विचार

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Published / 2021-04-10 14:39:09
भारत कर वसूली में आगे, नागरिक सुविधा में पीछे

एबीएन डेस्क (डॉ नीलम महेंद्र)। कर प्रणाली की बात करें तो मनुस्मृति और वेदों से लेकर कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इसका स्पष्ट एवं सुव्यवस्थित उल्लेख मिलता है। भारत के प्राचीन ग्रंथों में राजा के द्वारा लिए गए कर एवं राजस्व पद्धति की व्याख्या राजा के शासन संबंधी सेवाओं के वेतन के रूप में किया गया था। वैदिक काल में भी ग्राम वासियों द्वारा कृषि एवं पशु संपति पर एक निर्धारित राशि बलि के रूप में चुकाई जाती थी। कृषकों से प्राप्त राशि को बलि तथा विक्रय वस्तु से प्राप्त राशि को शुल्क कहा जाता था जो सामान्यत: उसके मूल्य का छटवां अथवा आठवां हिस्सा होता था। वहीं कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी विस्तारपूर्वक राजकीय आय के स्रोतों का वर्णन किया गया है। मौर्यकाल में भू राजस्व समेत अनेक शुल्क नगरवासियों पर लगाए जाते थे जैसे,1. षड भाग: छठवें अंश के रूप में प्राप्य राज कर 2. सेना भक्त: युद्धकाल में राज्यादेश से प्रजा जनों द्वारा प्राप्त खाद्य पदार्थ 3. बलि: करों के अतिरिक्त अन्य उपहार के रूप में प्राप्त धन4. कर: अधीनस्त राजाओं से मिलने वाला कर5. उत्संग: उत्सव आदि अवसरों पर भेंट स्वरूप प्राप्त वस्तुएं 6. पाश्व: नियत कर से अधिक की वसूली 7. पारीहीणक: पशुओं द्वारा खेत आदि की हुई हानि के कारण पशु स्वामी को दिए गए अर्थ दंड से उपलब्ध धन8. औपयानिक: राजा को उपहार में प्राप्त धन 9. कौष्टयेक: खुदाई से सहसा प्राप्त धन।करों की इतनी वृहद व्याख्या करने के साथ साथ कौटिल्य ने राजा और प्रजा दोनों के लिए यह भी स्पष्ट किया है कि राज्य कर आदि का अधिकारी है तो प्रजा के प्रति उसके कर्तव्य भी हैं। और प्रजा कर देने के लिए कर्तव्यबद्ध है तो उसके अधिकार भी हैं, अगर राजा कर लेने के बाद भी अपने कर्तव्यों का ठीक से निर्वहन नहीं करता तो प्रजा उसके प्रति अपनी निष्ठा छोड़ सकती है। मध्यकालीन भारत में विभिन्न रियासतों का वर्चस्व था जो अपने अपने हिसाब से प्रजा से कर लेती थीं। सल्तनत काल से लेकर मुगल काल मेँ यह कर छठवें हिस्से से बढ़कर आय के आधे हिस्से तक पहुंच गया था। आधुनिक भारत में आयकर प्रणाली 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार पर आए वित्तीय संकट के कारण 1860 में अंग्रेजों द्वारा लाई गई थी। मजेदार बात यह है कि भारत के तत्कालीन ब्रिटिश वित्तमंत्री जेम्स विल्सन ने भी आयकर की शुरूआत करते हुए मनु को उदृत किया था। 1886 में भारत में इनकम टैक्स एक्ट पास हुआ था तब से उसमें कई बार बदलाव किए गए। प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात 1918 में फिर 1922 में नया एक्ट लाया गया। स्वतंत्र भारत में वर्तमान में जो आयकर कानून चल रहा है वो 1 अप्रैल 1962 को लागू किया गया था। भारत में दो प्रकार के कर लिए जाते हैं प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर। 2017 में जीएसटी लागू कर के अप्रत्यक्ष करों में क्रांतिकारी बदलाव लाकर कर सुधारों की तरफ एक महत्वपूर्ण कदम उठाया गया था। प्रत्यक्ष करों में भी सरकार हर बजट में कुछ बदलाव करती रहती है। लेकिन इसके बावजूद जब विश्व के देशों की टैक्स कंपेटेटिव इंडेक्स 2020 की रिपोर्ट आती है तो 36 देशों की इस सूची में न्यूजीलैंड, अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, फ्रांस, जर्मनी और पुर्तगाल जैसे देशों के नाम हैं लेकिन भारत का कोई स्थान नहीं है। जब व्यक्तिगत आयकर वसूलने वाले देशों से तुलना की जाती है तो वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में यह 37%, न्यूजीलैंड में 39% और भारत में 35.88% है। जीएसटी की बात की जाए तो भारत में 28% के साथ यह 140 देशों की तुलना में सबसे ज्यादा है 27 % के साथ दूसरे स्थान पर अर्जेंटिनिया है जबकि यूके और फ्रांस में यह 20% तो सिंगापुर में 7% है।

Published / 2021-04-09 15:33:42
अब पानी की हर बूंद बचाने का वक्त आ गया

एबीएन डेस्क। हर साल 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाया जाता है। इस साल भी हमने यह दिन मनाया और पानी की महत्ता स्वीकार की। विश्व जल दिवस इस लिहाज से भी अलग था कि जलवायु परिवर्तन अपने शबाब पर है। यानी हमें हर वह काम करना होगा जो करने की जरूरत है। वर्षा-जल की हरेक बूंद को जमा कर पानी की उपलब्धता बढ़ानी है, इसका इस्तेमाल इतने कारगर ढंग से करना है कि वर्षा-जल की हरेक बूंद का इस्तेमाल हमारे भोजन या फ्लश होने वाले पानी में हो। हमें यह भी सुनिश्चित करना है कि इस्तेमाल पानी की हरेक बूंद का पुनर्चक्रण हो और प्रदूषण से वह खराब न हो। हम यह बात पहले से जानते हैं और अमल में भी लाते हैं। लेकिन जलवायु परिवर्तन के दौर में इतना ही काफी नहीं होगा। हमें ये सारे काम कहीं अधिक तेजी से और व्यापक स्तर पर अलग ढंग से करने होंगे। हमें मालूम है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का ताल्लुक गर्मी और कम-ज्यादा बारिश से है। इन दोनों का जल चक्र से सीधा सह-संबंध है। इस तरह जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के लिए पानी एवं उसके प्रबंधन पर ध्यान देना होगा। हमें पता है कि हर नया साल इतिहास का सर्वाधिक गरम साल बनता जा रहा है और पिछले रिकॉर्ड को तोड़ता जा रहा है। भारत में ओडिशा के कुछ हिस्सों में तापमान फरवरी की शुरूआत में ही 40 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया था। उत्तर भारतीय राज्य बढ़ती गर्मी एवं सामान्य से अधिक तापमान के सारे पुराने रिकॉर्ड तोड़ रहे हैं। खास बात यह है कि यह सब ‘ला-नीना’ के साल में हो रहा है। ला नीना प्रशांत महासागर की वे जल धाराएं हैं जो दुनिया का तापमान कम करने के लिए जिम्मेदार मानी जाती हैं। लेकिन भारत के मौसम वैज्ञानिकों का कहना है कि वैश्विक ताप वृद्धि ने ला नीना के इस शीतकारी प्रभाव को कम कर दिया है। बढ़ती हुई गर्मी का जल सुरक्षा के लिहाज से कई मायने हैं। पहला, इसका मतलब है कि जल इकाइयों से अधिक वाष्पीकरण होगा। यानी हमें न सिर्फ लाखों जल निकायों में पानी जमा करने पर ध्यान देने की जरूरत है बल्कि वाष्पन के कारण होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए भी योजना बनानी होगी। एक विकल्प भूमिगत जल भंडारण यानी कुओं पर काम करने का है। भारत लंबे वक्त से भूमिगत जल प्रणालियों के प्रबंधन को कम तवज्जो देता रहा है क्योंकि सिंचाई विभाग की समूची अफसरशाही ही नहरों एवं अन्य सतही जल प्रणालियों पर आधारित है। लेकिन जलवायु परिवर्तन एवं पानी की भारी किल्लत के इस दौर में इसे बदलने की जरूरत होगी। हमें तालाबों, पोखरों एवं नहरों से होने वाले नुकसान की भरपाई के तरीके तलाशने होंगे। ऐसा नहीं है कि वाष्पीकरण से पहले नुकसान नहीं होता था लेकिन तापमान बढ़ने के साथ इसकी दर बहुत ज्यादा हो गई है। हमें योजना बनाने और अधिक काम करने की जरूरत है। दूसरा, बढ़ती गर्मी का मतलब है कि मिट्टी में नमी कम होती जाएगी जिससे जमीन में धूल की मात्रा बढ़ जाएगी और सिंचाई की जरूरत बढ़ती जाएगी। भारत जैसे देश में जहां भोजन का बड़ा हिस्सा अब भी वर्षा-सिंचित इलाकों में ही पैदा होता है, वहां पर मिट्टी की नमी कम होने से भूमि अपरदन तेज होगा और धूल का बनना भी बढ़ जाएगा। जल प्रबंधन को वनस्पति नियोजन के साथ तालमेल बिठाकर चलना होगा ताकि मिट्टी में पानी को रोके रखने की क्षमता बेहतर हो, अधिक देर तक चलने वाली तीव्र गर्मी के दौर में भी। तीसरा, साफ है कि गर्मी बढ़ने से पानी का इस्तेमाल बढ़ जाएगा क्योंकि पीने एवं सिंचाई के साथ ही जंगलों या इमारतों में लगी आग बुझाने के लिए भी ज्यादा पानी की दरकार होगी। हम दुनिया के कई हिस्सों एवं भारत में भी जंगलों में भीषण आग लगने के डरावने दृश्य देख चुके हैं। तापमान जैसे-जैसे बढ़ता जाएगा, यह सिलसिला भी तेज होता जाएगा। जलवायु परिवर्तन से पानी की मांग बढ़ेगी लिहाजा यह और भी जरूरी हो जाता है कि हम पानी के साथ अपशिष्ट जल को भी बरबाद न करें। सच यह है कि अत्यधिक बारिश होने की बढ़ती घटनाओं के संदर्भ में भी जलवायु परिवर्तन का असर दिख रहा है। हम बारिश के एक बाढ़ के तौर पर आने की भी अपेक्षा करें। इस तरह बाढ़ों का एक चक्र पूरा होने के बाद सूखे की स्थिति और भी गंभीर हो। भारत में पहले से ही साल में बारिश कम दिन होती है। साल भर में औसतन सिर्फ 100 घंटे की ही बारिश होती है। लेकिन जलवायु परिवर्तन बारिश वाले दिनों की संख्या और कम करेगा। वैसे भारी बारिश वाले दिनों की संख्या बढ़ जाएगी। इसका जल प्रबंधन की हमारी योजनाओं पर बड़ा असर होगा। हमें बाढ़ प्रबंधन पर अधिक शिद्दत से गौर करने की जरूरत है, नदियों के तटबंध बनाने के साथ ही बाढ़ के पानी को भूमिगत एवं सतहीय जलभंडार निकायों-कुओं एवं तालाबों में जमा किया जा सके। लेकिन हमें वर्षाजल को इकट्ठा करने के बारे में अलग तरह से योजना बनाने की जरूरत है। फिलहाल मनरेगा के तहत लाखों की संख्या में बन रहे तालाब एवं पोखर सामान्य बारिश के हिसाब से डिजाइन हैं। लेकिन अब भारी बारिश की बात आम होने के साथ ही ये जल भंडार संरचनाओं को भी नए सिरे से डिजाइन करने की जरूरत है ताकि वे लंबे समय तक लबालब रहें। मूल बात यह है कि जलवायु परिवर्तन के दौर में हमें पानी की हर बूंद बचानी होगी, चाहे बारिश का पानी हो या बाढ़ का पानी। हमें पानी एवं उसके प्रबंधन को लेकर पहले जुनूनी होना था लेकिन अब तो सेहत एवं दौलत के आधार पानी को लेकर हमें संकल्पित एवं सुविचारित रवैया अपनाना होगा। यह अपने भविष्य को बनाने- बिगाड़ने की बात है।

Published / 2021-04-08 14:24:53
घुमक्कड़ों के मसीहा राहुल सांकृत्यायन

(डॉ नीतू नवगीत)। हिंदी साहित्य के इतिहास में महापंडित राहुल सांकृत्यायन यात्रा वृतांत या यात्रा साहित्य के जनक या पितामह माने जाते हैं। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के पन्दाहा गांव में 9 अप्रैल, 1893 को हुआ था। इनके पिता गोवर्धन पांडे धार्मिक विचारों वाले एक किसान थे। बाल्यकाल में ही इनकी माता कुलवंती देवी का निधन हो गया था। अत: इनका पालन-पोषण इनके ननिहाल में ही हुआ। राहुल जी के बचपन का नाम केदारनाथ पांडे था। बालक केदार के नाना रामशरण पाठक थे जो फौज में 12 साल नौकरी कर चुके थे। फौजी नाना बालक केदार को दिल्ली, शिमला, नागपुर, हैदराबाद, अमरावती, नासिक इत्यादि जगहों के अनगिनत यात्रा संस्मरण सुनाया करते थे। कहते हैं- बाल्यकाल के संस्कार जीवन पर्यंत स्थायी रह जाते हैं। यहीं से बालक केदार के मन में यात्रा के प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया। उनके अंत:करण में यात्रा की ललक, यात्रा के प्रति प्रेम अंकुरित करने में ख्वाजा मीर दर्द के शेर की महती भूमिका रही-सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहां, जिंदगानी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहां? इस शेर के संदेश ने बालक केदार के मन में बेहद गहरा, बेहद अमिट प्रभाव डाला और इसके बाद इनके घुमक्कड़ी जीवन का सूत्रपात हुआ। राहुल जी की पाठशाला और विश्वविद्यालय यही घुमक्कड़ी जीवन था। उनका मानना था कि घुमक्कड़ी मानव मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। उन्होंने कहा भी था-कमर बांध लो भावी घुमक्कड़ों, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है। राहुल जी ने अपनी यात्रा के अनुभवों को आत्मसात करते हुए घुमक्कड़ शास्त्र भी रचा। वह एक ऐसे घुमक्कड़ थे जो सच्चे ज्ञान की तलाश में थे और जब भी सच को दबाने की कोशिश की गई तो वे विद्रोही हो गए। उनका संपूर्ण जीवन अंतर्विरोधों से भरा पड़ा है। मात्र 11 वर्ष की आयु में जब उनका विवाह जबरन संतोषी नामक बालिका से करवा दिया गया तो वह घर के विद्रोही हो गए। इस विवाह की प्रतिक्रिया में राहुल जी ने किशोरावस्था में ही गृह त्याग कर दिया। घर से भागकर वे बनारस चले आए और फिर वहां से परसा मठ (जिला छपरा, बिहार) में जाकर साधु बन गए । लेकिन सत्यानुरागी राहुल ने जब मठ में रहने वाले साधु और महंतो का आडंबरपूर्ण जीवन देखा तो वहां भी विद्रोही बन गए । घुमक्कड़ी स्वभाव भी उनके प्रयाण का कारण बना । 14 वर्ष की अवस्था में वे कोलकाता भाग आए। ताउम्र गतिशील बने रहे। बड़ी ही निर्भीकता से आगे बढ़ते रहे। उनके मन में न तो कोई दुविधा थी और न अनिश्चय का कुहासा । राहुल जी घुमक्कड़ी के बारे में कहते हैं- मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता। दुनिया दु:ख में हो या सुख में, सभी समय यदि सहारा पाती है तो घुमक्कड़ों की ओर से। प्राकृतिक आदम मनुष्य परम घुमक्कड़ था। और इनकी बातें अक्षरश: सत्य है। आदि काल में धार्मिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक और व्यापारिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए घुमक्कड़ी स्वभाव वाले लोगों ने लंबी-लंबी यात्राएं की। तब परिवहन के साधन इतने विकसित नहीं थे । उन लोगों ने पैदल चलकर या घोड़ा गाड़ी और बैलगाड़ी जैसे वाहनों की मदद से अपनी यात्राएं पूरी की। नौका यात्रा ने घुमक्कड़ी को आसान बनाया।मेगास्थनीज,ह्नवेनसांग,फाहयान,अलबरूनी, इब्नबतूता, अमीर खुसरो, माकोर्पोलो, सेल्यूकस निकेटर इत्यादि ऐसे घुमक्कड़ हुए जिनके द्वारा लिखे या बयान किए गए यात्रा वृतांतों से घुमक्कड़ी साहित्य का संवर्धन हुआ। घुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन बीसवीं सदी की उपज थे । तब देश गुलाम था। ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारतीय समाज, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और राजनीति सभी संक्रमण काल के दौर से गुजर रहे थे। राहुल जी इन सब से अप्रभावित न रह सके। राहुल जी अप्रतिम प्रतिभा संपन्न थे । वे साधु थे, बौद्ध भिक्षु थे, यायावर थे, इतिहासज्ञ थे, पुरातत्ववेदा थे और साहित्यकार भी थे । वह अलग-अलग राहों पर चले पर सत्य का अन्वेषण नहीं छोड़ा। कलम को भी सदैव साथ रखा। उन्होंने अपनी यात्राओं का विवरण लिखा, नाटक लिखे, कथाएं लिखीं। उनके व्यक्तित्व के अनेक आयाम हैं। शायद ही उनका नाम कभी बिना विशेषण के लिया गया हो। महापंडित, शब्दशास्त्री, त्रिपिटकाचार्य, अन्वेषक,, कथाकार, निबंध लेखक, अन्वेषक, आलोचक, कोषकार , अथक यात्री और भी ना जाने कितने शब्द उनके नाम से ठीक पहले जोड़े गए हैं। राहुल जी की कृतियों की सूची भी काफी लंबी है । आपको हिंदी भाषा और साहित्य की बहुमुखी सेवा करने का गौरव प्राप्त है । इनका अध्ययन जितना विशाल था, साहित्य सृजन उतना ही विराट। राहुल जी 36 एशियाई और यूरोपीय भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने लगभग 150 ग्रंथों का प्रणयन किया। सन 1927 ईस्वी में उनके साहित्य के जीवन का प्रारंभ हुआ। उनके द्वारा लिखी गई कहानियां हैं- 1. सतमी के बच्चे2. वोल्गा से गंगा 3. बहुरंगी मधुपुरी4. कनैला की कथा उन्होंने कई उपन्यास भी लिखे- 1. बाइसवीं सदी जीने के लिए 2. सिंह सेनापति3. जय यौधेय 4. भागो नहीं दुनिया बदलो 5. मधुर स्वप्न 6. राजस्थान निवास 7. विस्मृत यात्री 8. दिवो दास अन्य महत्वपूर्ण रचनाओं में मेरी जीवन यात्रा, दर्शन दिग्दर्शन, घुमक्कड़ शास्त्र,किन्नर देश में, दिमागी गुलामी, यात्रा के पन्ने, एशिया के दुर्गम भूखंडों में ... इत्यादि प्रसिद्ध हैं। मेरी लद्दाख यात्रा, मेरी तिब्बत यात्रा, तिब्बत में सवा वर्ष, रूस में पच्चीस मास, मेरी यूरोप यात्रा इत्यादि उनके द्वारा लिखे गए अप्रतिम यात्रा वृतांत हैं । सरदार पृथ्वी सिंह, नए भारत के नए नेता आदि उनके द्वारा लिखी गई जीवनियाँ हैं । राहुल सांकृत्यायन एक प्रतिष्ठित बहुभाषाविद् थे । बौद्ध धर्म पर उनका शोध हिंदी साहित्य में युगांतरकारी माना जाता है। इस महती कार्य के लिए उन्होंने तिब्बत से लेकर श्रीलंका तक का भ्रमण किया था। (लेखिका साहित्यकार सह लोक गायिका हैं।) लावा उन्होंने मध्य एशिया और काकेशस भ्रमण पर भी यात्रा वृतांत लिखे जो साहित्यिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं । राहुल जी जीवन पर्यंत दुनिया की सैर करते रहे। इस सैर में सुविधा-असुविधा का कोई प्रश्न ही नहीं था। जहां जो साधन उपलब्ध हुए, उन्हें स्वीकार कर लिया। वे अपने अध्ययन और अनुभव का दायरा बढ़ाते रहे । यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि ज्ञान के अगाध भंडार थे राहुल जी। वह कहा करते थे कि उन्होंने ज्ञान को सफर में नाव की तरह लिया है बोझ की तरह नहीं। ज्ञान की खोज में देश-विदेश की यात्रा करते रहना ही राहुल जी की जीवनचर्या थी । राहुल जी का पूरा जीवन साहित्य को समर्पित था। साहित्य रचना के मार्ग को उन्होंने बहुत पहले से चुन लिया था। सत्यव्रत सिन्हा के शब्दों में-"वास्तविक बात तो यह है कि राहुल जी किशोरावस्था पार करने के बाद ही लिखना शुरू कर दिए थे। जिस प्रकार उनके पाँव नहीं रुके, उसी प्रकार उनके हाथ की लेखनी भी नहीं रूकी। उनकी लेखनी की अजस्र धारा से विभिन्न विषयों के प्राय: 150 से अधिक ग्रंथ प्रणीत हुए ।" राहुल जी के यात्रा साहित्य की सबसे प्रमुख विशेषता है- उनकी वर्णन शैली । यह इतनी आकर्षक है कि पाठक भी लेखक के संग-संग भ्रमण करने लगता है। राहुल जी की प्रमुख कर्मस्थली तिब्बत ही रही । तिब्बत से उनका अत्यंत गहरा और भावनात्मक लगाव रहा है। यही कारण है कि उन्होंने चार बार तिब्बत की यात्रा की । 1929 में राहुल जी ने तिब्बत की पहली यात्रा की। 1930 में उन्हें महापंडित की उपाधि मिली। श्रीलंका में प्रव्रज्या ग्रहण कर वह रामोदर सांकृत्यायन से राहुल सांकृत्यायन बने । 1934 में उन्होंने तिब्बत की दूसरी यात्रा की जबकि तिब्बत की तीसरी यात्रा 1936 ईस्वी में की थी । तिब्बत की अंतिम और चौथी यात्रा उन्होंने 1938 ईस्वी में की। राहुल जी द्वारा लिखे गए यात्रा वृतांत सिर्फ स्मृतियाँ नहीं हैं बल्कि एक मिटती जाती दुनिया का अभिलेखन है। जैसा किसी कवि ने कहा है- हाथों में पता नहीं कि रबर है कि पेंसिल है। जितना भी लिखता हूं उतना ही मिटता है। हिंदी और हिमालय को राहुल जी ने बहुत प्यार दिया। उन्हीं के अपने शब्दों में- "मैं ने नाम बदला, वेशभूषा बदली, खानपान बदला, संप्रदाय बदला; लेकिन हिंदी के संबंध में मेरे विचारों में कोई परिवर्तन नहीं किया ।" राहुल जी के विचार आज बेहद प्रासंगिक हैं। उनकी उक्तियां सूत्र रूप में हमारा मार्गदर्शन करती हैं । हिंदी को खड़ी बोली का नाम भी राहुल जी ने ही दिया था। इतना ही नहीं ललित कला अकादमी के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी ने बताया कि राहुल सांकृत्यायन पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने पहली बार किसी भारतीय भाषा में मध्य एशिया का इतिहास लिखा है। उनके द्वारा लिखी गई दोहाकोष और अथातो घुमक्कड़ भी हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है। राहुल जी ने न सिर्फ दुर्गम भूखंडों की यात्राएं की अपितु उनका बेहद वृतांत तक लिख डाला। जरा सोचिए! किसी अनजान देश में अनजान रास्तों से गुजरते हुए जाना। इतना ही नहीं उनके सभ्यता-संस्कृति को आत्मसात करते हुए उनकी कहानियां लिखना । कितना रोमांचक रहा होगा। उस अनजान देश के खंडहर, टूटे-फूटे महल, नदी, पर्वत, जंगल,झरने इत्यादि क्या कथाएं कहती हैं, किस पुरातन इतिहास में जोड़ती है यह सब ढूंढना कोई सहज कार्य नहीं है। राहुल जी के यात्रा वृत्तांत को समझने के लिए उनकी तिब्बत यात्रा को समझना नितांत आवश्यक है । प्रथम तिब्बत यात्रा राहुल जी सन 1929-30 में करते हैं । उस समय भारतीयों को तिब्बत यात्रा की अनुमति नहीं थी ।प फिर भी राहुल जी दृढ़संकल्पित थे कि उन्हें तिब्बत जाना ही है। इसलिए उन्होंने 1929 में बौद्ध धर्म अंगीकार करने के बाद नेपाल के रास्ते एक भीखमंगे के छद्म वेश में तिब्बत की यात्रा की। तिब्बत की राजधानी ल्हासा की ओर जाने वाले दुर्गम रास्तों का वर्णन उसने बहुत ही रोचक शैली में किया है। इस यात्रा वृतांत से हमें उस समय के तिब्बती समाज की जानकारी मिलती है। नेपाल से तिब्बत जाने का मुख्य रास्ता फरि-कलिंड़पोड़्ग उस वक्त नहीं खुला था।फरि-कलिंड़पोड़्ग सिर्फ व्यापारिक ही नहीं सैनिक रास्ता भी था। इसलिए राहुल जी को जगह-जगह फौजी चौकियों और किले भी मिले जिनमें कभी चीनी पलटन रहा करती थी । ऐसे ही परित्यक्त एक किले में राहुल जी चाय पीने के लिए ठहरे। वे कहते हैं कि तिब्बत में यात्रियों के लिए बहुत सी तकलीफें भी है और कुछ आराम की बातें भी। सन् 1929 में जब भारत गुलाम था उस वक्त हम मानसिक रूप से भी कई बेड़ियों में जकड़े हुए थे। भारत में जब धर्म की राजनीति चरम पर थी, पर्दा प्रथा प्रचलन में था, स्त्रियों को आजादी नहीं थी; उस समय भी तिब्बत की परिस्थितियां बिल्कुल अलग थी । वहां जाति-पाति, छुआछूत का सवाल ही नहीं था और ना औरतें पर्दा ही करती थीं। लेखक को डाँड़ा थोंड़्ला पार करना था । यह सबसे खतरनाक रास्ता था । 16-17 हजार फीट की ऊंचाई होने के कारण दोनों तरफ मीलों तक कोई गांव-गिराव नहीं था । डाकुओं का भी वह मनपसंद जगह था क्योंकि जो स्थान निर्जन सुनसान हो, वहां डकैत भी छुपे रहते हैं । लेकिन लेखकों जहां भी खतरा महसूस होता, वह कुची-कुची (दया-दया) एक पैसा कह कर भीख मांगने लगते । लेखक घोड़े पर सवार होकर डाँड़े के ऊपर पहुंच जाते हैं । वे समुद्र तल से 17-18 हजार फीट ऊंचे खड़े थे । सर्वोच्च स्थान पर डाँड़े के देवता का स्थान था जो पत्थरों के ढेर, जानवरों के सिंगों और रंग-बिरंगे कपड़े की झंडियों से सजाया गया था । डाँड़े से उतराई करते हुए लेखक टिंड़री के मैदान में पहुंचते हैं । वहां लेखक एक मंदिर में पहुंचते हैं जहां कंजूर यानी बुद्धवचन का अनुवाद हो रहा था और वहां 103 पोथियाँ रखी हुई थी । लेखक कहते हैं कि मेरा आसन भी वहां लगा । वह बड़े-मोटे कागज पर अच्छे अक्षरों में लिखी हुई थी । एक-एक पोथी 15-15 सेर से कम नहीं रही होगी । इस तरह हम देखते हैं कि लेखक हस्त लिपियों की खोज कितनी पीड़ा उठाकर करते हैं । 21वीं सदी के इस दौर में जब संचार क्रांति के साधनों ने समग्र विश्व को एक ग्लोबल विलेज में परिवर्तित कर दिया है एवं इंटरनेट द्वारा ज्ञान का समूचा संसार क्षणभर में एक क्लिक पर सामने उपलब्ध हो, ऐसे में यह अनुमान लगाना कि कोई व्यक्ति दुर्लभ ग्रंथों की खोज में हजारों मील दूर पहाड़ों और नदियों के बीच भटकने के बाद उन ग्रंथों को खच्चरों पर लादकर अपने देश में लाए , बहुत ही रोमांचक लगता है। राहुल जी ने यह कहा भी है कि पहली बार जब वे तिब्बत में प्रवेश कर रहे थे तो उन्हें उतने ही कष्टों का सामना करना पड़ा था जितना कि हनुमान जी ने लंका प्रवेश में किया था । करीब सात-आठ हजार फुट की ऊंचाई पर जब लेखक यात्रा कर रहे थे तो उन्हें लाल, गुलाबी और सफेद कई रंग के फूलों वाले बुरांश के पेड़ मिले थे । बुरास को वहां अशोक भी कहा जाता है लेकिन हमारे यहां के अशोक के वृक्ष बुरांश से अलग हैं । अंग्रेजी में बुरांश को रोडेन्ड्रन कहा जाता है । लेखक कहते हैं कि एक वृक्ष तो अपने फूलों से ढका हुआ इतना सुंदर मालूम हो रहा था कि उसे देखने के लिए मैं ठहर गया । कैमरे से फोटो लिया । लेकिन फोटो में रंग कहां से आ सकता था । उस समय ब्लैक एंड वाइट फोटो ही लिए जा सकते थे । इस तरह राहुल जी जंगल, वनस्पति, पहाड़, पर्वत, मैदान के अतिरिक्त वहां की विवाह संस्था का भी जिक्र करते हैं । वे कहते हैं कि पहाड़ हरे-भरे जंगलों से परिपूर्ण थे । वृक्षों में छोटी बांसी, बंज, ओक और देवदार जातीय वृक्ष बहुत थे । वह कहते हैं कि वहां का जंगल इसलिए भी सुरक्षित रह गया क्योंकि वहां जनवृद्धि का कोई डर नहीं है । तिब्बती लोगों में पांडव विवाह होता है यानी सभी भाइयों का एक विवाह होता है । यदि एक पीढ़ी में दो भाई हैं, दूसरी पीढ़ी में दस तो तीसरी पीढ़ी में फिर दो-तीन हो जाने की संभावना है । इस प्रकार न तो वहां पर घर बढ़ता है और नहीं खेत- संपत्ति बँटती है । आदमियों के न बढ़ने से जंगल काट कर नए खेतों को आबाद करने की आवश्यकता भी नहीं होती है । लेखक बताते हैं कि नेपाल के इधर के पहाड़ों में तिब्बत का नमक चलता है जो सस्ता भी होता है । नेपाली लोग अपनी पीठ पर मक्की, चावल या कोई भी अनाज लादकर ञेनम पहुंचते हैं और वहां से नमक लेकर लौट जाते हैं । वे आगे कहते हैं कि इधर के गांव में हर जगह बौद्ध चैत्य या मंत्र खुदे हुए पत्थरों की दीवारें रहती हैं । नमक लादे लोग इन्हीं चैत्यों और मांडियों में शौच जाते हैं ।. बस्ती के आसपास तो गंदगी का ठिकाना ही नहीं है । ञेनम के पास पहुंचते ही उन्हें एवरेस्ट पर्वत भी दिखाई पड़ा । पुस्तकों की खोज करते-करते लेखक सस्क्या की ओर पहुंचे । वे रास्ते में मक्खन वाला नमकीन चाय पीते हैं । चाय के साथ सत्तू खाने की भी परंपरा रही है । थुकपा उन्हें बहुत पसंद आता है । थुकपा के बारे में वह बताते हैं कि वह एक तरह की पतली खिचड़ी है । यह हमारे यहां की खिचड़ी से बिल्कुल अलग है । हमारे यहां की खिचड़ी में दाल चावल इत्यादि डाले जाते हैं किंतु थुकपा में अन्न की जगह सत्तू, मूली या आलू, मांस और हड्डी, चर्बी, नमक-प्याज जैसी चीजें अधिक पानी में डालकर घंटों पकाई जाती है । फिर कटोरों में लेकर उसे गरमा गरम किया जाता है । चर्बी मांस और प्याज डालकर दो-तीन घंटे पकाया गया हो तो बहुत स्वादिष्ट होता है, इसमें संदेश नहीं । बड़े घरों में तो इसे 5-5, 6- 6 घंटे चूल्हे पर रखकर छोड़ा जाता है । चूल्हों पर एक साथ पांच बर्तन रखे जा सकते हैं । इसलिए ज्यादा इंधन खर्च होने का सवाल ही नहीं है । यह गरमा गरम थुकपा चीनी मिट्टी के कटोरे में रात में सोने से पहले भी पीना पसंद करते हैं। तिब्बत में सत प्रतिशत लोग मांसाहारी हैं किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि वह मांस बहुत सुलभ है । बड़े घरों में सूखा मांस हमेशा तैयार रहता है । क्योंकि किसी मेहमान की खातिरदारी के लिए मांस आवश्यक चीज है । सूखा होने पर उसे पकाने की आवश्यकता नहीं समझी जाती । इसलिए उसके दो एक बड़े टुकड़े एक ऊंचे पांव की तस्करी पर रखकर नमक और चाकू के साथ मेहमान के सामने रख दिए जाते हैं । इसके साथ ही लकड़ी के सुंदर सत्तू दान में सत्तू और सुंदर चीनी प्याला चाय के लिए रखा जाता है । जाड़ा आरंभ होने से पहले ही भेड़ या याक जैसे पशुओं को मार कर रख लिया जाता है क्योंकि जाड़ों के आरंभ होने पर वहां घास और दूसरे चारों की कमी हो जाती है । जिसके कारण पशु दुर्बल होने लगते हैं । तिब्बती पंचांग का चौथा महीना शाक्य माह के आने पर उस समय प्राणी हिंसा करना बुरा समझा जाता है । यह बुद्ध के जन्म,निर्वाण और बुद्धत्व प्राप्ति का महीना होने के कारण बहुत पुण्य माना जाता है । सन 1934 में राहुल जी ने तिब्बत की दूसरी यात्रा की थी। इसका वर्णन हमें पत्रों के रूप में दिखाई पड़ता है । वह अपने परम मित्र आनंद जी को पत्र लिखते हैं और बड़ी ही सूक्ष्मता से अपनी यात्रा के विविध पहलुओं से उन्हें अवगत कराते हैं । एक पत्र में वह लिखते हैं- प्रिय आनंद जी, कलिमपोंग से लहासा तक वही पुराना रास्ता था । इसलिए उसके बारे में विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं थी । लहासा 2 महीने 11 दिन रहा । इस बीच में विनय पिटक के अनुवाद और विज्ञप्ति के कुछ भाग को संस्कृत में करने के अतिरिक्त दो महत्वपूर्ण तालपत्र के संस्कृत ग्रंथों अभिसमयालंकार टीका और वादन्याय टीका को खोज पाने का सौभाग्य मिला । ( यह उनकी खोजी प्रवृत्ति को दशार्ती है ।) दोनों पुस्तकों के फोटो ले लिए । एक कॉपी अपने पास रख नेगेटिव सहित एक-एक प्रति पटना में श्री जायसवाल जी के पास भेज दी है । अबकी बार यहां भिक्षुओं तथा गृहस्थों के नाना प्रकार के वस्त्र, आभूषण भी संग्रह कर रहा हूं । तिब्बत में चित्रकला पर एक लेख लिख चुका हूं जो किसी हिंदी पत्र में भेज दूंगा- सचित्र । साथ ही यहां के चित्रकारों के सभी रंग, उनके बनाने का ढंग, तूलिका आदि का संग्रह किया है । तिब्बती भाषा की दूसरी तीसरी पुस्तकों को छापने के लिए कोलकाता भेजा था, रास्ते में उसी थैले में किसी ने शराब रख दी, जिससे भींग कर पुस्तक के कितने ही भाग अपाठ्य हो गए । विनयपिटक के हिंदी अनुवाद को भी आदमी के हाथ गयाची (डाकखाना) जहां कि अंग्रेजी डाकखाना है, भेजा है । देखिए, सकुशल पहुंच जाए तब । नहीं तो योगिनी-डाकिनी के मुल्क में कहीं फिर बोतल लुढ़क गई तो वह भी राम-राम सत्य । अपने राम ने तो कसम खा रखी है यानी लेखक ने कसम खा रखी है कि यदि लिखी हुई कोई पुस्तक एक बार गुम या नष्ट हो जाए तो फिर उसमें हाथ नहीं लगाना । हां तो फेम्बो की यात्रा की क्यों जरूरत पड़ी । 10 वीं सदी से 13 वीं सदी तक कितने ही अच्छे-अच्छे विद्वान इस प्रदेश में हुए । मेरे एक विद्वान मित्र का कहना है कि फेम्बो या फेन् बो हमेशा तंत्र मंत्र से बगावत करता रहा है । रावण की लंका में विभीषण के समान दीपंकर पंडित शर-बा तो तंत्र मंत्र के कठोर विरोधी थे । मालूम हुआ कि दसवीं से 13 वीं शताब्दी तक के कितने ही विहार हैं जिनमें रेड़िड़् में तो निश्चित ही थोड़ी सी ताल पत्र की पुस्तकों के होने की बात बतलाई गई है । वस्तुत: यही कारण है इधर आने का । जब पुस्तकों के लिए आना ही था तो उसके लिए विशेष तैयारी करनी जरूरी थी । यात्रा हेतु इस बार वह भीखमंगे का छद्म वेश नहीं, सामने से पूरी तैयारी के साथ तिब्बत में प्रवेश की योजना बनाते हैं । सबसे पहले तो सभी पुराने मठों के लिए पुस्तकें दिखाने हेतु वह भोट सरकार से चिट्ठी प्राप्त कर लेते हैं । चिट्ठियों के बाद दूसरा प्रश्न था साथी और सवारी का । साथियों में गे से के अतिरिक्त एक फोटोग्राफर की आवश्यकता थी । सौभाग्य से लहासा के फोटोग्राफर श्री लक्ष्मी रत्न ने चलना स्वीकार कर लिया । डाकू एवं चोरों से रक्षा हेतु एक और साथी इन-ची मिन-ची जुड़े । एक पिस्तौल बंदूकधारी थे । एक अन्य साथी जुड़े जो अच्छे चित्रकार हैं तथा इतिहास और न्याय शास्त्र की अच्छी जानकारी भी रखते हैं । कहसुन कर राहुल जी ने उनके भी गले में एक सात गोली का पिस्तौल एवं कारतूसों की माला लटका दी । सवारी के लिए खच्चरों की व्यवस्था भी हो गई थी । छ:. खच्चरों की व्यवस्था साहू पूर्णमान ने कर दी । खच्चरों के सरदार थे सो- नम ग्यलन छन थे । इस तरह हम देखते हैं कि यात्रा हेतु राहुल जी की पूरी तैयारी तात्कालिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए की गई थी । सभी साथी एक दूसरे के साथ मस्ती करते हुए आगे बढ़ते हैं । फोटोग्राफर लक्ष्मी रतन को लोग नाती-ला के नाम से जानते हैं । दरअसल उनकी नानी उन्हें नाती कहती थी और भोट वासियों ने उन्हें नाती-ला बना दिया । अब बुढ़ापे तक उसे नाती-ला ही रहना है । नाती-ला को इस बात से बहुत ऐतराज था । इसलिए सभी उन्हें नाती-ला कहकर चिढ़ाते थे । इस तरह घुमक्कडों की छोटी सी टोली लक्ष्य प्राप्ति हेतु हंसते-गाते निकल पड़ती है । ये सभी लहासा से उत्तर की ओर जाते हैं। चांग की ओर, सक्य की ओर एवं ञेनम की ओर, नेपाल की ओर राहुल सांकृत्यायन यात्राएं करते हैं । और बहुत ही लाभप्रद मनोरंजक यात्रा वृतांत भी लिखते हैं । अब थोड़ा सा जिक्र लद्दाख यात्रा का भी कर लिया जाए । कश्मीर के रास्ते लद्दाख जाकर जब वे वापस लौट रहे थे तो हमेशा की तरह वह आनंद जी के नाम चिट्ठी लिखते हैं । उनके द्वारा लिखी गई चिट्ठी हमें वहां के लोगों की सभ्यता-संस्कृति, रहन-सहन वेशभूषा, मठों एवं भौगोलिक क्षेत्र एवं जलवायु से लगातार जोड़ती रही। लेखक हमें बताते हैं कि लद्दाख में पित्तोक, ठिक्-से, रिजोंड्ं और लि-कीर यह प्रधान गोलूपा यानी पीली टोपी वाले मठ हैं । लि-कीर का कोई अवतारी लामा नहीं है । यह 11वीं शताब्दी में स्थापित हुआ था । बाकी तीन मठों के अधिपति अवतारी लामा होते हैं जिन्हें लद्दाख में कुशोक कहते हैं । पित्तोक का अशोक 15-16 वर्ष का बालक है जो आजकल लहासा में पढ़ रहा है । रिजोंड्ं का कुशोक तो तीन चार वर्ष का बच्चा है । ठिक्-से के वर्तमान अशोक की जीवनी नाना चित्र-विचित्र घटनाओं से परिपूर्ण है । ठिक-से के कुशोक का बाप एक बड़ा राज कर्मचारी है । अकेला पुत्र होने पर भी मठ के अधिकार के लोभ से या अवतारवाद के मायाजाल में पढ़कर बाप ने लड़के को कुशोक बनने के लिए दे दिया । लड़कपन तो जैसे-तैसे कुछ पढ़ते, कुछ खेलते बीता । जब यौवन में प्रवेश हुआ, तब उसे अपने पर काबू रखना भारी हो गया । पहले छुप-छुपकर स्त्री और शराब का दौर चलता था, पीछे खुलकर । साथ में सिगरेट भी पीने लगा जिसका पीना भोट देशीय उन लामाहों के लिए अक्षम्य अपराध समझा जाता है जो दिन रात छड़ यानी शराब के गर्क में रहते हैं । मठ के भिक्षुओं और गृहस्थों को बुरा लगने लगा । किंतु करते क्या । वह तो एक पुरातन सिद्ध पुरुष का अवतार था । धीरे-धीरे उसने मठ की चीजें बेचनी शुरू कर दी । मारपीट हुई, मुकदमा हुआ । अंत में उसे लद्दाख छोड़ देना पड़ा । मठ के अधिकारियों के बीच जब अवतार को लेकर विचार-विमर्श हो रहा था तो लेखक राहुल सांकृत्यायन ने भी अपने विचार रखे । उनका कहना था- अब अवतार को तिलांजलि दो । पाँच समझदार लड़कों को अच्छी तरह पढ़ाओ । जो अधिक योग्य होगा वही कुशोक होगा । लेखक आगे कहते हैं कि हां तो सभी ने कहा किंतु हां पर अमल होगा इसका मुझे जरा भी विश्वास नहीं । उन्हें वहां की एक और घटना दु:खद मालूम होती है । वे कहते हैं कि सभी खच्चर वालों के साथ लद्दाखी लोग बुरा बर्ताव करते हैं । उन्हें भोटा भोटा कह कर पुकारना तो आम बात है, उन्हें मां बहन की गाली भी दे देते हैं । लेखक कहते हैं कि जब हम लाचा लुड़्ला के उस पार ठहरे थे, तब रात के आठ-नौ बजे एक बूढ़ा लद्दाखी राहगीर डेरा देखकर ठहरने के लिए आया । बेचारा बोली भी नहीं समझता था । तंबू में नहीं, बाहर एक कोने में सोना चाहता था । किंतु उसे गाली दे दे, डंडे मारने का डर दिखा कर वहां से भगाया गया । मैंने सारी जमात की मनोवृति देखकर कुछ नहीं कहा । किंतु दु:ख मुझे बड़ा हुआ । लोग कह रहे थे कि चोर है और भी इसके साथी होंगे । मैं सो गया । रात को मैंने स्वप्न देखा कि कुछ भोटिया चोर मेरे बॉक्स को उठा ले गए । जिसमें मंझिम निकाय का अनुवाद और 4 भोट भाषा की पुस्तकें हैं । मैंने कहा- वही मेरी तीन मास की कमाई है । और चोरों को इससे कुछ फायदा नहीं । अंत में सोते ही टटोलकर पास में वह बक्से को महसूस किया तो दु:स्वप्न हटा । इस तरह हम देखते हैं कि राहुल जी वहां के लोगों की मानसिक प्रवृत्ति भी बीच-बीच में हमें बताते रहते हैं । इसके साथ-साथ वहां की स्त्रियों की वेशभूषा एवं रास्ते में आने वाले गांव का जिक्र भी करते हैं । "पूरे एक सप्ताह के बाद आज दोपहर बारह बजे पहला घर देखने को मिला । यह दर्जा गांव था । अब आसपास पहाड़ों पर काफी देवदार के वृक्ष थे । गांव में यहां भी लद्दाख वाले सफेदे और वीरी के वृक्ष मौजूद थे । सिर्फ घर का ढंग ही लद्दाखी नहीं था, बल्कि थोड़ा नीचे मैंने कुछ स्त्रियों को फीरोजो के सपार्कार लद्दाखी शिरोभूषण पिर-क को भी पहने देखा । आगे एक स्त्री को पीठ पर बोझा ले गुजरते देखा । उसकी नाक में सोने की दुअन्नी भर लॉन्ग भी पड़ी थी । मैं तो समझने लगा कि सारे लाहुल में स्त्रियों ने आभूषणों में लद्दाखी पि-रक और लॉन्ग को अपनाया है किंतु आगे देखने से पता चला कि लद्दाख की पि-रक सिर्फ दारचा गांव में ही है ।" उन्होंने देखा कि फसलों की कटाई ढुलाई करने वाले जो स्त्री पुरुष हैं, वह अपनी मेहनत को हल्की करने के लिए स्वर में स्वर मिलाकर बारी-बारी से कुछ गाते जा रहे हैं । कोईलों के स्वदेशी इन स्त्री पुरुषों के कंठों में भी कुछ असर है । राह में राहुल जी को लाखों वर्षों तक टूट-टूट कर जमा होती पहाड़ी चट्टानों का ढेर भी मिलता है और वे उस ढेर का इतिहास भी मालूम कर लेते हैं । बहुत पहले इसी स्थान पर एक बड़ा गांव था, जिसमें 100 घर थे। एक दिन गांव के सारे लोग एकत्र हो भोज कर रहे थे । उसी समय बड़े लाचा की ओर से कोई वृद्ध आया। उसे साधारण भोटिया समझकर सभी लोगों ने उसका तिरस्कार कर पंक्ति से बाहर निकाल दिया । लेकिन सबसे अंत में एक लड़का बैठा हुआ था। उसने बूढ़े को अपना आसन दे अपने से पहले स्थान पर बैठाया। भोज और छड़ के बाद वृद्ध अंतर्ध्यान हो गया। लोगों ने नाच-गाना चालू कर दिया उसी समय एक भारी तूफान आया और उस तूफान में लाखों भारी- भारी चट्टाने पहाड़ से गिरने लगी। सारा गांव उसके नीचे दब गया। तूफान ने उस लड़के को उड़ा कर दरिया पार कर दिया था। उसकी संतान अब भी मौजूद है और शायद यह ऐतिहासिक घटना भी उसी की परंपरा से सुनी गई है। ऐसा माना जाता था कि इन स्थानों पर एक जबरदस्त भूत रहने लगा। वह दिन-दोपहर को आदमी को पकड़ कर खा जाता था। उस तरफ इक्के-दुक्के निकलने वाले आदमी त्राहिमाम करते जाते थे। आस-पास के गांव वाले कितने ही पूजा पाठ, तंत्र मंत्र करके हार गए लेकिन वह भूत काबू नहीं आया । दो-तीन वर्ष पूर्व हेमिस (लद्दाख) मठ के महंत कुशग स्तग सङ्ग् रसपा इधर से आए और मंत्र से भूत को बांध दिया। तब से उस भूत ने न तो किसी को सताया और न हीं उसे निकलते ही किसी ने देखा। राहुल जी कहते हैं कि पहली घटना से नष्ट हुए गांव के प्राणियों के लिए मुझे अफसोस ही हुआ, किंतु दूसरे भूत की बात सुनकर तो मेरी आत्मा रोम-रोम से अपने मित्र कुशक् तक सङ्ग् रस् पा को आशीर्वाद देने लगा- ह्लयदि वह भूत कहीं खुला होता तो मेरी क्या हालत होती ! शायद मेरे हाथ का लिखा हुआ पत्र तुम्हें नहीं मिल पाता। सबसे अधिक अफसोस तो मुझे सुकखु लाल के घोड़ों के लिए होता जिसपर मैं सवार था। क्या जाने भूखे भूत का पेट सिर्फ सवार से नहीं भरता। लेखक की ये बातें सच में पाठकों को गुदगुदा जाती हैं । यात्रा संस्मरण को, यात्रा वृतांत को और भी रोचक बना डालती है। राहुल सांकृत्यायन के यात्रा साहित्य में दो प्रकार की दृष्टि देखने को मिलती हैं। पहले प्रकार में यात्राओं का केवल सामान्य वर्णन है। और दूसरे प्रकार की यात्रा सहित को शुद्ध साहित्यिक कहा जा सकता है। दूसरे प्रकार के यात्रा साहित्य में राहुल सांकृत्यायन ने स्थान के साथ-साथ अपने समय को भी लिपिबद्ध किया है। उदाहरणस्वरूप, बाकू से ईरान के लिए जब राहुल जी प्रस्थान करते हैं तो बड़े प्रेम से अपना स्वानुभव पाठकों के साथ साझा करते हैं। वे कहते हैं कि ह्ल11 सितंबर 1935 ई को हमारा जहाज खुलने वाला था। हम अपने सामान के साथ 2:30 बजे बंदर पर पहुंचे। रूस में सभी काम योग्यता होने पर सभी के लिए खुले हुए हैं। बड़े से बड़े पद के लिए भी नहीं स्त्री पुरुष का ख्याल है, न एशियाई या यूरोपियन का ख्याल। कस्टम आॅफिसर एशियाई थे और फारसी जानते थे। उन्होंने बड़ी शिष्टतापूर्वक हमारा सामान देखा। रुपयों को भी गिन कर देख लिया। थोड़ी देर बाद हम अपने जहाज में पहुंचे। वे आगे कहते हैं कि पहले-पहल सोवियत के जहाज को देखने का मौका मिला। जहाज का नाम फोमिन था। वह दूसरे दर्जे के यात्री थे और बाकू से पहलवी तक उन्हें $19 (लगभग ?50) देना पड़ा। किराए में दो वक्त का भोजन भी शामिल था।ह्ण राहुल जी बताते हैं कि रूस की तरह ईरान में भी मिल की जगह किलोमीटर का इस्तेमाल होता है। कैस्पियन के किनारे वाला ईरान का यह प्रांत जिलान बहुत ही हरा भरा है। इसके हरे-भरे जंगल, बड़े-बड़े वृक्ष लहलहाते चावल के खेत बड़े सुंदर मालूम होते थे। ईरानी तो इसके प्राकृतिक सौंदर्य पर इतने मुग्ध हैं कि इसे हिंद कोचक यानी छोटा हिंदुस्तान नाम दे रखा है। इन्हीं बातों में इसकी उत्तर बिहार से समानता है। मकानों की छतें अधिकतर फूस की हैं। गांव में अभी कोट-पतलून धीरे-धीरे आ रहा है और उसी के अनुसार मेज-र्सी भी। इस प्रांत में पहुंचकर एक बार भारत याद आने लगा।

Published / 2021-04-07 13:33:32
आर्थिक जगत में एक और तूफान की आशंका

एबीएन डेस्क। कोविड-19 संक्रमण के नए मामलों में लगातार इजाफे ने आर्थिक स्थितियों में सुधार को लेकर खतरा बढ़ा दिया है। आशा तो यही है कि वायरस पर जल्दी नियंत्रण कर लिया जाएगा और यह आर्थिक गतिविधियों को अधिक प्रभावित नहीं करेगा। परंतु देश के नीति निमार्ताओं के लिए सिर्फ वायरस ही चुनौती नहीं है। घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजार में जो परिस्थितियां बन रही हैं वे नीतिगत क्षेत्र की जटिलताएं बढ़ा सकती हैं। उदाहरण के लिए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के ताजे मासिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि ऐसे बॉन्ड निवेशक सुधार की प्रक्रिया को क्षति पहुंचा सकते हैं जो मुद्रास्फीति बढ़ाने वाली मौद्रिक या राजकोषीय नीतियों की स्थिति में बॉन्ड बिकवाली करते हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि आरबीआई प्रतिफल में स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए प्रयासरत है लेकिन हालात नियंत्रित करने में दोनों पक्षों की भूमिका होती है। हालिया दिनों में बॉन्ड प्रतिफल में इजाफा हुआ है और मुद्रा की बढ़ी हुई लागत सुधार की प्रक्रिया को बाधित कर सकती है। परंतु आरबीआई का आकलन कुछ हद तक अतिरंजित लगता है। प्रतिफल के पीछे कुछ बुनियादी वजह हैं और केंद्रीय बैंक को आश्चर्यचकित होने की आवश्यकता नहीं है। सरकारी ऋण में भी काफी इजाफा हुआ है और वह निकट भविष्य में भी ऊंचे स्तर पर बना रह सकता है। मूल मुद्रास्फीति फरवरी में छह फीसदी के स्तर पर पहुंच गई और बढ़ती जिंस कीमतें शीर्ष दर को एक बार फिर बढ़ा सकती हैं। यह बात भी ध्यान देने लायक है कि भारत इकलौता बाजार नहीं है जहां उधारी लागत बढ़ रही है। 10 वर्ष के अमेरिकी सरकारी बॉन्ड पर प्रतिफल 2020 के निचले स्तर से 100 आधार अंक बढ़ चुका है। अमेरिका में उच्च प्रतिफल का असर वैश्विक वित्तीय तंत्र पर पड़ेगा। भारतीय बाजार भी इससे अछूते नहीं रहेंगे। ऐसी चिंताएं हैं कि अमेरिका में 1.9 लाख करोड़ डॉलर का अतिरिक्त प्रोत्साहन कीमतों में इजाफा कर सकता है। अर्थशास्त्री लॉरेंस समर्स ने हाल ही में द वॉशिंगटन पोस्ट में एक आलेख में लिखा...ऐसी संभावना है कि सामान्य मंदी की स्थिति के बजाय द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर के स्तर का वृहद आर्थिक प्रोत्साहन ऐसा मुद्रास्फीतिक दबाव बनाएगा जो पीढि?ों से नहीं देखा गया हो। परंतु अमेरिकी फेडरल रिजर्व फिलहाल चिंतित नहीं है। फेड के चेयरमैन जेरोम पॉवेल का मानना है कि कीमतों में इजाफा अस्थायी होगा। पॉवेल के चिंतित न होने की वजह है। वर्ष 2007-08 के वित्तीय संकट के बाद से ही मुद्रास्फीति अधिकांश समय 2 फीसदी के स्तर के नीचे बनी रही। इसके अलावा फेडरल रिजर्व कुछ समय के लिए उसे 2 फीसदी के दायरे से ऊपर जाने दे सकता है ताकि बीते वर्षों की कम कीमत की भरपाई हो सके। इससे वित्तीय बाजारों में अनिश्चितता बढ़ेगी। बाजारों को यह पता नहीं कि फेड किस समय क्या कदम उठाएगा। इसके अतिरिक्त प्रश्न यह भी है कि यदि मुद्रास्फीति फेड के अनुमान से बहुत अधिक ऊपर चली गई तो क्या होगा? विगत एक वर्ष में फेड की बैलेंस शीट करीब दोगुनी हो चुकी है और ऋण की लागत कम रखने के लिए वह निरंतर परिसंपत्तियां खरीद रहा है। चूंकि राजकोषीय हस्तक्षेप के आकार की तुलना दूसरे विश्वयुद्घ से की जा रही है इसलिए नतीजों पर ध्यान देना भी अहम है। फेडरल रिजर्व बैंक आॅफ सेंट लुइस ने गत वर्ष एक नोट में कहा था कि फेड ने सन 1942 में प्रतिफल को सीमित किया था ताकि उधारी लागत कम रखी जा सके। परंतु घाटे के लगातार बढ़ते रहने के कारण फेड ने सरकारी बॉन्ड एकत्रित करना जारी रखा। सन 1947 तक मुद्रास्फीति बढ़कर 17 फीसदी हो गई थी। आखिरकार सन 1951 में मुद्रास्फीति के 20 फीसदी का स्तर पार करने के बाद प्रतिफल को लक्षित करना बंद किया गया। यह जरूरी नहीं है कि मुद्रास्फीति उसी तरह बढ़ेगी। जापान में 2016 से प्रतिफल को निशाना बनाया जा रहा है लेकिन वहां कीमतें नहीं बढ़ीं। परंतु जापान जैसी मुद्रास्फीति अमेरिका और शेष विश्व के लिए अधिक दिक्कत खड़ी कर सकते हैं। हालात अनिश्चित हैं जिससे बॉन्ड बाजारों में अनिश्चितता बढ़ रही है। परंतु एक बात तय है कि अमेरिका पहले जताए अनुमानों की तुलना में तेज वृद्घि हासिल करेगा। इसका अलग प्रभाव होगा। मसलन अमेरिका में उच्च वृद्घि पूंजी आकर्षित करेगी और डॉलर को मजबूत करेगी। इससे शेष विश्व में हालात तंग हो सकते हैं। वृद्घि और वित्तीय स्थिरता को भी जोखिम उत्पन्न हो सकता है। जिन उभरते बाजारों ने अल्पावधि के डॉलर वाला कर्ज लिया है उन्हें भी दिक्कत हो सकती है। यकीनन भारत 2013 से बेहतर स्थिति में है। आरबीआई ने 2020 में अतिरिक्त विदेशी पूंजी की मदद से भंडार बनाकर बेहतर किया। इससे बाहरी मोर्चे पर अस्थिरता का प्रबंधन हो सकेगा। अमेरिका में बॉन्ड प्रतिफल का सामान्य होना भारत में पूंजी की आवक और ऋण लागत को भी प्रभावित करेगा। वृहद आर्थिक स्थिरता के क्षेत्र में भारत की स्थिति कमजोर कड़ी है। अमेरिका में उच्च वृद्घि जिंस कीमतों को प्रभावित कर सकती है और मुद्रास्फीति बढ़ा सकती है। ऐसे में आरबीआई को कई चुनौतियों का सामना करना होगा। उसे मुद्रा बाजार की अस्थिरता का प्रबंधन करना होगा, सरकार की बढ़ी उधारी और मुद्रास्फीति के दबावों से निपटना होगा तथा आर्थिक स्थिति बहाल करनी होगी। आने वाले महीनों में घरेलू और अंतररार्ष्ट्रीय आर्थिक हालात को देखते हुए विरोधाभासी हालात बन सकते हैं। अर्थशास्त्री रॉबर्ट शिलर द्वारा एकत्रित आंकड़ों के अनुसार 10 वर्ष का अमेरिकी बॉन्ड प्रतिफल सन 1871 से ही औसतन 4.5 फीसदी रहा है। हालांकि हाल के वर्षों में प्रतिफल अपेक्षाकृत कम रहा है क्योंकि मुद्रास्फीति कम रही लेकिन भारी राजकोषीय प्रोत्साहन, केंद्रीय बैंक की बैलेंस शीट में तेजी से विस्तार, मांग में इजाफा और बचत के कारण मजबूत पारिवारिक स्थिति से हालात बदल सकते हैं। ऐसे में वैश्विक वित्तीय बाजार में सही मायनों में तांडव देखने को मिल सकता है।

Published / 2021-04-06 13:24:24
नदियों में बढ़ती गंदगी और हमारी कठिनाई

एबीएन डेस्क। हिमालय तीन प्रमुख भारतीय नदियों का स्रोत है- सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र। भारतीय संस्कृति की साक्षी गंगा अपने मूल्यवान पारिस्थितिकी, आर्थिक और सांस्कृतिक महत्त्व के साथ भारत की सबसे पवित्र नदियों में से एक है। लगभग ढाई हजार किलोमीटर की यात्रा करने वाली यह भारत की सबसे लंबी नदी है। गंगा नदी घाटी क्षेत्र देश की छब्बीस फीसद भूमि का हिस्सा है और भारत की तियालीस फीसद आबादी इससे पोषित होती है। भारत के कुल अनुमानित भूजल संसाधनों का लगभग चालीस फीसद गंगा बेसिन से आता है। शहरी, आर्थिक और औद्योगिक क्षेत्रों से मीठे पानी की लगातार बढ़ती मांग और संरचनात्मक नियंत्रण के कारण गंगा का पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित हो गया है। पारंपरिक नदी प्रबंधन में संरचनात्मक नियंत्रण का प्रभुत्व था, जिसके परिणामस्वरूप नदी कार्यों का स्तर कम होता गया। गंगा पुनर्जीवन और संरक्षण के चार संरचनात्मक स्तंभ हैं- अविरल धारा (निरंतर प्रवाह), निर्मल धारा (स्वच्छ जल), भूगर्भिक इकाई (भूवैज्ञानिक विशेषताओं का संरक्षण) और पारिस्थितिक इकाई (जलीय जैव विविधता का संरक्षण)। हमें यह जानना चाहिए कि चार पुनर्स्थापना स्तंभों को एकीकृत किए बिना हम गंगा की सफाई के सपने को साकार नहीं कर सकते। भारत में पानी राज्य का विषय है और जल प्रबंधन वास्तव में ज्ञान आधारित सोच और समझ पर नहीं टिका है। गंगा के प्रबंधन में ह्यबेसिन-व्यापक एकीकरणह्ण का अभाव है, साथ ही विभिन्न तटवर्ती राज्यों के बीच भी तालमेल की भारी कमी है। इसके अलावा, जल जीवन मिशन के तहत 2024 तक सभी निर्दिष्ट स्मार्ट शहरों में जलापूर्ति और अपशिष्ट जल उपचार के बुनियादी ढांचे को उन्नत करने और स्वच्छ जलापूर्ति सुनिश्चित करने की एक बड़ी चुनौती है। सीमित जल संसाधनों को देखते हुए यह कार्य बहुत बड़ा है। लगभग तीन दशकों तक गंगा को साफ करने के लिए अलग-अलग रणनीतियां अपनाई गईं। इनमें गंगा एक्शन प्लान (जीएपी, चरण एक और दो) और राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की स्थापना जैसे प्रयास थे, लेकिन लंबे समय तक इनके ठोस नतीजे नहीं मिले। दिसंबर 2019 में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में अपनी पहली बैठक में गंगा परिषद ने पांच राज्यों में गंगा बेसिन के दोनों ओर पांच किलोमीटर क्षेत्र में जैविक समूहों को बढ़ावा देकर गंगा के मैदानों में स्थायी कृषि को बढ़ावा देने की योजना पर काम किया। इस पर विचार करते हुए कि पिछले एक दशक में कीटनाशकों के संचयी उपयोग में दोगुनी वृद्धि हुई है और इसका अधिकांश भाग हमारी नदियों में बह गया है, यह एक अच्छी नीति है। सरकार को अंतत: बेसिन में अधिक क्षेत्र को शामिल करने के लिए इसे फैलाने की योजना बनानी चाहिए। नदी किनारे की कृषि संपूर्ण जैविक होनी चाहिए। यह तो स्पष्ट है कि गंगा को केवल प्रदूषण उन्मूलन उपायों द्वारा अविरल-निर्मल नहीं बनाया जा सकता। प्रभावी नीति-निर्माण के लिए वैज्ञानिक आधार चाहिए। कई रणनीतियों जैसे- नदियों को जोड़ने, नदियों के किनारों के विकास परियोजनाएं, गांवों को खुले में शौच मुक्त बनाने, ग्रामीण क्षेत्रों में पाइपलाइन से जलापूर्ति सुनिश्चित करने जैसे प्रयासों को दीर्घकालिक लक्ष्य बनाने की आवश्यकता है। नीतियों को समग्र जल प्रबंधन की प्रौद्योगिकी और व्यापक पहलुओं के अनुकूल होना चाहिए। महत्त्वपूर्ण समय और पैसा उन उपायों पर खर्च किया जा सकता है जिनकी प्रभावशीलता की गंभीरता से जांच नहीं की गई है। इसलिए अब तक किए गए सभी प्रबंधन कार्यक्रमों की समीक्षा करने और पिछली विफलताओं से सीखने की तत्काल आवश्यकता है। आज यदि गंगा को प्रदूषण मुक्त करना है, तो तकनीकी तौर पर हमें गंगा से जुडी समस्याओं को समझना होगा। इसके लिए एक दस-सूत्रीय दिशा निर्देश भी तैयार गया गया है। जिन जिन शहरों से गंगा गुजरती है, वहां का औद्योगिक अपशिष्ट और सीवर का पानी गंगा में गिरता है। इन शहरों में कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, पटना और कोलकाता हैं। इसके अलावा यमुना, गोमती, घाघरा, रामगंगा, सरयू आदि सहायक नदियों का भी अपशिष्ट गंगा में जाता है और इसके चलते व्यापक स्तर पर मानवीय जीवन के साथ-साथ जल जीवन भी संकट में है। गंगा को साफ रखने में यह सबसे बड़ी बाधा है। जाहिर है, गंगा को साफ रखना है तो इससे पहले शहरों, कस्बों की सीवर व्यवस्था को सुधारना होगा। इसके लिए बड़ी कॉलोनियों के स्तर पर केवल विकेंद्रीकृत सीवेज उपचार संयंत्रों (डीएसटीपी) को बढ़ावा देने की जरूरत है। सिंचाई के लिए और प्राकृतिक नालियों के लिए अपशिष्ट जल का पुन: उपयोग होना चाहिए। जिन शहरों को स्मार्ट शहर बनाने की योजना पर काम चल रहा है उनमें पहले ही से सीवेज उपचार संयंत्रों (एसटीपी) की स्थापना पर ध्यान देना होगा। मौजूदा और नियोजित एसटीपी को स्वतंत्र एजेंसियों द्वारा तकनीक-दक्षता, विश्वसनीयता और प्रौद्योगिकी मापदंडों पर दुरुस्त करने की आवश्यकता भी है। कई एसटीपी वांछित मानकों का पालन नहीं कर रहे हैं। सीपीसीबी ने अपने एक सर्वेक्षण में पाया था कि कानपुर में अधिकांश एसटीपी पर्यावरण नियमों का पालन करने में विफल रहे हैं। बाढ़ और सूखे दोनों के स्थायी समाधान के रूप में स्थानीय भंडारण के रूप में तालाबों और झीलों को विकसित और पुनर्स्थापित करने की जरूरत है। मानसून की वर्षा के दौरान प्राप्त पानी का केवल दस फीसद ही पुनर्भरण में जाता है। तालाबों और झीलों का संरक्षण नदी संरक्षण रणनीति का एक अभिन्न अंग होना चाहिए। नदियों में मिलने वाले सभी प्राकृतिक नालों को स्वस्थ जल निकायों में फिर से जीवंत करना होगा। समस्या यह है कि हमारे नगर निकायों ने प्राकृतिक नालों को मैला ढोने वाली नालियों में बदल डालने में बड़ी भूमिका निभाई है। नदियों में मिलने वाले सभी प्राकृतिक नाले आज सीवेज चैनल में बदल गए हैं। ऐसे नालों को फिर से स्वस्थ जल निकायों में बदलना होगा। गंगा बेसिन में निचले क्रम की धाराओं और छोटी सहायक नदियों को पुनर्जीवित करना सबसे जरूरी है। हर नदी महत्त्वपूर्ण है। गंगा एक्शन प्लान के दोनों चरणों और नमामि गंगे में ध्यान सिर्फ नदी की मुख्य धारा पर ही दिया गया, लेकिन नदी को जल देने वाली सहायक नदियों की अनदेखी कर दी गई। गंगा की आठ प्रमुख सहायक नदियां यमुना, सोन, रामगंगा, गोमती, घाघरा, गंडक, कोसी और दामोदर हैं। गंगा की मुख्य धारा और ऊपरी यमुना बेसिन पर प्रदूषण-उन्मूलन के उपायों पर काफी पैसा फूंका गया, जो गंगा बेसिन का सिर्फ बीस फीसद हिस्सा बैठता है। इसके अलावा ये आठ प्रमुख सहायक नदियां छोटी नदियों से भी जुड़ती हैं, जिनका संरक्षण भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। लेकिन छोटी नदियां उपेक्षित हैं, इसलिए उन्हें प्रदूषण से बचाने की योजनाएं भी नजरअंदाज हो जाती हैं। नदियों को बचाने के लिए ह्यनदी-गलियारोंह्ण को बिना सीमेंट-कंक्रीट संरचनाओं के क्षेत्रों के रूप में पहचान करने, परिभाषित करने और उनकी रक्षा करने की जरूरत है। प्रकृति के हजारों वर्षों के कार्यों के बाद नदियों का निर्माण हुआ है। क्षेत्र और शहरी विकास परियोजनाओं या स्मार्ट शहर के विकास के नाम पर नदी के पारिस्थितिकी तंत्र के बुनियादी ढांचे के विकास और विनाश को रोका जाना चाहिए, ताकि जल स्रोतों की रक्षा और संरक्षण किया जा सके। अब बात आती है नदी क्षेत्रों को अतिक्रमण से बचाने की। गंगा की सहायक नदियों की संपूर्ण लूप लंबाई और भूमि के रिकॉर्ड को दुरुस्त और अद्यतन करना होगा। कई नदियों की लंबाई को कम करके आंका गया है जो अतिक्रमण का कारण बनती हैं। नदी की लंबाई को मापने के लिए मौजूदा विधियां त्रुटिपूर्ण हैं और जल संसाधनों के सही मूल्यांकन और राजस्व नक्शे को सही करने के लिए पूरी और सही लंबाई मापना आवश्यक है। लंबाई और भूमि के रिकॉर्ड यह सुनिश्चित करेगा कि सक्रिय बाढ़ के मैदान और नदी-गलियारे अतिक्रमण से मुक्त हों।

Published / 2021-04-05 13:42:23
शिक्षा धर्म से अधिक विज्ञान से प्रभावित हो

एबीएन डेस्क। यह सवाल अपने आप में आज के दिन बेहद महत्वपूर्ण है कि क्या भारत में शिक्षा के नाम पर धर्म प्रचार की अनुमति जारी रहनी चाहिए? किसे नहीं पता कि धर्म प्रचार के कारण हमारे अपने देश में और पूरे विश्व में करोड़ों लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे हैं और रोज ही मारे जा रहे हैं। क्या यह सच नहीं है कि भारत में कुछ खास धर्मों के मानने वाले शिक्षण संस्थानों में अपने-अपने धर्मों के प्रचार के लिए कोशिशें करते रहते हैं। कभी कभी सच में लगता है इस मसले पर देश में एक बार खुली बहस हो जाए कि क्या भारत में धर्म प्रचार की स्वतंत्रता जारी रहे अथवा नहीं? देखा जाए तो केवल अपने धर्म पालन की सबको स्वतंत्रता होनी चाहिये। लेकिन, शिक्षण संस्थानों में अबोध बच्चों को अपने धर्म की अच्छाई और बाकी सभी धर्मों की बुराई बताना बच्चों को अबोध उम्र में कट्टर बनाना और दूसरे धर्मावलंबियों के प्रति घृणा फैलाना कहां तक उचित है? यही तो देश में धार्मिक उन्माद फैला रहा है? यही तो आपसी असहिष्णुता की मूल धर्म के प्रचार- प्रसार की छूट की कोई आवश्यकता नहीं। धर्म कोई दुकान या व्यापार तो है नहीं जिसका प्रचार प्रसार करना जरूरी हो। भारतीय संविधान धर्म की आजादी का अधिकार प्रदान करता है। अनुच्छेद 25 (1) में कहा गया है कि सभी व्यक्ति समान रूप से धर्म का प्रचार करने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन अनुच्छेद 26 कहता है कि धार्मिक आजादी और धार्मिक संप्रदायों के क्रियाकलाप में शांति और नैतिकता की शर्तें भी हैं। अनुच्छेद 28 में कहा गया है कि सरकारी शैक्षिक संस्थानों में कोई धार्मिक निर्देश नहीं दिया जायेगा। अगर हम इतिहास के पन्नों को खंगाले तो देखते हैं कि भारत के संविधान निर्माताओं ने सभी धार्मिक समुदायों को अपने धर्म के प्रचार की छूट दी थी। क्या इसकी कोई आवश्यकता थी? यह मानना होगा कि दो धर्म क्रमश: इस्लाम और ईसाई धर्म के मानने वालों की तरफ से लगातार यह प्रयास होते रहते हैं कि अन्य धर्मों के लोग भी येन-केन-प्रकारेण किसी भी लालच में उनके धर्म का हिस्सा बन जाएं। यह कठोर सत्य है। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है। इस मसले पर देश में बार-बार बहस भी होती रही है और आरोप भी लगते रहे हैं कि इन धर्मों के ठेकेदार लालच या प्रलोभन देकर गरीब आदिवासियों, दलितों वगैरह को अपना अंग बनाने की फिराक में लगे ही रहते हैं। बेशक, भारत में ईसाई धर्म की तरफ से शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में ठोस और ईमानदारी से काम भी किया गया है। पर उस सेवा की आड़ में धर्मांतरण ही मुख्य लक्ष्य रहा है। मदर टेरेसा पर भी धर्मांतरण करवाने के अकाट्य आरोप लगे हैं। उधर, इस्लाम का प्रचार करने वाले बिना कुछ कहे ही धर्मांतरण करवाने के मौके लगातार खोजते हैं। हालांकि मुसलमानों के अंजुमन इस्लाम ने भी शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया है। यह मुंबई में सक्रिय है। अब आप देखें कि आर्य समाज, सनातन धर्म सभी और सिखों की तरफ से देश में सैकड़ों स्कूल, कॉलेज, अस्पताल वगैरह चल रहे हैं। पर इन्होंने किसी ईसाई या मुसलमान को कभी धर्मातरण करवाने का कभी प्रयास नहीं किया। एक छोटा सा उदाहरण और देना चाहूंगा। एमडीएच नाम की मसाले बनाने वाली कंपनी के संस्थापक महाशय धर्मपाल गुलाटी को सारा देश जानता है। वे पक्के आर्य समाजी हैं। महाशय जी पूरी दुनिया में ‘किंग आॅफ स्पाइस’ माने जाते हैं। वे देश की राजधानी में एक अस्पताल और अनेक स्कूल चलाते है। कोई बता दें कि उन्होंने कभी किसी गैर-हिंदू को हिंदू धर्म से जोड़ने की कोशिश भी की हो। खैर, धर्म परिवर्तन केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर में एक जटिल मसला रहा है। इस पर लगातार बहस होती रही है। यह समझने की जरूरत है कि मोटा-मोटी संविधान कहता है कि कोई भी अपनी मर्जी से अपना धर्म बदल सकता है, यह उसका निजी अधिकार है। पर किसी को डरा-धमका या लालच देकर जबरदस्ती या लब जिहाद करके धर्म परिवर्तन नहीं करा सकते। संविधान संशोधन के द्वारा धर्मप्रचार को रोकना संभव तो है। पर यह देखना चाहिए कि धर्म के नाम पर बवाल किस वजह से हुआ? यदि धर्म प्रचार की वजह से हुआ है तो किन लोगों की वजह से हुआ है? एक राय यह भी है कि भारत में उन धर्मों के प्रचार की स्वतंत्रता होनी ही चाहिए जिनका उदय भारत भूमि पर हुआ है। जैसे हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध। अगर यह धर्म अपनी जन्म भूमि पर भी अधिकार खो देंगे तो यह तो उनके साथ बड़ा अन्याय होगा। समस्या का मूल कारण इस्लाम और ईसाई हैं। इस्लाम और ईसाइयत को छोड़ दें तो बाकी धर्मों के बीच कोई आपसी विवाद नहीं है। यदि सभी धर्म प्रतिबन्धित हों जिनमे हिन्दू धर्म और उससे निकले दूसरे धर्म भी शामिल होंगे तो यह गेहूं के साथ घुन पिसने जैसी बात हो जायेगी। हां केवल इस्लाम और ईसाइयत का धर्म प्रचार प्रतिबंधित हों तो युक्ति संगत लगता है। फिर भी इतना तो हो ही सकता है कि विदेशियों को भारत में धर्म प्रचार की मनाही होनी चाहिए। आगे बढ़ने से पहले पारसी धर्म की भी बात करना सही रहेगा। यह भी भारत की भूमि का धर्म नहीं है। यह भारत में इस्लाम और ईसाइयत की तरह से ही आया है। लेकिन, पारसियों ने भारत में अपने धर्म के प्रसार-प्रचार की कभी चेष्टा तक नहीं की। भारत में टाटा, गोदरेज, वाडिया जैसे बड़े उद्योगपति हैं। इन समूहो में लाखों लोग काम करते हैं। ये देश के निर्माण में लगे हुए हैं। सारा देश इनका आदर करता है। इनसे तो किसी को कोई मसला नहीं रहा। इस बीच, धर्म की अवधारणा से भिन्न है मजहब का ख्याल। धर्म का तात्पर्य मुख़्यत: कर्तव्य से है जबकि मजहब की अवधारणा किसी विशिष्ट मत को मानने से है। इसमें किसी किताब में दर्ज शब्दों के अक्षरश: पालन की अपेक्षा की जाती है। किताबिया मजहब जो मानते हैं उन्हें वैसा ही मानते रहने की आजादी बेशक बनी रहे कोई हर्ज नहीं, जैसे कोई सोते रहने की आजादी का तलबगार है, जागना नहीं चाहता, उसे सुख से सोने दीजिए।

Published / 2021-03-27 11:52:40
अंतरिक्ष वैज्ञानिक के कस्तूरीरंगन की रिपोर्ट पर आधारित है नई शिक्षा नीति 2020

रांची। केंद्र सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति 29 जुलाई 2020 को घोषित किया गया। वर्ष 1986 में जारी हुई नई शिक्षा नीति के बाद भारत की शिक्षा नीति में यह पहला नया परिवर्तन है। यह नीति अंतरिक्ष वैज्ञानिक के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षावाली समिति की रिपोर्ट पर आधारित है। नई शिक्षा नीति 2020 के तहत वर्ष 2030 तक सकल नामांकन अनुपात को शत प्रतिशत लाने का लक्ष्य रखा गया है। नई शिक्षा नीति के अंतर्गत शिक्षा क्षेत्र पर सकल घरेलू उत्पाद के 6 प्रतिशत हिस्से के सार्वजनिक व्यय का लक्ष्य रखा गया है। मानव संसाधन प्रबंधन मंत्रालय का नाम परिवर्तित कर शिक्षा मंत्रालय का दिया गया है। पांचवीं कक्षा तक की शिक्षा में मातृभाषा या स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा को कक्षा आठ और आगे की शिक्षा के लिये प्रथमिकता देने का सुझाव दिया गया है। देशभर के उच्च शिक्षा संस्थानों के लिए भारतीय उच्च शिक्षा परिषद नामक एक एकल नियामक की परिकल्पना की गयी है। शिक्षा नीति में यह पहला परिवर्तन बहुत पहले लिया गया था। इस नई नीति में मानव संसाधन मंत्रालय का नाम पुन: शिक्षा मंत्रालय करने का फैसला लिया गया है। इसमें समस्त उच्च शिक्षा के लिए एकल निकाय के रूप में भारत उच्च शिक्षा आयोग का गठन करने का प्रावधान है। संगीत, खेल, योग आदि को सहायक पाठ्यक्रम या अतिरिक्त पाठ््यक्रम की बजाय मुख्य पाठ्यक्रम में ही जोड़ा जायेगा। एम फिल को समाप्त किया जायेगा। जब अनुसंधान में जाने के लिए तीन साल के स्नातक डिग्री के बाद एक साल स्नातकोत्तर करके पीएचडी में प्रवेश लिया जा सकता है। नीति में शिक्षकों के प्रशिक्षण पर बल दिया गया है। व्यापक सुधार के लिए प्रशिक्षण और सभी शिक्षा कार्यक्रमों को विश्वविद्यालयों या कॉलेजों के स्तर पर शामिल करने की सिफारिश की गयी है। प्राईवेट स्कूलों में मनमाने ढंग से फीस रखने और बढ़ाने को भी रोकने का प्रयास किया जायेगा। पहले समूह के अनुसार विषय चुने जाते थे किंतु अब उसमें भी बदलाव किया गया है। जो छात्र इंजीनियरिंग कर रहे हैं वह संगीत को भी अपने विषय के साथ पढ़ सकते हैं। नेशनल साइंस फाउंडेशन के तर्ज पर नेशनल रिसर्च फाउंडेशन लायी जायेगी जिससे पाठ्यक्र्रम में विज्ञान के साथ सामाजिक विज्ञान को भी शामिल किया जायेगा। नीति में पहले और दूसरे कक्षा में गणित और भाषा एवं चौथे और पांचवें कक्षा के बालकों के लेखन पर जोर देने की बात कही गयी है। स्कूलों में टेन प्लस टू फार्मेट के स्थान पर 5+3 +3 +4 फार्मेट में शामिल किया जायेगा। तीन साल के प्री-प्राइमरी के बाद कक्षा एक शुरू होगी। इसके बाद कक्षा 3-5 के तीन साल शामिल हैं। इसके बाद 3 साल का मिडिल स्टेज आयेगा यानी कक्षा छह से आठ तक की कक्षा। चौथा स्टेज कक्षा नौ से 12वीं तक का चार साल का होगा। पहले जहां 11वीं कक्षा से विषय चुनने की आजादी थी वही अब नौवीं कक्षा से रहेगी। शिक्षण के माध्यम से पहली से पांचवीं तक मातृभाषा का इस्तेमाल किया जायेगा। इसमें रटा विद्या को खत्म करने की भी कोशिश की गयी है। जिसकी मौजूदा व्यवस्था की बड़ी खामी माना जाता है। किसी कारणवश विद्यार्थी उच्च शिक्षा के बीच में ही कोर्स छोड़ कर चले जाते हैं। ऐसा करने पर उन्हें कुछ नहीं मिलता एवं उन्हें डिग्री के लिये दोबारा नई शुरूआत करनी पड़ती है। नई नीति में पहले वर्ष में कोर्स को छोड़ने पर प्रमाण पत्र, दूसरे वर्ष छोड़ने पर डिप्लोमा व अंतिम वर्ष छोड़ने पर डिग्री देन का प्रावधान है। भारतीय संविधान के नीति निदेशक तत्वों में कहा गया है कि वर्ष छह से 14 तक के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाये। (लेखक केंद्रीय विद्यालय पलामू के प्राचार्य हैं।)

Published / 2021-03-25 13:07:22
देश में हरित उर्जा की संभावना और चुनौती

भारत में मजबूत लोकतंत्र है जिसकी दुनिया में साख है। पिछले कुछ वर्षों में भारत ने सौर ऊर्जा क्षेत्र में काफी उपलब्धियां हासिल की हैं। अनुमान है कि साल 2022 तक भारत 175 गीगावाट ऊर्जा हरित साधनों से पैदा करेगा और 2030 तक यह साढ़े चार सौ गीगावाट तक पहुंच जाएगी। भारत हरित विश्व व्यवस्था का मुखिया बन सकता है। भारत ने पेरिस सम्मलेन के उपरांत अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा कूटनीति की जो शुरूआत की, उसमें उसे बड़ी सफलता हासिल हुई है। अमेरिका के उत्तरी कैलिफोर्निया के जंगलों में लगी आग ने एक बार फिर यह सोचने को मजबूर किया है कि आखिर कब तक इंसान प्रकृति का दोहन करते हुए उसके साथ खिलवाड़ करता रहेगा। सबसे ज्यादा तो यह दुनिया के उस देश में हो रहा है जो प्रकृति का दोहन कर पिछली एक सदी से दुनिया का मठाधीश बना हुआ है। जब पूरी दुनिया हरित उर्जा की बात कह रही थी, तब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने देश के एक प्रतिष्ठित उद्योग घराने को बंद कमरे में यह विश्वास दिला रहे थे कि कार्बन जनित इंधन पर कोई पाबंदी नहीं लगाई जाएगी। अपने देश में गैस के अकूत भंडार मिलने के बाद अमेरिका की नीयत बदल गई है। खाड़ी देशों में 1945 से चली आ रही अमेरिकी घुसपैठ थम गई है। अमेरिका तेल की जगह अपनी गैस के जरिए आर्थिक ढांचे को बढ़ाने की कोशिश करेगा, अर्थात हरित ऊर्जा को अभी भी वह खास अहमियत नहीं दे रहा। नई विश्व व्यवस्था की बात पिछले एक दशक से चल रही है। माना जा रहा है कि शक्ति का हस्तांतरण अब पश्चिम से पूर्व की ओर होगा। जाहिर है, एशिया ही नई वैश्विक व्यवस्था के केंद्र के रूप में उभरने की ओर है। चीन पूरी तरह से नेतृत्त्व की तैयारी में जुटा है। उसने साल 2035 तक का खाका तैयार भी कर लिया है। तब तक चीन दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सैन्य शक्ति बन जाएगा। लेकिन चीन की सोच के अनुसार दुनिया बदलती हुई दिखाई नहीं दे रही है। कोरोना महामारी फैलाने के आरोप को लेकर पिछले सात महीनों में चीन को लेकर जो संदेह गहराता जा रहा है, उससे उसका वैश्विक स्वरूप खंडित हुआ है। यूरोप के ज्यादातर देश जो उसके हिमायती हुआ करते थे, वही अब उससे सवाल पूछ रहे हैं। पूर्वी एशिया के पड़ोसी भी चीन के व्यापार और सैन्य विस्तार को बड़े खतरे के रूप में देख रहे हैं। भारत के साथ गलवान घाटी में संघर्ष को हवा देकर चीन अपनी आतंरिक करतूतों को ढकने में लगा है। इसलिए एक सामरिक विस्तार जो दुनिया में मठाधीश बनाने के लिए जरूरी था, वह अब दम तोड़ रहा है। दुनिया में महाशक्ति बनने के लिए कई गुणों की जरूरत पड़ती है। इनमें दो गुण विशेष हैं। पहला, ऐसा देश जो दुनिया के किसी भी हिस्से में सैन्य दखल की क्षमता रखता हो, और दूसरा यह कि जिसके पास दुनिया के किसी भी हिस्से में पमाणु मिसाइलें दागने की ताकत हो। अमेरिका इन दोनों ही क्षमताओं से युक्त है, लेकिन उसकी तुलना में चीन को अभी इतनी ताकत हासिल करने के लिए वक्त लगेगा। ऐसे में जिस नई वैश्विक व्यवस्था की संभावना बन रही है और जिसकी पूरी दुनिया को जरूरत है, वह हरित विश्व व्यवस्था की है। इसमें जो बाजी मार ले जाएगा, वही दुनिया का नया बादशाह बनेगा। लेकिन सवाल है कि यह क्षमता है किस देश के पास? अमेरिका इस श्रेणी से पहले ही से बाहर है। क्योटो प्रोटोकॉल और पेरिस संधि को नकारने के बाद अमेरिका कभी भी हरित विश्व व्यवस्था का नेतृत्व नहीं कर सकता, न ही दुनिया उसके नेतृत्व को स्वीकार करने वाली है। दूसरा देश चीन है। चीन ने पिछले कुछ वर्षों में हरित उर्जा में अद्भुत क्षमता विकसित कर ली है। 2018 में सौर ऊर्जा के जरिए चीन ने एक सौ अस्सी गीगा वाट ऊर्जा उत्पन्न कर बड़ी-बड़ी बसें और ट्रक भी सौर ऊर्जा से चलाने में कामयाबी हासिल कर ली। पवन ऊर्जा में भी वह आगे है। लेकिन इतना कुछ होने के बावजूद हरित विश्व के रिकॉर्ड में चीन काफी नीचे है। इसके कई कारण हैं। पहला तो यह कि देश के भीतर तो चीन हरित ऊर्जा की वकालत करता है, लेकिन बाहरी दुनिया में वह जम कर कार्बन जनित आर्थिक व्यवस्था को अहमियत दे रहा है। पिछले कई सालों से अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के देशों में वह कोयले का जम कर इस्तेमाल कर रहा है, जिससे इन देशों में प्रदूषण की समस्या गंभीर बनती जा रही है। चीन दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में कोयला उत्पादन क्षेत्रों को खरीद चुका है। सबसे बड़ा कोल उत्पादक देश होने के बावजूद कोयले का सबसे बड़ा आयातक देश भी चीन ही है। अर्थात अपने लिए स्वच्छ और हरित ऊर्जा और दूसरों के लिए कार्बन का ढेर। यह नीति तर्कसंगत नहीं है। आने वाले दो दशकों तक चीन के कार्बन उत्पादन में कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं आने वाला। यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि चीन भविष्य में हरित ऊर्जा वाली नई वैश्विक व्यवस्था की अगुआई करेगा और दुनिया के देश उसके नेतृत्व को स्वीकार करेंगे। थाईलैंड, मलेशिया जैसे देश तक अब उसके खिलाफ हैं। जहां तक सवाल है यूरोपीय देशों का तो हरित ऊर्जा के मामले में ग्रीनलैंड, आइसलैंड जैसे यूरोप के छोटे देश काफी आगे हैं। इसी तरह अफ्रीका के मोरक्को, घाना और एशिया में भूटान जैसे देश हैं। लेकिन ये देश इतने छोटे हैं कि ये हरित वैश्विक व्यवस्था का नेतृत्व नहीं कर सकते। फ्रांस के साथ तकरीबन सड़सठ देशों ने इसमें शिरकत की और साझेदार बन गए। सौर ऊर्जा क्षेत्र में अगुआई के लिहाज से यह बड़ा हासिल रहा। दूसरा यह कि भारत में हरित उर्जा के अन्य स्रोत भी उपलब्ध हैं। मसलन पवन ऊर्जा, बायोमास और छोटे-छोटे पनबिजली संयंत्र। ऊर्जा का जलवायु परिवर्तन से सीधा संबंध है। प्राकृतिक आपदाओं के पीछे बड़ा कारण धरती और वायुमंडल में कार्बन की बढ़ती मात्रा है। पिछले दो सौ सालों में कल-कारखानों से निकली जहरीली गैसों के कारण प्रकृति में कार्बन की मात्रा बढ़ी है। इसके लिए सबसे ज्यादा दोषी यूरोप के औपनिवेशिक देश और बाद में अमेरिका रहा है। भारत की प्राचीन आर्थिक व्यवस्था पूरी तरह से प्रकृति जनित और उस पर आधारित थी। भारत में हमेशा से प्रकृति के साथ जिंदा रहने को महत्त्व दिया गया है। जल, जमीन और जंगल के सुनियोजित प्रयोग की सीख दी गई। यह अलग बात है कि आजाद भारत गांधी के भारत के हट कर पश्चिमी आर्थिक व्यवस्था का अभिन्न अंग बन चुका है। आज भारत के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह है कि दुनिया को एक सूत्र में बांधने के लिए वह वैश्विक भूमिका में उतरे और अपनी स्वीकार्यता बनवाए। हरित वैश्विक व्यवस्था की अगुवाई के लिए भारत के पास क्षमता और संसाधन दोनों हैं। बस इनका उपयुक्त तरीके से उपयोग करना है।

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