विचार

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Published / 2024-11-05 22:03:21
क्षुद्र जातिवादी राजनीति को आईना दिखाता महापर्व छठ

एनके मुरलीधर

एबीएन एडिटोरियल डेस्क। सूर्य की उपासना और सूर्य को शक्ति का सबसे प्रमुख श्रोत मानने की परम्परा भारत के मगध क्षेत्र की देन है। इस विराट परम्परा का महत्व दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। सनातन का हर नियम विश्व के कल्याण और प्रकृतिक संसाधनों के समुचित उपयोग को रेखाकिंत करता है। धार्मिक कथाओं पर आधारित मान्यताओं के अनुसार मां सीता और द्रोपदी ने सबसे पहले सूर्य की अराधना की थी।

राम कथा हो या महाभारत दोनों में सूर्य की महता रेखाकिंत की गयी है। महाभारत में सूत पुत्र कर्ण को सूर्य पूत्र कर्ण माना गया। राम कथा में अंजनी के लाल वीर हनुमान को सूर्य का वरद पुत्र कहा गया। आज पूरे देश और दुनिया में हनुमान की पूजा आराधना होती है, कर्ण की सूर्य उपासक के रुप में देश में कई स्थल चिन्हित हैं। 

हमारी 10 हजार साल की मान्यताओं में छठ मईया की पूजा उन्हीं विराट परम्परा को रेखाकिंत करता है जो हजारों साल की गुलामी के बाद भी कम नहीं हुई न लुप्त हुई। छठ की पूजा पद्धति को ध्यान से देखा जाए तो इसमें किसी पुरोहित, पंडित या ब्राह्मणों की कोई भूमिका नहीं है। यह संकेत देता है कि समाज में पूजा और अराधना के लिये सर्वोच्च सत्ता को सीधे कर्म कांड के नियम और ग्रामीण संसाधनों के माध्यम से किया जा सकता है। 

इस पूजा की सबसे बड़ी बात है कि जहां सीता जनकनंदनी उच्च जाति से आती है वहीं कर्ण सूत पुत्र के रुप में सूर्य की उपासना करने वाला भारतीय सनातन परम्परा का सबसे बड़ा श्रद्धावान माना जाता है।  आज देश में हिंदू जन मानस को जिस प्रकार राजनीति लाभ के लिये तोड़ा जा रहा है उसमें छठ की पूजा उपासना की पद्धति करारा तमाचा है। छठ समभाव और जाति की भिन्नता को पूर्ण रुप से खारिज करता है। 

नदियों, तालाब और जलस्रोतों के घाट पर बिना किसी भेदभाव के पूरा जन समूह दुनिया के सबसे बड़ें सार्वजनिक पूजा उपासना में शामिल होता है। न किसी की जात न किसी संप्रदाय की चर्चा छठ एक सार्वभौम विश्व कल्याण के लिए किया गया मानवीय प्रयास स्वीकार्य किया जाना चाहिए। पटना के गंगा घाट हो या औरंगाबाद का देव मंदिर, मुम्बई का चौपाटी मैदान हो न्यूयार्क का वॉटर टॉवर सूर्य उपासना का यह पर्व साफ संदेश देता है कि पूरे विश्व का कल्याण और सुरक्षा सूर्य के माध्यम से संभव है।

आज हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई, बौद्ध के अतिरिक्त दुनिया के अनेक देशों में इस पर्व की परंपरा और महत्व को समझने का प्रयास कर रहें हैं। दूसरी ओर हमारे देश में राजनीति ही क्षुद्रता और सनातन पद्धति के हर आयाम को राजनीति स्वार्थ के कारण नकारने का प्रयास कर रही है। इन परम्परा विरोधी अल्प ज्ञानियों को सनातन के सूर्य पूजा की परम्परा और उसमें उपयोग किये जाने वाले पदार्थो का समर्थ ज्ञान हो तो इस प्रकार की तोड़ा -फोड़ों वाली राजनीति से बचना चाहिए। यह छठ का संदेश भी है। जाति के मान्यताओं को नकारता संपूर्ण वैश्विक शांति और सुलभता का संदेश देने वाला यह एकमात्र पर्व है।  

यह गर्व का पर्व है। यह पर्व समरसता का है। यह समभाव का प्रदर्शित करता है। यह प्रकृति को नमन करता है। यह जल की महत्ता स्थापित करता है। सूर्य के वैज्ञानिक बल को स्वीकार्य करता है। यह सत्य सनातक परंपरा के हजारों वर्ष के इस्लामी और इसाई शासन के बाद भी अपने स्वरुप में विद्यमान रहकर विश्व के पटल पर सनातक पताका को सबसे उपर रखने का संदेश उदघोषित करने का पर्व है। यह विराट पर्व है जिसकी विराटता हर दिन बढ़ती ही जा रही है। 

पृथ्वी पर सबसे बुद्धिमान जीव मानव के मानसिक और शारीरिक उर्त्कष को किया जाने वाला यह पर्व अपने आप में पृथ्वी के अस्तित्व को बचाने का संदेश देता है। यह पर्व हमें बताता भी है और डराता भी है। बताता है कि पृथ्वी का अस्तित्व सूर्य से है और डराता है कि पृथ्वी का नाश भी संभव है। सहज ज्ञान से छठ के संदेशों को समझना असंभव है।  

मानव विकास की परम्परा और भारतीय सत्य सनातक की उंचाई से ब्रंम्हण्ड तक पहुंचना दुनिया के किसी भी अन्य धर्म परंपराओं में इस व्यापकता से स्वीकार्य ही नहीं है। जापान की सूर्य देवी, अमातेरासु, जिन्होंने प्राचीन पौराणिक कथाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और जिन्हें विश्व का सर्वोच्च शासक माना जाता था, शाही वंश के संरक्षक देवता थे, और आज भी सूर्य के प्रतीक जापानी राज्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। 

मिस्र की धार्मिक मान्यताएं और प्रथाएं ऐतिहासिक काल (लगभग 3000 ईसा पूर्व से) के मिस्र के समाज में घनिष्ठ रूप से एकीकृत थीं। हालांकि प्रागैतिहासिक काल से संभवत: कई अवशेष बचे हुए थे। लगभग पहली शताब्दी ईसवी की गर्गसंहिता (गर्ग की रचनाएं)। यूनानी ज्योतिष को दूसरी और तीसरी शताब्दी ईस्वी में कई संस्कृत अनुवादों के माध्यम से भारत में प्रसारित किया गया था, जिनमें से सबसे प्रसिद्ध वह है जो 149/150 ईस्वी में यवनेश्वर द्वारा किया गया था और जिसे पद्य के रूप में लिखा गया था। 

जाति व्यवस्था, मेटेमप्सिसोसिस (आत्माओं का स्थानांतरण) के सिद्धांत, पांच तत्वों (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और अंतरिक्ष) के भारतीय सिद्धांत और मूल्यों पर आधारित था। भारत के प्राचीनतक पूजा परम्परा छठ की है जो संदेश देता है कि समाज में किसी प्रकार का जातिगत वर्गी करण को सर्वोच्च सत्ता सूर्य स्वीकार नहीं करता है। सूर्य सबसे ताकतवर देवता के रुप में भी स्वीकार्य थे और आज भी है। लेकिन वर्तमान समय में जिस प्रकार देश की सामाजिक मान्यताओं पर्व त्योहारों की गहराई और उनमें छिपे व्यापक संदेशों को नकारकर क्षुद्र टिप्पणी और तोड़ने का प्रयास  किया जा रहा है उसे छठ पर्व की परम्परा अस्वीकार करती है। 

जो इन महान परम्पराओं के विपरीत चल रहें है उनके विचार नाशवान होंगे। छठ पर्व का संदेश सभी है प्रकृति के नजर में एक। जिन्हें यह नहीं दिखता उन्हें छठ घाटों पर उमड़ती भक्तों की आस्था और छठ के संदेश को देखना और समझना चाहिए। विश्व की सभी समस्याओं का संकेत और उनके अंत का मार्ग इस पर्व के मर्म में छिपा है आवश्यकता है क्षुद्रता छोड़ व्यापक दृष्टि अपनाने की।

Published / 2024-10-26 20:23:40
भारतीय संस्कृति में सुपारी और बेताल के पत्तों का महत्व

एबीएन एडिटोरियल डेस्क। सुपारी पूरी तरह से एक दवा है, जो भारतीय संस्कृति में सबसे अधिक इस्तेमाल की जाने वाली चबाये जाने वाला दवा है, जिसे प्राचीन काल से भारतीय और प्रशांत महासागर के द्वीपों और दक्षिणी एशिया के पूर्वी लोगों द्वारा चबाया जाता  रहा है। पान में एक हानिरहित मादक पदार्थ है, जिसके कतिपय चिकित्सीय महत्व है (उदाहरण के लिए, अम्लता पर प्रतिक्रिया करने के लिए) और जो हल्की उत्तेजना और कल्याण की भावना पैदा करता है। 

चबाने को ताड़ के बीज, एरेका कैटेचू से मिश्रित किया जाता है और पाइपर पान की पत्ती को चूने के पेस्ट (अक्सर प्लस राल) के साथ मिलाया जाता है। साथ में कटा हुआ सुपारी कत्था और संभवत: अन्य स्वाद (उदाहरण के लिए, लौंग, इलायची इत्यादि) के साथ। इस द्रव्य को निगलने के बाद मुंह, पेट, लीवर को दुरुस्त करता है, यह प्रक्रिया लार के प्रचुर प्रवाह को उत्तेजित करती है, जो लगातार उत्सर्जित होती है। व्य व्यक्ति का लार और दांत लाल या भूरे रंग के हो जाता हैं। 

अधिकांश पश्चिमी लोगों के लिए सुपारी चबाना एक घृणित आदत प्रतीत होती है, हालाँकि यह संयुक्त राज्य अमेरिका में एक समय व्यापक रूप से प्रचलित तम्बाकू चबाने से थोड़ा अलग है। पुष्टि की गई है कि पान चबाने वालों के दांत खराब होते हैं, लेकिन इसके लिए पान चबाने को दोष देना उचित नहीं है, क्योंकि पोषक तत्वों की कमी भी इसका कारण हो सकता है।  भारतीय प्रायद्वीप में एरेका पाम और पान के पत्ते दोनों की व्यापक रूप से खेती की जाती है। 

पान के पौधे के बेहतर विकास के लिए अच्छी जल निकास वाली मिट्टी, नमी और छाया और धूप दोनों की आवश्यकता होती है, बड़े पैमाने पर इसकी खेती आमतौर पर घास (सूखी घास) और बांस से बने शेड में की जाती है। हालांकि, उपरोक्त शर्तें पूरी होने पर पान के पौधे भी भूखंडों में उगाए जाते हैं। रोपण के दो महीने बाद पत्तियों की तुड़ाई की जा सकती है। एक स्थापित, रोग-मुक्त स्थिति में, यह 20 वर्षों से भी अधिक समय तक चल सकता है। 

पान पत्ता और सुपारी मादक पदार्थ के अंतर्गत भी रखा जाता है, भारतीय समाज में  धार्मिक उपयोग के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है। पान पत्ता और सुपारी (तमुल पान) संप्रति किचन गार्डन के किनारे भी उगाई जाती है। इसे आम तौर पर घरेलू खपत के लिए भी लगाया जाता है। हालाँकि इसकी उपज अधिक होती है, परन्तु  व्यावसाय  के लिए भी तथा अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अतिरिक्त आमदनी के लिए भी उगाया जाता है। 

सुपारी के रोपण के तरीके 

  • इसमें पांच से छह महीने तक चलने वाले तीन अलग-अलग चरण शामिल हैं। 
  • सबसे पहले अच्छी संख्या में पूर्ण विकसित सुपारी का चयन किया जाता है। 
  • इन्हें अंकुरण के लिए धरती के नीचे दबा दिया जाता है। 
  • फिर पौधों को स्थायी स्थल पर प्रत्यारोपित किया जाता है। 

पान के पत्ते को रोपने की विधि 

पान के पत्ते को रोपने की विधि आमतौर पर उस मिट्टी पर निर्भर करती है जहां इसे लगाया जाता है। सबसे पहले घुंडियों से फैली हुई लताओं को अलग-अलग काटना पड़ता है। नर्सरी बेड में लताएं लगाने के लिए दूसरी बात यह है कि लाल रंग की मिट्टी का चयन करना चाहिए। एक महीने के बाद जब लताएं जड़ पकड़ लेती हैं तो उन्हें तैयार भूखंड पर प्रत्यारोपित कर दिया जाता है।  

विविध भारतीय भाषाओं के लोककथाओं में पान पत्ता और सुपारी (तमुल पान) का स्थान और महत्व का वर्णन प्राप्त होता है, जैसे- बिहू गीत में तामुल पान: उदाहरण के लिए, सुपारी और पान पत्ता का बिहू (एक असमिया त्योहार) के साथ गहरा संबंध है। रंगाली बिहू में लोक नर्तक गांव के हर घर में जाते हैं, धूल, पेपा (हॉर्न-पाइप) और अन्य पारंपरिक वाद्य यंत्रों को बजाते हुए हुसोरी (एक पारंपरिक बिहू नृत्य) गाते हैं, जो परिवार को सर्वशक्तिमान का आशीर्वाद देने के लिए किया जाता है। बदले में उन्हें सुपारी और पान पत्ता, गमुसा (एक पारंपरिक असमिया तौलिया) और पैसे दिये जाते हैं। माना जाता है कि बिहू त्योहार के दौरान लड़कियां अपने प्रेमी को सुपारी और पान खिलाती हैं। 

अन्य धार्मिक एवं सामाजिक उत्सव में तामुल पान का उपयोग 

भारतीय समाज में सुपारी और पान के पत्ते धार्मिक और अन्य सामाजिक त्योहारों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। घर में मेहमान का स्वागत करने के लिए सबसे पहले तामुल पान देने का रिवाज था। विभिन्न पूजा अनुष्ठानों के दौरान पुजारी या ग्रामीणों को जाराई (स्टैंड के साथ पीतल की ट्रे) में पान-तमुल देना विभिन्न संस्कृतियों व समाज में एक परंपरा है। त्योहारों पर या संकट के समय लोग नामघर (प्रार्थना गृह) में तामुल-पान चढ़ाने का रस्म था। तामुल पान चढ़ाकर कोई भी व्यक्ति पुजारी से आशीर्वाद मांगता था। तमुल पान के आदान-प्रदान से व्यक्ति मित्रता करता था और यदि उसने कोई सामाजिक अपराध किया हो तो क्षमा भी मांगता था। 

विभिन्न भारतीय समुदायों के विवाह समारोह में तामुल पान पत्ता का उपयोग की शुरूआत से अंत तक बहुत ही शुभदायक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। तामुल और पान पत्ता का उल्लेख विवाह गीतों में भी मिलता है। ये गीत दूल्हे के आगमन पर गाया जाता था। चेचक के संक्रमण से बचाने के लिए ऊपरी और निचले असम के कतिपय भू-भागों  में रहने वाले लोग आई-सभा नामक एक अनुष्ठान करते हैं और देवी को अन्य भेंटों के साथ-साथ तामुल-पान पत्ता भी चढ़ाते हैं। 

इसमें ऐनम और शितोलनम (पॉक्स की देवी के लिए प्रार्थना गीत) में सुपारी और पान पत्तियों के उपयोग का उल्लेख मिलता है : भक्त याचक देवी से प्रार्थना करते थे कि हम आपको आपकी वेदी के सामने सुपारी और पान के पत्तों का एक साथ बांधने वाला टुकड़ा चढ़ाते हैं। कृपया अपने आगमन और प्रस्थान पर इसे स्वीकार करें। भारतीय समाज और संस्कृति में सुपारी और पान पत्ता एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भारतीय लोक गीत और लोक साहित्य का सबसे मूल्यवान हिस्सा है। सुपारी और पान के पत्तों का प्रभाव तब तक जीवित रहेगा जब तक मानव सभ्यता  इस संसार में इसका उपयोग करते रहेंगे। 

सारांश 

भारतीय समाज में तामुल और पान पत्ता लोगों के जीवन में एक अनिवार्य भूमिका निभाते है। यह न केवल चबाने की वस्तु है बल्कि इसे आगंतुक  अतिथियों को भी पेश किया जाता है. इसे अन्य सामाजिक मूल्यों से अलग करना मुश्किल होता है। तामुल-पान पत्ता के बिना कोई भी धार्मिक अनुष्ठान पूरा नहीं होता। यह किसी भी सामाजिक एवं धार्मिक समारोह में निमंत्रण पत्र के रूप में भी उपयोग किया जाता है। 

कभी-कभी यह दुनिया की किसी भी अन्य मुद्रा की तुलना में अधिक मूल्यवान हो जाता है जब इसे समाज के किसी सदस्य द्वारा किये गये किसी अपराध के मुआवजे के रूप में पेश किया जाता है। गाँव में  कोई भी अनुष्ठान तामुल-पान पत्ता के बिना नहीं किया जाता है, चाहे विवाह, जन्म या मृत्यु या कृषि अभ्यास या स्वास्थ्य और बीमारी से जुड़े अनुष्ठान हों।

Published / 2024-10-23 16:19:02
समृद्ध व्यक्तित्व...

संजय सर्राफ

एबीएन एडिटोरियल डेस्क। धन, संपदा और भौतिक संसाधन से जो जितना संपन्न है उसी के अनुपात में उसकी समृद्धि आंकी जाती है, जो कि एक सामान्य दृष्टिकोण है। समृद्धि प्राप्त करना एक सामान्य व्यवहार है और जिसे भी देखिए इस दिशा में भाग रहा है। सफलता और असफलता के कई भौतिक कारण हो सकते हैं परंतु मूल कारण के ऊपर कोई विचार नहीं करता है।

वास्तव में देखा जाए तो सफलता अथवा असफलता का मूल आधार हमारा व्यक्तित्व ही होता है इसके निर्माण पर कम ही ध्यान दिया जाता है; जबकि हमारी भारतीय संस्कृति में जन्म से लेकर 25 वर्षों तक व्यक्तित्व के निर्माण का काल निर्धारित रहा है। अपनी प्रतिभा को समृद्ध बनाए बिना क्या भौतिक समृद्धि प्राप्त करना सरल है ?

वंशानुगत प्राप्त भौतिक समृद्धि क्या वास्तविक संतोष और सुख दे पता है? इन प्रश्नों का हल ढूंढने से ज्ञात होता है कि भौतिक समृद्धि से कहीं अधिक प्रतिभा की समृद्धि आवश्यक है जो इंसान को भटकने नहीं देता है। उक्त जानकारी पवित्रम सेवा परिवार के प्रांतीय प्रवक्ता संजय सर्राफ ने दी।

Published / 2024-10-16 21:02:30
योगी का बंटोगे तो कटोगे का नारा झारखंड में भी गूंजेगा?

एनके मुरलीधर

एबीएन एडिटोरियल डेस्क। झारखंड और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव की तारीख तय हो चुकी है। यह तो तय है कि योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता पूरे देश में है। बंटोगे तो कटोगे का योगी का चुनावी उद्घोष का असर मतदाताओं पर विशेष रूप से देखा जा रहा है। जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव के पांच क्षेत्रों में चुनाव प्रचार किया, जिसमें से चार सीटों पर भाजपा ने जीत दर्ज की। इसी तरह उन्होंने हरियाणा विधानसभा चुनाव में प्रचार किया। 

यह तय है कि महाराष्ट्र के चुनाव में योगी का एक बड़ा कार्यक्रम होगा, लेकिन यक्ष प्रश्न है कि क्या झारखंड में योगी आदित्यनाथ चुनाव प्रचार के लिए आयेंगे या बुलाये जायेंगे? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक बार फिर भाजपा के अंदर अपनी ताकत का अहसास करा दिया है। हरियाणा विधानसभा चुनाव में भाजपा को लगातार तीसरी बार मिली जीत के हीरो बनकर उभरे हैं योगी। योगी ने हरियाणा में कुल 14 विधानसभा क्षेत्रों में जनसभाएं की जिसमें से 09 सीटों पर भाजपा को जीत हासिल हुई। 

यह स्ट्राइक रेट 70 फीसदी के करीब बैठता है जबकि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कुल 08 जनसभाएं की। जिसमें से कांग्रेस को मात्र दो सीटों पर ही जीत हासिल हो पायी। भाजपा की जीत में वोटिंग प्रतिशत का बढ़ना भी अहम रहा। कुल मिलाकर लोकसभा चुनाव के समय हरियाणा में थोड़ी कमजोर नजर आ रही भाजपा को सही मौके पर यहां के वोटरों ने बूस्टर डोज दे दी। हरियाणा विधानसभा चुनाव में 48 सीट जीतकर भाजपा सत्ता बरकरार रखने में कामयाब हुई, जबकि कांग्रेस को 37 सीट पर जीत मिली है। खासकर योगी के बंटोगे तो कटोगे वाले बयान ने भी योगी की जीत में अहम भूमिका निभायी। 

कहने का तात्पर्य यह है कि सीएम योगी एक बार फिर से भाजपा के लिए ट्रंप कार्ड साबित हुए हैं। योगी का मंतव्य यह बताने के लिए काफी है कि हरियाणा में भाजपा का हिन्दुत्व का कार्ड तो खूब चला, लेकिन राहुल गांधी और कांग्रेस का संविधान बचाओ का ढोंग और हिंदुओं को जातियों में बांट कर हिंदू वोटों में डिवीजन की साजिश परवान नहीं चढ़ पायी। योगी ने हरियाणा में चार दिन और जम्मू-कश्मीर में दो दिन प्रचार किया। 

सीएम योगी ने 22 सितंबर को नरवाना, राई और असंध सीट पर चुनाव प्रचार किया। इन तीनों ही सीटों पर भाजपा के उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की है। इसके बाद 28 सितंबर को मुख्यमंत्री ने फरीदाबाद, रादौर, जगाधरी और अटेली सीटों पर प्रचार किया। इन सभी सीटों पर भी भाजपा जीती है। इसके अलावा मुख्यमंत्री ने 30 सितंबर को बवानी खेड़ा में चुनावी जनसभा की थी। इस सीट पर भी भाजपा ने जीत दर्ज की है। 

तीन अक्टूबर को उन्होंने सफीदों में जनसभा की, यहां भाजपा ने जीत दर्ज की है। अब अगर जम्मू-कश्मीर में उनके ट्रैक रिकॉर्ड पर ध्यान दें तो बिल्कुल ऐसा ही नजर आता है, जिन सीटों पर उन्होंने चुनाव प्रचार किया वहां भाजपा का दबदबा रहा। योगी ने जम्मू कश्मीर के रामगढ़, आरएस पुरा दक्षिण, रामनगर और कठुआ में सभाएं की थीं। इन सभी सीटों पर भाजपा के प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की है। उनका चुनाव के दौरान उनका जादू चलता नजर आया है।  

भाजपा योगी का प्रचार उन क्षेत्रों में करवाती है, जहां जीत सुनिश्चित करानी हो। अगर योगी का झारखंड में कार्यक्रम होता है जिसकी पूरी संभावना है तो वह शहरी क्षेत्रों के अतिरिक्त पलामू प्रमंडल के उत्तर प्रदेश से सटे गढ़वा, मेदनीनगर सहित बिहार से सटे हजारीबाग, देवघर सहित उन जिलों के विधानसभा क्षेत्रों में होगी जहां भाजपा उग्र हिंदूत्व को अपना जीतने का हथियार बनाती आयी है।  

वैसे भी गोरखपुर पीठ हिंदू धर्म के उच्च परंपरा वाले संतों, सदगुरुओं की पीठ है जिसके देश में लाखों अनुआयी हैं। आज योगी की लोकप्रियता का परिणाम है कि यूपी में लगातार जीत हासिल हो रही है। लोकसभा चुनाव में कम सीटों पर जीत का नकारात्मक असर से उबर चुके योगी आज विधानसभाओं में भाजपा के सबसे लोकप्रिय चेहरों में एक है। उत्साही समर्थक उन्हें देश के अगले प्रधानमंत्री के तौर पर स्वीकार करते हैं। भाजपा निश्चत तौर पर योगी का कार्यक्रम झारखंड विधानसभा चुनाव में करेगी यह तय है। 

भाजपा की अंदरूनी रणनीति के अनुसार पार्टी विधानसभा की 44 उन सीटों पर फोकस करने जा रही है जो सामान्य श्रेणी की आती है। उसके बाद आठ एससी सीटों पर भी पार्टी पूरा जोर लगायेगी। इन्हीं सीटों पर योगी आदित्यनाथ की सभा आयोजित करने से पार्टी अधिकतम लाभ में होगी। शेष 28 जनजातीय सीटों पर पार्टी का आत्मबल कमजोर है। माय, माटी, रोटी का नारा इन 28 सीटों को ध्यान में रखकर प्रचारित किया जा रहा है लेकिन इन सीटों पर चंपई सोरेन  गीता कोड़ा और सीता सोरेन के माध्यम से ही कुछ सीटों पर उम्मीद कर सकती है। 

लोकसभा के चुनाव के आधार पर पार्टी भले 55 विधानसभा पर आगे दिखती हो लेकिन विधानसभा में पहले के 65 सीटों के नारों का ध्वस्त होना अभी तक भुला नहीं पायी है। ऐसे में पार्टी फूंक-फूंक कर कदम रख रही है। राजनीतिक समीकरण आजसू के साथ होने, झारखंड विकास मोर्चा का भाजपा में विलय से भाजपा के पक्ष में दिखता है लेकिन वर्तमान सरकार की लोक लुभावन कार्यक्रमों और स्थानीयता का भाव भाजपा पर भारी पड़ सकता है। 

ऐसे में भाजपा के तरकश में जितने भी तीर है उन सब का इस्तमाल भाजपा अवश्य करेगी। इनमें एक योगी आदित्यनाथ भी है जो फिर से पूरे फार्म में है। भाजपा के कट्टर हिंदूत्व के सबसे बड़े फायर ब्रांड  नेता का झारखंड के चुनाव में उपयोग न हो ऐसा संभव नहीं जान पड़ता है। चुनाव के रंग है उसमें भगवा के असर की परीक्षा भी है। किसी भी हाल में भाजपा हिंदूत्व को छोड़ नहीं सकती है।  झारखंड में भाजपा जिन मुद्दों को उठा रही है उसमें हिंदूत्व की चासनी से लपेटी हुई है। 

घुसपैठ, धर्मांतरण, सत्ता रूढ़ दल पर सांप्रदायिक होने का आरोप जैसे मुद्दों के साथ है। देश में लंबे समय से स्थापित सेक्यूलरिज्म की काट भाजपा का हिंदूत्व ही बना। इस आधार पर भी झारखंड में भाजपा सफल होती रही है। यह अलग बात है कि जीत के साथ जो कमियां राजनीतिक दलों में आती है उसका शिकार भी भाजपा होती रही है। लेकिन जीत का अंतिम प्रयास में हरियाणा और कश्मीर का प्रदर्शन झारखंड में दोहराने का प्रयास करेगी। (लेखक एबीएन के प्रधान संपादक हैं।)

Published / 2024-10-02 20:19:06
आत्म शक्ति अर्जित करने के लिए है नवरात्र की अवधि

आत्म शक्ति जाग्रत कर आरोग्य और यूनीवर्स की इनर्जी से जुड़ने की अवधि है नवरात्र 

रमेश शर्मा

एबीएन एडिटोरियल डेस्क। भारतीय चिंतन में तीज त्यौहार केवल धर्मिक अनुष्ठान और परमात्मा की कृपा प्राप्त करने तक सीमित नहीं है। परमात्मा के रूप में परम् शक्ति की कृपा आकांक्षा तो है ही, साथ ही इस जीवन को सुंदर और सक्षम बनाने का भी निमित्त तीज त्यौहार हैं। इसी सिद्धांत नवरात्र अनुष्ठान परंपरा में है। इन नौ दिनों में मनुष्य की आंतरिक ऊर्जा को सृष्टि की अनंत ऊर्जा से जोड़ने की दिशा में चिंतन है। आधुनिक विज्ञान के अनुसंधान भी इस निष्कर्ष पर पहुंच गये हैं कि व्यक्ति में दो मस्तिष्क होते हैं। एक चेतन और दूसरा अवचेतन। 

इसे विज्ञान की भाषा में कॉन्शस और अनकॉन्शस कहा गया है व्यक्ति का अवचेतन मष्तिष्क सृष्टि की अनंत ऊर्जा से जुड़ा होता है। जबकि चेतन मस्तिष्क संसार से। हम चेतन मस्तिष्क से सभी काम करते हैं पर उसकी क्षमता केवल पन्द्रह प्रतिशत ही है। जबकि अवचेतन की सामर्थ्य 85% है। सुसुप्त अवस्था में तो दोनों का संपर्क जुड़ता है। पर यदि जाग्रत अवस्था में चेतन मस्तिष्क अपने अवचेतन से शक्ति लेने की क्षमता प्राप्त कर ले तो उसे वह अनंत ऊर्जा से भी संपन्न हो सकता है। प्राचीनकाल में ऋषियों की वचन शक्ति अवचेतन की इसी ऊर्जा के कारण रही है। 

नवरात्र में पूजा साधना विधि जन सामान्य को अवचेतन की इसी शक्ति को सम्पन्न करने का प्रयास है। इससे आरोग्य तो प्राप्त होगा ही साथ ही अलौकिक ऊर्जा से संपन्नता भी बढ़ती है। अनंत ऊर्जा से जुड़ने की प्रक्रिया पितृपक्ष से आरंभ होती है। दोनों मिलाकर यह कुल पच्चीस दिनों की साधना है। सनातन परंपरा में दो बार नवरात्र आते हैं। एक चैत्र माह में और दूसरा अश्विन माह में। ये दोनों माह सृष्टि के पांचों तत्वों के संतुलन की अवधि होती है। अतिरिक्त क्षमता अर्जित करने के लिये पांचों तत्वों का संतुलन आवश्यक है। असंतुलन की स्थिति में उस तत्व से संबंधित तो प्रगति तीव्र होती है जिसका अनुपात अधिक होता है पर संपूर्ण की गति कम रहती है। 

प्रकृति संतुलित हो तो प्राणी ही नहीं समूची वनस्पति में आंतरिक विकास की गति तीब्र होती है। इसका अनुमान हम फसल चक्र से लगा सकते हैं। यदि प्राणी देह की आंतरिक कोशिकाओं के विकास की अवधि में अतिरिक्त प्रयास हों तो अतिरिक्त ऊर्जा से संपन्नता हो सकती है। दोनों नवरात्र में यह शारदीय नवरात्र अधिक महत्वपूर्ण हैं। इस नवरात्र को पितृपक्ष से जोड़ा गया है। पितृपक्ष की नियमित दिनचर्या चित्त को शांत करती है। शांत चित्त में ही सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है। शरीर, मन और प्राण शक्ति को इस योग्य बनाती है कि व्यक्ति ज्ञान और आत्मा के स्तर पर सृष्टि की अनंत ऊर्जा से जुड़ सके। इसीलिए पितृपक्ष में यम, नियम, संयम, आहार और प्राणायाम पर जोर दिया गया है। जबकि नवरात्र में धारणा ध्यान और समाधि पर। 

देवी को आदिशक्ति माना है। इसीलिए भारत में नारी को आद्या कहा है और पुरुष को पूर्णा। शक्ति के विभिन्न रूप हैं। शरीर की शक्ति, मन की शक्ति, बुद्धि की शक्ति, चेतना की शक्ति और प्रकृति की शक्ति। यदि शरीर सबल है किंतु मन भयभीत है तो परिणाम अनुकूल न होंगे। यदि शरीर ठीक है, मन ठीक है पर बुद्धि यह काम न कर रही तो कार्य को कैसे पूरा किया जाये तो भी परिणाम अनुकूल न होंगे। सब ठीक होने पर यदि प्रकृति विपरीत हो तो भी परिणाम प्रभावित होगा। इन्हीं सब प्रकार की शक्ति अर्जित करने के लिये ही नवरात्र की अवधि है। 

यह नवरात्र बहु आयामी हैं। ये शरीर को स्वस्थ्य बनाते हैं, शक्ति सम्पन्न बनाते हैं और अंतरिक्ष की अनंत ऊर्जा से जोड़ने हैं। पर अच्छे परिणाम तभी होंगे जब हम पितृपक्ष की अवधि का पालन भी निर्धारित दिनचर्या से करें। जिस प्रकार हम कहीं दूर देश की यात्रा के लिये पहले वाहन की ओव्हर हालिंग करते हैं वैसे ही पहले पितृपक्ष में शरीर, मन, विवेक बुद्धि को तैयार किया जाता है। नवरात्र में नौ देवियों के पूजन का विधान है। प्रत्येक देवी का नाम अलग है, रूप अलग है, पूजन विधि अलग है, और तो और पृथक वनस्पति और पृथक चक्र से संबंधित है। मानव देह में मूलाधार से कुल आठ चक्र होते हैं। आरंभिक आठ दिन इन चक्र के माध्यम से शरीर की सभी कोषिकाओं को सक्रिय और समृद्ध बनाना है। 

देवी साधना में आरोग्य से लेकर अलौकिक शक्तियां प्राप्त करने का सिद्धांत 

यह हमारा भ्रम और अज्ञानता है कि जो कर रहे हैं हम अपनी सामर्थ्य से कर रहे हैं। वस्तुत: हम एक पग भी प्रकृति की शक्ति के बिना नहीं उठा सकते। हमारे जीवन का एक एक पल और हमारी एक एक श्वांस भी प्रकृति की शक्ति से संचालित होती है। प्रकृति अनंत शक्ति और ऊर्जा से संपन्न है। विज्ञान की भाषा में प्रकृति की ऊर्जा का अंश ही हमको संचालित कर रहा है। वहीं आध्यात्मिक शब्दों में कहें तो हमारे भीतर आत्मा ही उस परम् दिव्य शक्ति का अंश है। दोनों के शब्दों में अंतर है पर भाव एक ही। कि प्रकृति की शक्ति या ऊर्जा ही हमारी सामर्थ्य है। 

यदि हम कुछ अतिरिक्त प्रयत्न करके प्रकृति से अतिरिक्त ऊर्जा ले लें तो हमारी कार्य ऊर्जा में गुणात्मक वृद्धि हो सकती है। प्रकृति से अतिरिक्त शक्ति प्राप्त करने की साधना के ही दिन हैं ये नवरात्र। पर पहले शरीर, मन, बुद्धि और चेतना को इतना सक्षम बनाना होता है कि वह इस अतिरिक्त ऊर्जा को अपने भीतर समेटने में सक्षम हो सके। शरीर को संतुलित बनाने की अवधि है पितृपक्ष और स्वयं को अतिरिक्त ऊर्जा से युक्त बनाने की अवधि है नवरात्र। कितने लोग हैं यथा अवस्था में ही जीवन जीते हैं और कितने लोग हैं जो अपना जीवन शून्य से आरंभ करके भी आसमान की ऊंचाइयां छू लेते हैं। 

यह सब उनकी आंतरिक क्षमता के उपयोग से ही संभव होता है। शरीर की प्रत्येक कोशिका या अंग को स्वस्थ्य रखना और उसे प्रकृति की अनंत ऊर्जा से जोड़ना ही यह कुल अवधि का सारांश है। शरीर की कोशिकाओं या अंगो को केंद्र ये आठों चक्र हैं। इनके द्वारा ही ऊर्जा अंगों या कोशिकाओं को पहुंचती है। इसे गर्भावस्था में जीवन विकास क्रम से समझा जा सकता है। गर्भस्थ शिशु माता की नाभि से ही भोजन और श्वांस लेता है। अर्थात माता के नाभि चक्र में वह सामर्थ्य है कि वह एक जीवन को विस्तार दे सकता है। लेकिन गर्भस्थ शिशु के विकास और उनके जन्म के बाद नाभि चक्र की उपयोगिता कितनी रह जाती है। 

भारतीय अनुसंधानकर्ताओं ने इसी विचार को आगे बढ़ाया और शरीर के सभी चक्रों को अधिक सक्रिय कर अंतरिक्ष की अनंत ऊर्जा से संपन्न होने का मार्ग खोजा। यह नौ दिन की साधना यही मार्ग खोलती है। इसका यह आशय कदापि नहीं कि पितृपक्ष में पितरों के समीप आने या उनके आशीर्वाद प्राप्त करने की अवधारणा या नवरात्र में देवी को प्रसन्न करने की अवधारणा कोई कम महत्वपूर्ण है। इन दोनों अवधारणाओं का अपना महत्व है। पर इसके साथ हमें इन उपासना के पीछे पितरों और देवी को प्रसन्न करके अपनी सामर्थ्य वृद्धि के दर्शन की बात भी समझना है। 

आरोग्य की दृष्टि से नवरात्र 

नवरात्र साधना में दैवीय कृपा मिलने, या ध्यान समाधि से अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त करने के मार्ग के साथ औषधियों और आरोग्य प्राप्त करने का अवसर भी होते हैं नवरात्र। दुर्गा कवच में वर्णित नवदुर्गा नौ विशिष्ट औषधियों में हैं। प्रथम शैलपुत्री का संबंध हरड़ से माना गया है जो अनेक प्रकार के रोगों में काम आने वाली औषधि है। हरड़ को हिमायती गया है जो देवी शैलपुत्री का ही एक रूप है। यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है। यह पथ्य, हरीतिका, अमृता, हेमवती, कायस्थ, चेतकी और श्रेयसी सात प्रकार की होती है। द्वितीय ब्रह्मचारिणी। इन्हे ब्राह्मी भी कहा गया है। यह ब्राह्मी औषधि स्मरणशक्ति बढ़ाती है और रक्तविकारों को दूर करती है। वाणी को भी मधुर बनाती है। इसलिए इसे सरस्वती भी कहा जाता है। 

तृतीय चंद्रघंटा। इंहें चंद्रसुर भी कहा गया है। चन्द्रसूर एक ऐसा पौधा है जो धनिए के समान है। यह औषधि मोटापा दूर करता है, सुस्ती दूर करता है। शरीर को सक्रिय रहता है और त्वचा रोगों में भी लाभप्रद है चतुर्थ कूष्माण्डा इनका प्रतीक कुंमड़ा है। आज-कल इस दिन कुंमड़े की बलि देने का प्रचलन हो गया है। पर वस्तुत: यह एक प्रकार की औषधि है इससे एक मिष्ठान्न पेठा भी बनता है। इससे रक्त विकार दूर होता है, पेट को साफ होता है। मानसिक रोगों में तो यह अमृत के समान है। पंचमी देवी स्कन्दमाता। इनका प्रतीक अलसी है। कहते हैं ये देवी अलसी में विद्यमान रहती हैं। अलसी वात, पित्त व कफ रोगों की नाशक औषधि है। षष्ठम् कात्यायनी देवी हैं। इन्हें मोइया भी कहा गया है। 

यह औषधि कफ, पित्त व गले के रोगों का नाश करती है।सप्तम् कालरात्रि। इन देवी का वास नागदौन में माना गया है। यह औषधि नागदौन सभी प्रकार के रोगों में लाभकारी होती और मनोविकारों को दूर करती है।अष्ठम् महागौरी। इनका निवास तुलसी में माना गया है। तुलसी कितनी गुणकारी होती है। हम परिचित हैं। तुलसी सात प्रकार की होती है सफेद तुलसी, काली तुलसी, मरूता, दवना, कुढेरक, अर्जक और षटपत्र तुलसी। शरीर मन और मस्तिष्क का ऐसा कोई रोग नहीं जिसमें तुलसी लाभकारी न हो। पिछले दिनों पूरी दुनियाँ में एक बीमारी कोरोना फैली। 

जिन घरों में तुलसी पत्ती की नियमित चाय बनती थी वहाँ इस बीमारी का प्रभाव नगण्य ही रहा। नवम् सिद्धिदात्री। इनका वास शतावरी में माना गया है। इसे नारायणी शतावरी भी कहते हैं। यह बल, बुद्धि एवं विवेक के लिए उपयोगी है।इस प्रकार इन नौ दिनों का संबंध औषधियों से भी है। नवरात्र में नियमानुसार साधना आराधना करके और निर्देशित दिनचर्या करके हम आरोग्य प्राप्त कर सकते हैं। अंतरिक्ष की अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं और दैवी कृपा तो है ही। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

Published / 2024-09-27 20:39:34
भय और अराजकता के बीच सामाजिक जीवन

सामाजिक जीवन में भय और अराजकता पैदा करने का नया षड्यंत्र 

रमेश शर्मा 

एबीएन एडिटोरियल डेस्क। भारतीय समाज जीवन में भय और आतंक पैदा करने के तरीकों में अब राष्ट्रद्रोही तत्वों ने रेल गाड़ियों और रेल पटरियों को निशाने पर लिया है। कहीं रेल पटरियां उखाड़ी गयींं, कहीं पटरियों पर डेटोनेटर रखे गये, कहीं गैस सिलेंडर और कहीं पत्थर रखकर रेलमार्ग अवरुद्ध किया गया। इसके साथ अब रात के अंधेरे में सवारी गाड़ियों पर पथराव किया गया। ये घटनाएं देशभर में घट रही हैं। 

वैश्विक विषमताओं के बीच भारत की विकास यात्रा निरंतर है। वह विश्व की पांचवीं अर्थ शक्ति बना और अब तीसरे क्रम पर आने की आशा बंधी है। भारत की यह प्रगति बहुआयामी है आर्थिक, सामरिक और तकनीकी प्रगति के साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साख भी बढ़ी है जिसकी झलक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विभिन्न विदेश यात्राओं में देखी जा रही है। 

भारत की यह प्रगति और प्रतिष्ठा देश विरोधी तत्वों और षड्यंत्रकारियों को पच नहीं रही। वे भारतीय समाज जीवन में तनाव और भय का वातावरण बनाकर विकास की गति अवरुद्ध करने के नये-नये तरीके खोज रहे हैं। कभी धार्मिक यात्राओं पर पथराव होता है तो कभी अपराधी पर की जाने वाली कानूनी कार्रवाई को साम्प्रदायिक रंग देकर समाज को भड़काने का प्रयास होता है। ताकि भारतीय समाज आंतरिक तनाव में उलझे और विकास यात्रा की गति धीमी हो। 

इसी कुत्सित मानसिकता के अंतर्गत अब भारतीय रेलों को निशाने पर लिया जाने लगा है। जिससे समाज में भय और तनाव का वातावरण बने। भारतीय रेल दुनिया की सबसे बड़ी रेल यातायात व्यवस्था है। अनुमान के मुताबिक लगभग डेढ़ करोड़ लोग प्रतिदिन रेलयात्रा करते हैं। भारतीय रेलें सामान ढुलाई का भी बड़ा माध्यम हैं। षड्यंत्रकारियों ने इन दोनों प्रकार की रेल गाड़ियों को निशाना बनाने का षड्यंत्र रचा है। 

पिछले छह महीनों में तीस से अधिक छोटी-बड़ी रेल दुर्घटनाएं घटीं हैं, इनमें से कुछ को चालक की सावधानी से बचा लिया गया है लेकिन कुछ न बच सकीं लेकिन इनमें रेलवे स्टॉफ की सावधानी से उतना नुकसान नहीं हुआ जितना गहरा षड्यंत्र रचा गया था। 16 घटनाओं में सीधे-सीधे आतंकवादी षड्यंत्र के संकेत मिले हैं। रेल दुर्घटनाओं का यह षड्यंत्र कुल तीन प्रकार का हुआ। 

मार्च से अगस्त तक घटी घटनाओं में रेल पटरियों को उखाड़ कर रेल दुर्घटनाओं का षड्यंत्र हुआ। ये घटनाएं असम, बंगाल, झारखंड, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि प्रांतों में घटीं थीं। इनमें कुछ घटनाओं के सीसीटीवी फुटेज भी मिले। इसके आधार पर तीन घटनाओं में गिरफ्तारियां भी हुईं। ऐसी एक घटना में गिरफ्तार किया गया एक संदिग्ध व्यक्ति कैमरे में फिशप्लेट ढीली करता दिख रहा था। 

जांच में उसकी गतिविधियां संदिग्ध हैं। वह कई कई दिनों तक घर से गायब रहा। आशंका है कि उसके तार सीमापार से जुड़े हैं, अनुमान किया जा रहा है कि वह कहीं ट्रेनिंग लेने गया होगा। लेकिन वह मानसिक रोगी होने की एक्टिंग कर रहा है। ऐसा अक्सर होता है। राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के अनेक आरोपित ऐसी ही एक्टिंग करने लगते हैं। लेकिन इसके अगस्त के अंतिम सप्ताह से सितम्बर माह में घटने वाली घटनाएं अधिक सनसनीखेज हैं। 

ये घटनाएं उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात और पंजाब में घटीं हैं। इनमें तीन घटनाएं तो अकेले कानपुर नगर की हैं। इनमें रेलवे लाइन पर कहीं डेटोनेटर रखा गया, कहीं गैस सिलेंडर, कहीं पत्थर के बोल्डर डाले गये तो कहीं लकड़ी गट्ठर रखकर रेलवे को दुर्घटनाग्रस्त करने का षड्यंत्र रचा गया है। ऐसी कुल 13 घटनाएं घटीं। कानपुर के अतिरिक्त जिन नगरों में यह षड्यंत्र हुआ उनमें अजमेर, भटिन्डा, रामपुर और बुरहानपुर आदि हैं। इन सभी घटनाओं को बहुत सावधानी से किया गया है। 

पहले तरह की घटनाओं में कुछ लोग सीसीटीवी कैमरे में आ गये थे। इसलिए इस बार षड्यंत्र के लिये ऐसे स्थल चुने गये जो कैमरे की पहुंच से बाहर हों। ये सभी घटनाएं बड़े स्टेशन के समीप घटीं। इन सभी घटनाओं में स्थानीय सामग्री और स्थानीय शरारती तत्वों की भागीदारी हुई। यदि कोई बाहरी सामग्री उपयोग की जाती तो षड्यंत्र के सूत्र मिल सकते थे। इन घटनाओं में समानता है और जो सावधानी बरती गई है, उससे यह किसी गहरे षड्यंत्र का हिस्सा हैं और इन सबका योजनाकार कोई एक ही है। 

रेल पटरी उखाड़ने के षड्यंत्र 

रेल पटरी उखाड़ कर रेल को दुर्घटनाग्रस्त करने के कुल 12 स्थानों पर षड्यंत्र हुये थे इनमें चालक की सावधानी से सात दुर्घटनाएं बचा लीं गयी। कुछ घटनाएं मामूली नुकसान तक सीमित रहीं लेकिन तीन घटनाओं में तीन यात्रियों की मौत हुई। 

पटरी पर डेटोनेटर, सिलेंडर सरिये, खंभे 

रेलों को निशाना बनाने वालों ने अगस्त के अंतिम सप्ताह से अपनी रणनीति बदली। पहले पटरी उखाड़ कर रेलों को दुर्घटनाग्रस्त का षड्यंत्र हुआ। इसके बाद रेल पटरी पर खतरनाक सामान रखने कर रेल पलटाने का कुचक्र रचा गया है। इसमें सबसे गंभीर घटना मध्यप्रदेश के बुरहानपुर के समीप घटी। बुरहानपुर में एक ऐसी ट्रेन को निशाना बनाने का प्रयास हुआ जिसमें सेना के जवान यात्रा कर रहे थे। 

ये घटना 18 सितंबर की थी। यह ट्रेन तिरुवनंतपुरम जा रही थी। इसमें आर्मी के अफसर, कर्मचारी और हथियार भी थे। इस ट्रेन की पटरी पर सागफाटा के पास 10 डेटोनेटर रखे गये थे लेकिन इसकी सूचना समय पर मिल गई। सूचना मिलते ही ट्रेन को सागफाटा में रोक दिया गया और एक भयानक दुर्घटना टल गयी। कानपुर रेल मंडल इन उपद्रवियों के निशाने पर सबसे अधिक रहा। 

अगस्त के अंतिम सप्ताह से सितंबर तक उत्तर प्रदेश में पांचवां षड्यंत्र हुये और कानपुर में तीन। कानपुर के समीप पिछले सप्ताह प्रेमपुर स्टेशन के समीप रेलवे ट्रैक पर खाली सिलेंडर रखा मिला। प्रयागराज के लिये मालगाड़ी निकलने वाली थी। पूर्व सूचना मिल जाने से दुर्घटना बच गई। यह पांच किलो वाला खाली सिलेंडर था। इससे पहले 8 सितंबर को कानपुर में ही रेलवे ट्रैक पर 8 किलो वाला भरा सिलेंडर रखा गया था। तब कालिंदी एक्सप्रेस को डिरेल करने की साजिश रची गयी थी। लेकिन समय पर सूचना मिली और दुर्घटना टल गयी। 

आठ सितंबर की इस घटना में सिलेंडर रेल के पहिये से टकराया भी लेकिन गाड़ी की धीमी गति थी इसलिए टकरा कर दूर चला गया और कोई बड़ी दुर्घटना होने से बच गई। यहां पुलिस को पेट्रोल से भरी बोतल और माचिस भी मिली। उत्तर प्रदेश के रामपुर स्टेशन के समीप खंबा रखकर नैनी जन शताब्दी एक्सप्रेस को निशाना बनाने का प्रयास हुआ। यह लोहे का खंबा छह मीटर लंबा था। यहां दो संदिग्ध लोगों को बंदी बनाया गया। 

पंजाब के भटिंडा रेलवे लाइन पर लोहे के नौ सरिये रखे मिले। यह रात तीन बजे की घटना है। यहां से मालगाड़ी निकलने वाली थी लेकिन मालगाड़ी को सिग्नल नहीं मिला इसलिये रुक गयी और दुर्घटना टल गयी। इधर, मुजफ्फरपुर-पुणे स्पेशल एक्सप्रेस के छह पहिये पटरी से उतर गये। रेलवे सुरक्षा टीम जांच कर रही है। माना जा रहा है कि पटरी पर कुछ रखा होगा जिससे ये पटरी से उतरे। 

रात के अंधेरे में पथराव की घटनाएं 

पहले पटरी उखाड़ने, फिर पटरी पर खतरनाक सामग्री रखकर दुर्घटना कराने का षड्यंत्र हुये। अब रात के अंधेरे में यात्री गाड़ियों पर पथराव होने लगे हैं। उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में महाबोधि एक्सप्रेस पर पथराव हुआ। यह नई दिल्ली से बिहार के गया जा रही थी। पथराव में कई यात्री घायल हुये। इसी तरह छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले में ट्रायल रन के दौरान दुर्ग-विशाखापत्तनम वंदे भारत एक्सप्रेस ट्रेन पर पथराव हुआ। 

असामाजिक तत्त्वों ने एसी बोगियों को निशाना बनाया जिससे तीन बोगियों के शीशे टूट गये। कुछ पत्थर अंदर भी गिरे और कुछ यात्रियों को चोट लगी। यह घटना 13 सितम्बर को रात नौ बजे की है। रेलवे सुरक्षा बल ने 5 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। उत्तर में आगरा रेलमंडल के अंतर्गत मनिया स्टेशन के समीप एक बार फिर वंदे भारत एक्सप्रेस पर पथराव हुआ है। यह ट्रेन भोपाल से दिल्ली जा रही थी। यह पथराव रात ग्यारह बजे हुआ इससे ट्रेन की कई बोगियों के शीशे टूट गये। इस पथराव से किसी के घायल होने की खबर नहीं है। 

रेलवे सुरक्षा प्रबंध पर विचार 

वर्तमान रेलवे सुरक्षा अधिनियम 1989 की धारा 151 के अंतर्गत षड्यंत्र प्रमाणित होने पर अधिकतम दस वर्ष की सजा और जुमार्ने का प्रावधान है। ताजा घटनाओं के बाद भारत सरकार इस कानून को कड़ा बनाने पर विचार कर रही है। रेलमंत्री ने संकेत दिया है कि इस अधिनियम में उप धारा जोड़कर इसे देशद्रोह की श्रेणी में लाने पर विचार हो रहा है। षड्यंत्र के चलते होने वाली रेल दुर्घटनाओं में किसी की मृत्यु होने पर देशद्रोह की धारा के साथ सामूहिक हत्या का षड्यंत्र करने की धारायें जोड़ने और आजीवन कारावास अथवा मृत्युदंड का प्रावधान करने पर विचार किया जा रहा है। 

नये प्रावधानों में धरना-प्रदर्शन करके रेलमार्ग अवरुद्ध करने पर भी दंड का प्रावधान किये जाने की संभावना है। सरकार के नियम जब भी बने लेकिन जिस प्रकार पूरे देश में रेलयात्रा को बाधित करके षड्यंत्र किये जा रहे हैं, इसके प्रति सरकार और सरकार के सुरक्षा प्रबंधों के साथ समाज का जागरूक होना भी जरूरी है। (लेखक, वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।)

Published / 2024-09-14 20:37:31
हिंदी दिवस : भाषा की धरोहर का उत्सव

डॉ दीपक प्रसाद

एबीएन एडिटोरियल डेस्क। 14 सितंबर का दिन हर वर्ष हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है, जो हिंदी भाषा की समृद्धि, महत्ता और इसकी सांस्कृतिक धरोहर को सम्मानित करने का अवसर प्रदान करता है। यह दिन विशेष रूप से हमारे संविधान द्वारा हिंदी को भारत की राजभाषा के रूप में स्वीकार किये जाने की याद दिलाता है।

हिंदी दिवस का इतिहास

14 सितंबर 1949 को भारतीय संविधान सभा ने हिंदी को देवनागरी लिपि में भारत की राजभाषा के रूप में अपनाया था। इस निर्णय के पीछे हिंदी के प्रचलन और इसके सरलता के गुणों को प्रमुखता दी गयी। इसके साथ हीए राष्ट्र की एकता और अखंडता के प्रतीक के रूप में हिंदी को स्थापित किया गया। इसके बाद से हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाने लगाए ताकि हिंदी भाषा के प्रति जागरूकता और इसका महत्व और बढ़ सके। 

हिंदी की विशेषताएं 

हिंदी भारत के हृदय की भाषा मानी जाती है। यह केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति, सभ्यता और भावनाओं का प्रतिबिंब भी है। हिंदी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह आम जनमानस से जुड़ी भाषा है, जो देश के विभिन्न हिस्सों को आपस में जोड़ने का कार्य करती है। हिंदी साहित्य का भी अद्वितीय योगदान है, जिसमें प्रेमचंद, निराला, महादेवी वर्मा जैसे साहित्यकारों की रचनाओं ने इसका मान बढ़ाया। 

वर्तमान में हिंदी की स्थिति 

वैश्वीकरण और तकनीकी युग के इस दौर में, हिंदी ने भी खुद को नये रूप में ढाल लिया है। इंटरनेट, सोशल मीडिया और अन्य डिजिटल मंचों पर हिंदी का व्यापक प्रयोग हो रहा है। इसके साथ ही हिंदी में फिल्मों, साहित्य और मीडिया का योगदान भी इसे लगातार समृद्ध बना रहा है। हालांकि, अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के कारण हिंदी के सामने कई चुनौतियां भी हैं। 

हिंदी दिवस का महत्व 

हिंदी दिवस हमें हमारी मातृभाषा और सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने और इसे आगे बढ़ाने का संदेश देता है। यह दिन हमें यह याद दिलाता है कि हमें अपनी भाषा पर गर्व होना चाहिए और इसे अगली पीढ़ियों तक पहुंचाने का जिम्मा भी हमारा है। इसके साथ ही, हिंदी दिवस उन लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है जो हिंदी को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित करने के लिए कार्यरत हैं। 

हिंदी दिवस केवल एक उत्सव नहीं है, यह हमारी सांस्कृतिक पहचान और आत्मसम्मान का प्रतीक है। हिंदी भाषा के प्रति हमारा सम्मान और इसे प्रोत्साहन देने का प्रयास हमें हमारी जड़ों से जोड़े रखता है। हिंदी हमारी संस्कृति की एक महत्वपूर्ण कड़ी है और इसे संरक्षित रखना हमारा कर्तव्य है। 

हिंदी दिवस पर कई प्रमुख हिंदी के विद्वानों, लेखकों और साहित्यकारों ने हिंदी भाषा के महत्व, उसकी समृद्धि और भविष्य को लेकर अपने विचार प्रकट किये हैं। 

  1. डॉ राम मनोहर लोहिया : अंग्रेजी हटाओ, हिंदी अपनाओ... के नारे के साथ लोहिया जी ने हिंदी के प्रचार-प्रसार पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि हिंदी केवल संवाद का माध्यम नहीं है, बल्कि यह भारत के आम जनमानस की पहचान है। उनका मानना था कि हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाना देश की एकता के लिए आवश्यक है। 
  2. डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी : हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था, हिंदी जन-जन की भाषा है। यह न केवल संचार का साधन है, बल्कि यह हमारे संस्कारों, हमारी संस्कृति और हमारी भावनाओं को व्यक्त करने का प्रमुख माध्यम है। उन्होंने हिंदी की अभिव्यक्ति क्षमता और इसके व्यापक दायरे पर बल दिया। 
  3. महादेवी वर्मा : महादेवी वर्मा ने कहा था- हिंदी भाषा का विकास और विस्तार केवल शासन से नहीं हो सकता, इसके लिए हमें इसे अपने दैनिक जीवन में आत्मसात करना होगा। उनका मानना था कि हिंदी का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि लोग इसे दिल से अपनायें और अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए इसका प्रयोग करें। 
  4. प्रेमचंद : हिंदी साहित्य के महान लेखक प्रेमचंद ने कहा था, हिंदी की सबसे बड़ी शक्ति इसकी सरलता और सहजता है। उन्होंने हिंदी को आम जनमानस की भाषा बतायाए जो ग्रामीण और शहरी दोनों जीवन में समान रूप से प्रचलित है। प्रेमचंद का यह भी मानना था कि हिंदी साहित्य में सामाजिक मुद्दों को उठाने की जबरदस्त क्षमता है। 
  5. डॉ राजेंद्र प्रसाद : देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था- हिंदी का विकास केवल उसके बोलने वालों की संख्या पर निर्भर नहीं करता, बल्कि उन लोगों पर निर्भर करता है जो इसके विकास के लिए सचेत रूप से काम कर रहे हैं। उनका मानना था कि हिंदी का विकास तभी संभव है जब हम सभी मिलकर इसे आगे बढ़ाने में योगदान दें। 
  6. डॉ नामवर सिंह : हिंदी आलोचना के प्रमुख हस्ताक्षर डॉ नामवर सिंह ने कहा था- हिंदी दिवस केवल औपचारिकता नहीं होनी चाहिए, यह एक आंदोलन होना चाहिए। हमें अपनी भाषा के प्रति गर्व होना चाहिए और इसे आगे बढ़ाने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए। 
  7. राहुल सांकृत्यायन : हिंदी केवल एक भाषा नहीं है, यह भारत की आत्मा की भाषा है। राहुल सांकृत्यायन ने हिंदी के विकास के लिए इसकी वैज्ञानिकता और व्यावहारिकता पर जोर दिया। उनका कहना था कि हिंदी को वैज्ञानिक और तकनीकी भाषा के रूप में भी समृद्ध करना जरूरी है। 
  8. विनोबा भावे : उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए अपील करते हुए कहा था- हिंदी हमारी आत्मा की भाषा है और इसका सम्मान करना हमारा कर्तव्य है। 
  9. हरिवंश राय बच्चन : हरिवंश राय बच्चन ने कहा था- हिंदी हमारी जड़ों से हमें जोड़ती है, यह हमारी पहचान का अभिन्न हिस्सा है। उन्होंने हिंदी साहित्य के माध्यम से इस भाषा को जनमानस के बीच लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया। 
  10. गांधी जी : महात्मा गांधी ने हिंदी के महत्व को समझाते हुए कहा था- राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है। उनका मानना था कि हिंदी को अपनाकर ही देश में संचार और विचारों का आदान-प्रदान सुगमता से हो सकता है। 

हिंदी दिवस पर इन विद्वानों की बातें हमें यह समझाती हैं कि हिंदी केवल संवाद का माध्यम नहीं है, यह हमारी संस्कृति, सभ्यता और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। हमें हिंदी के समृद्धि और उसके प्रचार-प्रसार के लिए निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए।(लेखक रंगकर्मी, निर्देशक, सहायक आचार्य, शिक्षा संकाय कार्तिक उरांव महाविद्यालय, गुमला सह रांची विश्वविद्यालय रांची, झारखंड हैं।)

Published / 2024-09-04 21:00:11
शिक्षक ज्ञान के दीपक

पांच सितंबर शिक्षक दिवस पर विशेष

रमेश सर्राफ धमोरा

एबीएन एडिटोरियल डेस्क। कहा जाता है कि गुरु के बिना ज्ञान अधूरा रहता है। यह बात बिल्कुल सत्य है। हमारे जीवन में सबसे पहली गुरु तो मां होती है जो हमें जन्म लेते ही हर बातों का ज्ञान कराती है। मगर विद्यार्थी काल में बालक के जीवन में शिक्षक एक ऐसा गुरु होता है जो उसे शिक्षित तो करता ही है साथ ही उसे अच्छे बुरे का ज्ञान भी कराता है। पहले के समय में तो छात्र गुरुकुल में शिक्षक के पास रहकर वर्षों विद्या अध्ययन करते थे। उस दौरान गुरु अपने शिष्यों को विद्या अध्ययन करवाने के साथ ही स्वावलंबी बनने का पाठ भी पढ़ाते थे। 

इसीलिए कहा गया है कि गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाय, बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताये। गुरु का स्थान ईश्वर से भी बड़ा माना गया है, क्योंकि गुरु के माध्यम से ही व्यक्ति ईश्वर को भी प्राप्त करता है। हमारे जीवन को संवारने में शिक्षक एक बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। सफलता प्राप्ति के लिये वो हमें कई प्रकार से मदद करते है। जैसे हमारे ज्ञान, कौशल के स्तर, विश्वास आदि को बढ़ाते है तथा हमारे जीवन को सही आकार में ढ़ालते है। कबीर दास ने शिक्षक के कार्य को इन पंक्तियो में समझाया है:- 

गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट 

अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट 

कबीर दास जी कहते हैं कि शिक्षक एक कुम्हार की तरह है और छात्र पानी के घड़े की तरह। जो उनके द्वारा बनाया जाता है और इसके निर्माण के दौरान वह बाहर से घड़े पर चोट करता है। इसके साथ ही सहारा देने के लिए अपना एक हाथ अंदर भी रखता है। शिक्षक हमें जीवन में सफलता के लिए आवश्यक ज्ञान और कौशल देते हैं। शिक्षक हमारे व्यक्तित्व को तैयार करते हैं। चरित्र को ढालने और मूल्यों को स्थापित करने में मदद करते हैं। हमें एक अच्छा नागरिक भी मनाने में मदद करते हैं। शिक्षक ही है जो छात्रों को जीवन का नया अर्थ सिखाता है। 

वे हमें सही रास्ता दिखाते हैं और कुछ भी गलत करने से रोकते हैं। वे बाहर से देख सकते हैं। वे प्रत्येक छात्र की देखभाल करते हैं और उनके विकास की कामना करते हैं। उस छात्र को मत भूलो जो छात्र अपने शिक्षकों का सम्मान नहीं करता है। वह जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ता है। शिक्षक छात्र के व्यक्तित्व को ढालते हैं। वे एकमात्र नि:स्वार्थ व्यक्ति हैं जो खुशी-खुशी बच्चों को अपना सारा ज्ञान देते हैं। 

शिक्षक विद्यार्थियो के जीवन के वास्तविक निमार्ता होते हैं जो न सिर्फ हमारे जीवन को आकार देते हैं। बल्कि हमें इस काबिल बनाते हैं कि हम पूरी दुनिया में अंधकार होने के बाद भी प्रकाश की तरह जलते रहें। शिक्षक समाज में प्रकाश स्तंभ की तरह होता है। जो अपने शिष्यों को सही राह दिखाकर अंधेरे से प्रकाश की और ले जाता है। शिक्षकों के ज्ञान से फैलने वाली रोशनी दूर से ही नजर आने लगती है। इस वजह से हमारा राष्ट्र ढेर सारे प्रकाश स्तंभों से रोशन हो रहा है। इसलिये देश में शिक्षकों को सम्मान दिया जाता है। 

शिक्षक और विद्यार्थी के बीच के रिश्तों को सुदृढ़ करने को शिक्षक दिवस एक बड़ा अवसर होता है। पुराने समय में शिक्षकों को चरण स्पर्श कर सम्मान दिया जाता था। परन्तु आज के समय में शिक्षक और छात्र दोनो ही बदल गये हैं। पहले शिक्षण एक पेशा ना होकर एक उत्साह और एक शौक का कार्य था। पर अब यह मात्र एक आजीविका चलाने का साधन बनकर रह गया है। शिक्षक एक व्यक्ति के जीवन में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। शिक्षक एक मार्गदर्शक, गुरु, मित्र होने के साथ ही और कई भूमिकाएं निभाते है। यह विद्यार्थी के उपर निर्भर करता है कि वह अपने शिक्षक को कैसे परिभाषित करता है। संत तुलसी दास के ने इसे नीचे के पंक्तियों में बहुत ही अच्छे तरीके से समझाया है।

जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी

संत तुलसी दास ने बताया है कि भगवान, गुरु एक व्यक्ति को वैसे ही नजर आयेंगे जैसा कि वह सोचेगा। उदहारण के लिए अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण को अपना मित्र मानते थे। वही मीरा बाई भगवान श्रीकृष्ण को अपना प्रेमी। ठीक इसी प्रकार से यह शिक्षक के उपर भी लागू होता है। इसीलिए कहते हैं कि शिक्षक समाज का पथ प्रदर्शक होता है। शिक्षक दिवस को स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय और शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षक और विद्यार्थियों के द्वारा बहुत ही खुशी और उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस दिन विद्यार्थियों से शिक्षकों को ढ़ेर सारी बधाइयां मिलती है। 

भारत में शिक्षक दिवस शिक्षकों के सम्मान में मनाया जाता है। शिक्षक पूरे वर्ष मेहनत करते है और चाहते है कि उनके छात्र विद्यालय और अन्य गतिविधियों में अच्छा प्रदर्शन करें। शिक्षक दिवस पर पूरे देश के विद्यालयों में विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। दुनिया के एक सौ से अधिक देशों में अलग-अलग समय पर शिक्षक दिवस मनाया जाता है। भारत में भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस पांच सितम्बर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है। 

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस को 1962 से शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। उन्होंने अपने छात्रों से अपने जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की इच्छा जतायी थी। देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन का जन्म पांच सितंबर 1888 को तमिलनाडु के तिरुमनी गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वे बचपन से ही किताबें पढ़ने के शौकीन थे और स्वामी विवेकानंद से काफी प्रभावित थे। डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक महान शिक्षक थे। जिन्होंने अपने जीवन के 40 वर्ष अध्यापन पेशे को दिया है। 

वो विद्यार्थियों के जीवन में शिक्षकों के योगदान और भूमिका के लिये प्रसिद्ध थे। इसलिए वो पहले व्यक्ति थे जिन्होंने शिक्षकों के बारे में सोचा और हर वर्ष 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रुप में मनाने का अनुरोध किया। उनका निधन 17 अप्रैल 1975 को चेन्नई में हुआ था। डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने 1909 में चेन्नई के प्रेसिडेंसी कॉलेज में अध्यापन पेशे में प्रवेश करने के साथ ही दर्शनशास्त्र शिक्षक के रुप में अपने करियर की शुरूआत की थी। उन्होंने बनारस, चेन्नई, कोलकाता, मैसूर जैसे कई प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों तथा विदेशों में लंदन के आक्सफोर्ड जैसे विश्वविद्यालयों में दर्शनशास्त्र पढ़ाया था। 

अध्यापन पेशे के प्रति अपने समर्पण की वजह से उन्हें 1949 में विश्वविद्यालय छात्रवृत्ति कमीशन का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। हर देश में इस दिवस को मनाने की तारीख अलग-अलग है। चीन में 10 सितंबर तो अमेरिका में छह मई, आॅस्ट्रेलिया में अक्तूबर का अंतिम शुक्रवार, ब्राजील में 15 अक्तूबर और पाकिस्तान में पांच अक्तूबर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है। इसके अलावा ओमान, सीरिया, मिस्र, लीबिया, संयुक्त अरब अमीरात, यमन, सऊदी अरब, अल्जीरिया, मोरक्को और कई इस्लामी देशों में 28 फरवरी को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। 

वर्तमान समय में शिक्षकों का समाज में सम्मान कम होने लगा है। बहुत से शिक्षकों की घटिया हरकतों ने उनको समाज की नजरों से गिरा दिया है। स्कूल, कालेजों में छात्र, छात्राओं के साथ शिक्षकों द्वारा नीच हरकत करने के चलते शिक्षण जैसा पवित्र कार्य बदनाम होता जा रहा है। मौजूदा दौर में शिष्य भी कुछ कम नहीं हैं। छात्रों की अनुशासनहीना के चलते स्कूल, कालेजों में शिक्षा का वातावरण समाप्त होता जा रहा है। गुरु-शिष्य को एक दूसरे की भावनाओं को समझ कर मिलजुल कर ज्ञान की ज्योति जलानी होगी। शिक्षक दिवस मनाने के साथ हमें शिक्षण कार्य की पवित्रता को फिर से बहाल करने की प्रतिज्ञा भी लेनी होगी। तभी हमारा शिक्षक दिवस मनाना सार्थक हो पायेगा। (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)

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