी पंथ, मजहब, धर्म और मत देखते हैं और लाशों पर चुप रहते तथा हर वक्त अपने हित की राजनीति करते हैं। (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)
एबीएन एडिटोरियल डेस्क। हमारे शहरों के हर कोने में, जहां पर जीवन एक अलग लय में बहता है और जहां सपनों को उड़ने के लिए पंख मिलते हैं, इसके पीछे एक कड़वी हकीकत छिपी है, जिसे अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। शहरी जरूरतमंद, जो शहर को जीवित रखने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, उन्हें जीवन की बुनियादी जरूरतों के बिना, खुद को ही संभालना पड़ता है। गर्म भोजन, साफ कपड़े और सोने के लिए सुरक्षित जगह उनके लिए सिर्फ एक दूर का सपना होता है।
सोचिये, यदि आपका घर सड़क के किनारे हो और पूरी तरह से अस्थायी हो, जो मौसम की मार झेलने के लिए सबसे आगे खड़ा हो और सड़क के किनारे होने की वजह से हर पल अपने ऊपर खतरा मोल लिये हो, तो यह कैसा लगेगा? यह कल्पना में भी अच्छा प्रतीत नहीं हो रहा है न...! लेकिन कई लोगों के लिए, यह सिर्फ एक काल्पनिक स्थिति नहीं है, बल्कि एक कठिन सच है, जिसका सामना वे हर दिन करने को मजबूर हैं।
सड़कें, जो प्रगति का प्रतीक होनी चाहिए, एक जेल बन जाती हैं जिसमें कोई बचाव, कोई सुरक्षा नहीं है। इन सड़कों पर रहने वाले परिवार, जिसमें छोटे बच्चे और बुजुर्ग भी शामिल हैं, अपने ही जीवन से संघर्ष करते हैं, और साथ ही किस्मत की मार और समाज की उदासीनता बिना किसी शिकायत के सहते चले जाते हैं।
आप अक्सर इन लोगों को सड़क के किनारे देख सकते हैं, जो फटे हुए कंबल के नीचे सिमटे हुए मिल जाएँगे। उनके सपने बड़े ही सरल होते हैं, सिर्फ एक ऐसी जगह मिल जाए, जहां वे सुरक्षित रह सकें, बिना डर के उठें और अपने परिवार के साथ सुकून से रह सकें। फिर भी, ये सपने कई लोगों को हासिल नहीं हो पाते, और ये लोग गरीबी के लगातार संघर्ष के साए में ही अपना सारा जीवन निकाल देते हैं।
यह कितना हृदयविदारक है कि किसी की एक पल की जरा-सी लापरवाही कैसे किसी के जीवन को बर्बाद कर सकती है। एक तेजी से चलती कार, एक ध्यान भटका हुआ ड्राइवर और एक पल में एक जीवन समाप्त हो जाता है। निर्दोष पीड़ित, जिसकी केवल इतनी गलती थी कि उसने एक रात बिताने के लिए सड़क के किनारे का सहारा लिया था, एक्सीडेंट की वजह से मरने वालों की संख्या में महज एक दु:खद आंकड़ा बन कर रह जाता है।
हाल ही में वित्त वर्ष 2024 के लिए बजट पेश किया गया, जिसमें हाशिये पर खड़े लोगों के लिए एक उम्मीद की किरण उभरी है। सरकार ने अगले पांच सालों में एक करोड़ शहरी गरीबों और मध्यम वर्गीय परिवारों की आवासीय जरूरतों को पूरा करने के लिए 2.2 लाख करोड़ रुपए की केंद्रीय सहायता की घोषणा की है, जो प्रधानमंत्री आवास योजना-शहरी के तहत आयेगी। यह पहल सिर्फ एक नीति नहीं है, बल्कि उन लोगों के लिए एक वरदान भी है, जो प्रगति की दौड़ में सबसे पीछे रह गये हैं।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की घोषणा में एक ब्याज सब्सिडी भी शामिल है, जो सस्ती दरों पर लोन देने का वादा करती है, जिससे कई लोगों का अपने घर का मालिक बनने का सपना सच हो सकेगा। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत तीन करोड़ अतिरिक्त घरों की योजना के साथ, सरकार हर नागरिक को एक सुरक्षित जगह देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठा रही है।
यह पहल हमारे देश के कमजोर और जरूरतमंद लोगों के लिए एक अत्यंत आवश्यक कदम है। यह उनकी संघर्षों की मान्यता है और उन्हें एक बेहतर भविष्य देने की प्रतिबद्धता है। सिर पर छत की परिभाषा केवल आश्रय मात्र ही नहीं होती है, बल्कि यह गरिमा, सुरक्षा और उम्मीद का प्रतीक भी होती है। यह लोगों को बिना लगातार विस्थापन के डर के, एक बेहतर जीवन बनाने के लिए आवश्यक आधार प्रदान करती है।
अगले पांच वर्षों की ओर गौर करेंगे, तो हम पायेंगे और यह सच भी है कि हर आंकड़े के पीछे एक इंसान होता है, जिसे सपने, आकांक्षाएं और गरिमा के साथ जीवन जीने का हक है। आइये, हम भी सरकार के साथ मिलकर उन सभी पहलों का समर्थन करें, जो शहरों में रहने वाले गरीबों को बेहतर जीवन देने का प्रयास करती हैं और सुनिश्चित करें कि वे शहर की सड़कों पर अपना जीवन जीने के लिए मजबूर न हों।
साथ मिलकर, हम एक ऐसे समाज की स्थापना कर सकते हैं, जहां हर किसी को एक बेहतर जीवन का उचित मौका मिले और जहां सड़कें प्रगति के रास्ते हों; गरीबी की जेल नहीं। एक घर सिर्फ चार दीवारें और एक छत से ज्यादा होता है। यह एक आश्रय, आराम का स्थान और उम्मीद का प्रतीक होता है।
आइये, इस सपने को हर नागरिक और विशेष रूप से हर एक जरूरतमंद के लिए वास्तविकता बनाने की कोशिश करें और साथ ही यह सुनिश्चित करें कि हमारी और हमारे देश की प्रगति और समृद्धि की यात्रा में कोई भी पीछे न छूटे। (लेखक और राजनीतिक रणनीतिकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)
एबीएन सेंट्रल डेस्क। मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल का चिर प्रतीक्षित पहला बजट अनुमानों के अनुरूप ही रहा है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने लगातार अपना सातवां बजट पेश किया है। बजट में भारत को विकसित देश का दर्जा दिलाने के लिए आवश्यक दीर्घ अवधि के लक्ष्य निर्धारित करने को प्राथमिकता दी गयी है।
बजट में गठबंधन सरकार के लिए जरूरी राजनीतिक कसरत का भी बखूबी ध्यान रखा गया है और सरकार उन दलों की मांगों के आगे नतमस्तक हुई है जिनका समर्थन उसके अस्तित्व के लिए अति आवश्यक है। पूर्ण बजट में राजस्व एवं व्यय के आंकड़े अंतरिम बजट के प्रावधान के करीब ही हैं।
अंतरिम बजट में व्यक्त अनुमानों की तुलना में भारी भरकम लाभांश मिलने से केवल गैर-कर राजस्व के आंकड़ों में इजाफा किया गया है। राजकोषीय घाटे के अनुमान में मामूली सुधार किया गया है।
वित्त वर्ष 2024-25 के बजट में तीन जरूरी बातों का समावेश किया गया है। पहली बात, यह बजट काफी पारदर्शी रहा है और कोई बात या बजट से इतर देनदारी पर्दे के पीछे नहीं रखी गयी है। इसका फायदा यह है कि इससे वृहद आर्थिक हालात पर बजट प्रावधानों के असर को समझने में मदद मिलती है। दूसरी बात, कोविड महामारी के बाद राजकोषीय स्थिति सुदृढ़ बनाने के प्रयास तेज हो गये हैं।
इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए वित्त वर्ष 2025-26 तक राजकोषीय घाटे का लक्ष्य सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 4.5 प्रतिशत तक सीमित रखने का लक्ष्य रखा गया है। वित्त मंत्री ने कहा है कि राजकोषीय ढांचा घाटा धीरे-धीरे घटाने के बाद भी सरकार इसे और कम करने के लिए काम करती रहेगा ताकि कर्ज बोझ घटाया जा सके। हालांकि, कितनी कमी संभव हो पाएगी और इसमें कितना समय लगेगा इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है।
तीसरी बात, सरकार राजकोषीय स्थिति सुदृढ़ करने के साथ ही पूंजीगत आवंटन भी बढ़ाती रही है ताकि अर्थव्यवस्था की रफ्तार तेज बनी रहे। जीडीपी के सापेक्ष केंद्र सरकार का पूंजीगत आवंटन निरंतर बढ़ रहा है और यह 2024-25 के बजट में बढ़कर 3.4 प्रतिशत हो गया है, जो 2020-21 में 1.7 प्रतिशत था। जैसा ऊपर चर्चा की गयी है, अंतरिम बजट की तुलना में राजकोषीय घाटे से जुड़े आंकड़े बेहतर नजर आ रहे हैं। राजकोषीय घाटा 5.1 प्रतिशत के बजाय 4.9 प्रतिशत तक सीमित करने का लक्ष्य रखा गया है और राजस्व घाटा अंतरिम बजट के 2 प्रतिशत की तुलना में 1.8 प्रतिशत रखा गया है।
अस्थायी वास्तविक आंकड़ों की तुलना में राजकोषीय घाटा 5.6 प्रतिशत से 0.7 प्रतिशत कम यानी 4.9 प्रतिशत है। राजकोषीय घाटा भी 2.6 प्रतिशत की तुलना में 0.8 प्रतिशत कम यानी 1.8 प्रतिशत है। राजकोषीय घाटा 4.5 प्रतिशत तक समेटने का लक्ष्य प्राप्त करना और अगले साल इसे और कम करना मुश्किल भी नहीं है।
अंतरिम बजट में व्यक्त अनुमान की तुलना में सरकार को लाभांश के रूप में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) से 1.1 लाख करोड़ रुपये अधिकांश मिले हैं। इस रकम का इस्तेमाल मोटे तौर पर दो बड़ी सहयोगी दलों की मांग पूरी करने में हुआ है। केंद्र सरकार आंध्र प्रदेश और बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने से दूर रही है मगर दोनों महत्त्वपूर्ण सहयोगी भारी भरकम राशि झटकने में जरूर कामयाब रहे हैं।
बिहार को बक्सर में गंगा पर दो लेन वाले पुल के लिए 26,000 करोड़ रुपये मिले हैं और 21,000 करोड़ रुपये पीरपैंती में 2,400 मेगावॉट बिजली संयंत्र स्थापित करने के लिए आवंटित किए गए हैं। इनके अलावा राज्य में कई सड़क संपर्क परियोजनाएं, मेडिकल कॉलेज, पर्यटन परियोजनाएं, खेल ढांचे तैयार करने के भी वादे किए गए हैं।
बिहार प्रस्तावित पूर्वोदय (देश के पूर्वी भाग के सर्वांगीण विकास की योजना) का भी हिस्सा है। आंध्र प्रदेश भी केंद्र सरकार ठीक ठाक रकम अपने नाम कराने में सफल रही है। राज्य को प्रस्तावित नई राजधानी बसाने के लिए 15,000 करोड़ रुपये मिलेंगे। पोलावरम सिंचाई परियोजना पूरी करने के लिए राज्य को आवश्यक राशि दी जायेगी।
बजट में विशाखापत्तनम-चेन्नई औद्योगिक गलियारे और हैदराबाद-बेंगलूरु औद्योगिक गलियारे पर जल, बिजली, रेल और सड़क जैसी आवश्यक सेवाओं के विकास के लिए रकम देने का वादा किया गया है। रायलसीमा, प्रकाशम और उत्तर तटवर्ती आंध्र के पिछड़े क्षेत्रों के आर्थिक विकास के लिए अतिरिक्त पूंजी निवेश की भी घोषणा की गई है। आंध्र प्रदेश वैसे तो देश के दक्षिणी हिस्से में है मगर इसे भी पूर्वोदय परियोजना में रखा गया है। इस घोषणाओं पर न केवल इस वित्त वर्ष बल्कि आने वाले वर्षों में भी भारी भरकम रकम खर्च की जायेगी।
ऐसी असमान व्यवस्थाओं के साथ समस्या यह है कि इनमें कोई सधी नीति नहीं दिखाई दे रही है। ये निर्णय बदले राजनीतिक समीकरणों के कारण लिये जाते हैं और सत्ताधारी दल हमेशा दूसरे दलों को अपने साथ जोड़ने के बदले वित्तीय लाभ देने की पेशकश कर सकती है। यह एक स्वस्थ संघीय व्यवस्था के दीर्घ अवधि के हित के लिए शुभ नहीं है।
संविधान में वर्णित वित्त आयोग के माध्यम से राज्यों को रकम देने का प्रावधान पहले से मौजूद है। वित्त आयोग एक संवैधानिक संस्था है जिसे राज्यों की आवश्यकताओं की समीक्षा करने का उत्तरदायित्व दिया जा सकता है। आने वाले समय में केंद्र सरकार में सहयोगी और कई मांगें रख सकते हैं। देखने वाली बात यह है कि केंद्र सरकार अपने सहयोगी दलों की मांगों से कैसे निपटती है।
विकसित देश का ओहदा हासिल करने के लिए किसी देश को प्रतिस्पर्द्धी बनना पड़ता है। कोई भी देश शुल्कों को ऊंचे स्तरों पर रखकर सालाना 8 प्रतिशत औसत वृद्धि दर हासिल नहीं कर पाया है। बजट में प्रस्तावित दरों में बदलाव भारत के संरक्षणवादी रुख को नहीं बदल पा रहा है, इसलिए इस विषय पर दोबारा विचार करने की जरूरत है। इसी तरह, पुरानी आयकर व्यवस्था के अनुसार आयकर भुगतान करने का विकल्प समाप्त करने और नई प्रणाली में दरें तर्कसंगत बनाने का समय आ गया है।
कर सुधार करने का सबसे बढ़िया एवं व्यावहारिक तरीका यह हो सकता है कि एक व्यापक आधार और दरों में कम भिनन्ता वाली एक सरल प्रणाली तैयार की जाये। कराधान में तरजीह देकर कर नीति से कई लक्ष्यों के साधना केवल अनुपालन लागत बढ़ाता है और बाधाएं उत्पन्न करता है। व्यक्तिगत आय कर में अब छह नयी दरें हैं और राजस्व का नुकसान उठाए बिना इन्हें घटाकर तीन किया जा सकता है।
उम्मीद तो यही की जा रही है कि देर सबेर कर दरों में संशोधन किए जाएंगे। वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में जीएसटी का दायरा बढ़ाने की बात की है और उम्मीद की जा सकती है कि जीएसटी परिषद की अगली बैठक में इस पर चर्चा होगी। (लेखक 14वें वित्त आयोग के सदस्य रह चुके हैं)
अंबानी जी ने अपने सागर में से एक गागर पानी निकाला है, सागर भी उन्हीं का, और गागर भी उन्हीं का, लेकिन सारी की सारी समस्या हमें है.. सच में बड़े ही अजीब लोग हैं हम..
आजकल की शादियाँ रीति-रिवाजों पर नहीं, बल्कि दिखावे पर आधारित होती हैं। अच्छे से अच्छा खाना, साज-सज्जा, मेहमानों के लिए बेहतर से बेहतर सुख-सुविधाएँ, ठहरने की उत्तम व्यवस्था, अच्छे-से अच्छा स्वागत-सत्कार आदि, ये ऐसे बिंदु हैं, जिन पर जितनी बात की जाए, कम ही होगी। लेकिन, लोगों की दूसरों पर ऊँगली उठाने की आदत, मेरी समझ के बाहर है। चंद दिनों पहले देश के एक बड़े घराने यानि अंबानी परिवार के बेटे अनंत अंबानी की शादी का आयोजन हुआ। सोशल मीडिया उठा लो या प्रिंट मीडिया, टेलीविज़न पर देख लो या फिर आम आदमी के समूह में खड़े हो जाओ, हर जगह इस शादी और इसमें हुए खर्चों को गंभीर मुद्दा बनाकर रखा हुआ है लोगों ने।
लोगों को यह बात फूटी आँख नहीं सुहा रही है कि शादी में 5000 हजार करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। अब लोगों को गरीबी रेखा और देश में बढ़ते भूखमरी इंडेक्स की चिंता सताने लगी है। स्वस्थ्य और शिक्षा का निरंतर महँगा होना भी खटकने लगा है। गैस-पेट्रोल की महँगाई का रोना भी अब रोने लगे लोग। मोबाइल फोन के रिचार्ज महँगे हो रहे हैं, यह भी लोगों को दिख रहा है। इस महँगाई का शादी से क्या लेना-देना? और तो और लोग यह भी कह रहे हैं कि शादी का खर्चा निकालने के लिए अंबानी जी ने रिचार्ज महँगा कर दिया। तो आप क्या यह चाहते हैं कि व्यक्ति इतनी महँगी शादी न करके आपके लिए महँगाई कम करने का काम करे? यानी वह अपना पैसा, आपकी सुख-सुविधाओं के लिए लगा दे। आप कर सकेंगे क्या ऐसा कुछ, यदि आप इतने सक्षम होंगे तो?
कोई कह रहा है किसानों की समस्या हल कर देते, तो कोई कहता है गरीबों के लिए मकान ही बना देते। कोई कहता है हॉस्पिटल बनवा देते, तो कोई कहता है देश की सड़कें ही दुरुस्त करवा देते। आखिर क्यों कर देते? उस शख्स ने आपके पैसों का उपयोग अपने घर की शादी में किया क्या, जो आपको उन पैसों की इतनी चिंता हो रही है? आपकी शादियों में होने वाले खर्चों से तो कई गुना कम ही खर्च किया है अंबानी जी ने। अब आँकड़ों पर बात करेंगे, तो उन लोगों के हाथ सिवाए शर्मिंदगी के कुछ भी नहीं लगेगा, जो बार-बार इस शादी को पैसों की बर्बादी करार दे रहे हैं। सभी लोग अपनी हैसियत के अनुसार काम करते हैं, इस परिवार ने तो अपनी आमदनी के सिर्फ 0.5 प्रतिशत हिस्से का ही इस्तेमाल अनंत की शादी के लिए किया है।
दोनों ने एक फंक्शन में सोने की ड्रेस पहनी, उस पर भी बड़े मुद्दे उठा रहे हैं लोग.. वह कहते हैं न, व्यक्ति दुनिया पर लाख सवाल उठा लेता है, लेकिन कभी झाँकता नहीं खुद के गिरेबान में। एक माध्यम वर्गीय परिवार की ही बात करते हैं, चलिए.. रस्में निभाने तक की बात अलग है, लेकिन अब हमारे समाज में चलन दिखावे का चल पड़ा है.. हल्दी के फंक्शन में साज-सज्जा अलग और पीले वस्त्र धारण किए हुए तमाम मेजबान, फिर होती है मेहँदी, तमाम साज-सज्जा हरे रंग की और उसी रंगों के परिधान.. शादी तो रस्मों से होती है न! महिला संगीत कैसी रस्म है?? इसमें भी बड़ी-बड़ी रंग-बिरंगी एलईडी वाली साज-सज्जा अलग, थीम अलग और फिर फेरों, बारात और रिसेप्शन की तो क्या ही बात की जाए.. हर फंक्शन के लिए अलग ड्रेस कोड और थीम..
मैं यहाँ पूछना चाहता हूँ कि क्या हर फंक्शन में साज-सज्जा में खर्च नहीं होता या फिर जो अलग-अलग रंग की थीम हर फंक्शन के लिए विशेष रूप से रखी जाती है और इसके लिए अलग-अलग कपड़े खरीदे जाते हैं, वो मुफ्त में मिल जाते हैं? एक आम आदमी इस तरह के आयोजनों में कम से कम 20 से 25 लाख रुपए खर्च कर देता है। एक आम आदमी की हैसियत से यह राशि काफी अधिक है। लेकिन, वहाँ इन मुद्दों को उठाने वाले लोगों को कोई आपत्ति नहीं होती। इन पैसों से करवाइए न गरीबों की सेवा.. अपने क्षेत्र की सड़कें बनवा दीजिए इन पैसों से.. आप कीजिए यह पहल, फिर बेशक उम्मीद करें अंबानी जी से..
करिए कोर्ट या मंदिर में बढ़िया रीति-रिवाज से शादी, लाखों रुपए स्वाहा होने से बच जाएँगे.. समाजसेवा करने में और जरूरतमंदों की मदद करने के लिए इन रुपयों का इस्तेमाल कीजिएगा फिर.. इसमें क्या गलत है? अफसोस, नहीं कर पाएँगे आप, क्योंकि ऊँगली उठाना बहुत आसान है, उसे खुद के लिए अमल में लाना उतना ही कठिन। जब आपकी हैसियत हजारों की है और आप लाखों खर्च कर रहे हैं वह भी एक शादी में, तो उस व्यक्ति की हैसियत तो अरबों की है, उसके बावजूद उसने करोड़ों ही खर्च किए हैं.. लगाइए अब गणित..
अंबानी जी ने अपने सागर में से एक गागर पानी निकाला है, सागर भी उन्हीं का, और गागर भी उन्हीं का, लेकिन सारी की सारी समस्या हमें है.. सच में बड़े ही अजीब लोग हैं हम.. जितने भी लोग सवाल उठा रहे हैं, सब के सब बेबुनियाद हैं। जरूरतें बनी रहेगी संघर्ष होता रहेगा, रोटी कपड़ा मकान के लिए। लेकिन, जीवन में खुशियों को बाँटने और जीने का अधिकार सभी को है, सो उन्होंने भी शादी के इस आयोजन में किया। उन्होंने जिस तरह की शाही शादी की है, अन्य देशों के लोग उसकी तारीफें कर-करके थक नहीं रहे हैं, और एक हम, अपने ही लोगों की टाँग खींचने का काम करने में लगे रहते हैं। उम्मीद है, मुद्दा उठाने वाले तमाम लोगों को सारे सवालों का जवाब मिल गया होगा.. मेरी ओर से नव जोड़े को परिणय सूत्र में बँधने की अनंत शुभकामनाएँ..
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